Sunday 26 October 2014



                                                                               बुद्धं शरणं
विशाखापत्तनम आंध्रप्रदेश का सबसे बड़ा समुद्रतटीय कारोबारी शहर है। तूफान के पहले शानदार हरियाली के बीच बसी बीस लाख आबादी। शहर से सटी एक पहाड़ी इसे दो हजार साल पुरानी विरासत से जोड़ती है। पकी हुई ईंटों से बना बौद्ध मठ। अपने मूल रूप में यहां का स्तूप 80 फुट ऊंचा रहा होगा। इस पहाड़ी के उतार पर सामने दूर तक समुद्र लहराता हुआ देखिए। गौतम बुद्ध के अनुयायी यहां समुद्री रास्ते से ही आए होंगे।


 सम्राट अशोक ने जब कलिंग की लड़ाई जीती तब यह इलाका कलिंग की सीमाओं में था। आसपास कई पहाडिय़ों पर बौद्ध मठ बने। मैंने बिहार में प्राचीन नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के खंडहर देखे हैं। उत्तरप्रदेश में श्रावस्ती और इलाहाबाद के पास कौशांबी नाम की जगह पर भी गया हूं। वाराणसी के पास सारनाथ तो कई बार जाना हुआ है। इनमें श्रावस्ती, सारनाथ और कौशांबी वे जगहें हैं, जहां गौतम बुद्ध स्वयं आए। तथागत के जीवन के करीब 24 चातुर्मास श्रावस्ती में ही हुए।
 इन सारे बौद्ध स्मारकों में समानता यह है कि इनके निर्माण की तकनीक और सामग्री बिल्कुल एक जैसी है। अलग-अलग आकार की पकी हुई ईंटों का बेजोड़ इस्तेमाल हुआ है। यहां पत्थर का उपयोग न के बराबर है। सिर्फ फर्श और दरवाजों पर। विशाखापत्तनम के बौद्ध परिसरों का निर्माण भी बिल्कुल इसी ढंग से हुआ है। यह सारनाथ, कौशांबी, नालंदा और विक्रमशिला का ही विस्तार मालूम होता है।

 यह भारत की रगों में रची-बसी रचनाशीलता की चमकदार श्रृंखला है। इतिहास के थपेड़ों ने काफी कुछ नष्ट कर दिया मगर ये खंडहर आज भी हमें गर्व की अनुभूति देते हैं। हमें आत्मविश्वास से भरते हैं। हमें अपनी मजबूत नींव का अहसास कराते हैं। इन स्मारकों में हमारे महान् पूर्वजों का परिश्रम और खून-पसीना ही नहीं लगा, उनकी सृजनशीलता और साहस के भी प्रमाण हैं ये।

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