Tuesday 29 May 2018

कालसर्प योग


ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं, जो जन्मकुंडली और ज्योतिष में भरोसा रखने वालों के लिए कालसर्प योग की शांति का एकमात्र केंद्र है। यह भारत की सर्व समावेशी संस्कृति का भी एक गजब नमूना है। मैंने एक जिज्ञासु के रूप में यहां की यात्रा की थी। मेरा विश्वास अपनी जगह है मगर मेरी कुंडली में ऐसा कोई योग नहीं है। मैं किसी पक्ष या विपक्ष में नहीं हूं। अपने बुद्धि-विवेक से परंपराओं में यकीन रखता हूं। यह मेरा निजी मामला है। एक प्राचीन मंदिर और सिद्ध स्थान के दर्शन का लालच मुझे यहां खींच ले गया था। मैं यहां कई लोगों से मिला। पुरोहितों से भी, दूर-दूर से आए ग्रह नक्षत्रों से हैरान-परेशान हर वर्ग के यजमानों से भी। दो भागों में यह विवरण इन्हीं लंबी बातचीतों पर आधारित है।

35 साल के मोहम्मद शहरोज मुंबई के हैं। ट्रांसपोर्ट कारोबारी हैं। पढ़े-लिखे हैं। पैसे वाले हैं। सब कुछ ठीक चल रहा था। पांचेक साल पहले अचानक एक बड़ी रकम किसी झमेले में फंस गई। कई उपाय किए। कोई रास्ता नहीं निकला। कुछ और कारोबारी झटके भी लगातार लगे। वे बड़े परेशान हुए। किसी ने कहा यहां चादर चढ़ाओ, वहां मत्था टेको। कई दरगाहों पर गए। ताबीज बांधे। कोर्ट-कचहरी भी चली। मगर मुश्किल बढ़ती गई। उनके दोस्तों की जमात भी बड़ी है। दोस्तों में सब जाति-मजहब वाले हैं। किसी हिंदू दोस्त ने कह दिया-मियां कुंडली किसी जानकार को दिखाओ। कोई ग्रह गड़बड़ कर रहा है। वर्ना यह सब अचानक नहीं होता और बार-बार नहीं होता। भरोसा हो तो मैं एक पता देता हूं।

उन्होंने नासिक के एक पुरोहित का नंबर थमा दिया। शहरोज अगली ही छुट्‌टी में उनसे मिले। जन्म कुंडली तो थी नहीं। घर में पूछकर अपने जन्म की तारीख, दिन और स्थान बताया। कुंडली में कालसर्प योग पाया गया। वे इस्लाम के अनुयायी हैं, जहां बुतपरस्ती और पूजा-पाठ हराम है। पुरोहित ने कालसर्प योग की शांति के लिए भारत की सनातन परंपरा में प्रस्तावित शास्त्रों का उपाय उन्हें बताया। साथ ही यह भी कहा कि वे चाहें तो पालन करें, चाहें तो न करें। यह विश्वास की बात है। मायूस शहरोज कई दरवाजों से होकर यहां आए थे। उन्होंने स्वीकार किया कि यह सच है कि हमारे यहां इन चीजों को लेकर कोई यकीन नहीं है। यकीन ही नहीं, नफरत की हद तक विरोध भी है। उन्होंने माना कि हमारे पुरखे हिंदू ही थे, ऐसा भी हमारे बुजुर्गों से हमने अक्सर सुना है। शहरोज अपनी बीवी और बेटी के साथ पूरे भक्तिभाव से एक सुबह चार घंटे की इस पूजा में बैठे। अनुकूल परिणाम के लिए पुरोहित की बताई सात्विक जीवन की शर्तों का पालन किया। दो महीने के भीतर अपने करीबी रिश्तेदाराें और दोस्तों को भी उन्होंने यहां का पता बताया, जो उन्हीं की तरह लगातार और बेवजह की मुश्किलों से मशक्कत कर रहे थे।

भगवान शिव के 12 पवित्र ज्योतिर्लिंगों में से एक यह जगह इस नाते भी दुनिया भर के हिंदुओं में प्रसिद्ध है कि यह कालसर्प योग की शांति का एकमात्र स्थान है। जन्मकुंडली में कालसर्प योग है तो जीवन में वह अपने घातक प्रभाव दिखाता रहता है। जो लोग इन पर विश्वास करते हैं, वे इस विपरीत योग की शांति के लिए बिना देर किए त्रयम्बकेश्वर का टिकट कटाते हैं। दुनिया भर से करीब दस हजार लोग रोजाना यहां आते हैं। नागपंचमी के दिन यह संख्या 50 हजार से ऊपर होती है, जो चार से छह महीने पहले अपना अनुष्ठान आरक्षित करते हैं। त्र्यम्बकेश्वर में करीब पांच सौ दक्ष पुरोिहत हर दिन सुबह चार बजे से दोपहर दो बजे तक इस दुर्योग से निजात के लिए शास्त्रोक्त विधि का पालन करते हैं।

मोहम्मद शहरोज यहां आने वाले उन 10 फीसदी यजमानों में से एक हैं, जो हिंदू नहीं हैं लेकिन अपने या अपने परिवार में आए ऐसे किसी भी लाइलाज संकट के निदान के लिए मजबूर होकर यहां तशरीफ लाते हैं। इनमें ज्यादातर मुस्लिम, ईसाई, सिख और कुछ बौद्ध भी हैं। बाहर की दुनिया में ब्राह्मणों को पानी पी-पीकर गरियाने वाले समय के सताए हुए दलित नेता और अफसर भी कुंडली में कालसर्प योग का पता चलने पर माथे पर तिलक लगाए यहां कतार में नजर आएंगे। आरक्षण या प्रमोशन में आरक्षण की पैरवी करने वाले कई माननीय मंत्री-मुख्यमंत्री यहां आते रहते हैं और किसी की हिम्मत नहीं जो यहां पूजा-अनुष्ठान में आरक्षण लागू करने की बात दिमाग में भी लाए। वे उन्हीं ब्राह्मणों के बारंबार चरण छूकर प्रस्थान करते हैं, जिनके बारे में राजनीतिक सभाओं में अल्लबल्ल बकते हैं।

अब मिलिए 27 साल के पंडित विष्णु तिवारी से, जो त्रयम्बकेश्वर के पांच सौ दक्ष पुरोहितों में सबसे युवा हैं। वे महर्षि महेश योगी की वेद विज्ञान विद्यापीठ में पांच साल तक वेदों, ज्योतिष और कर्मकांड की पढ़ाई कर चुके हैं। अपनी जिंदगी के इन शानदार सालों में वे हरेक ज्योतिर्लिंग पर तीन-तीन महीने की परिक्रमा अनेक अनुष्ठानों के साथ पूरी कर चुके हैं। यह उनकी पढ़ाई का व्यवाहरिक हिस्सा था। पूरी पढ़ाई के दौरान वे जबलपुर, इलाहाबाद और दिल्ली जैसे बड़े केंद्रों में भी रहे। 2011 से वे त्रयम्बकेश्वर में हैं, जहां वे सबसेे पहले 2003 में आए थे। वे कहते हैं कि यहां आकर यूं ही कामना की थी कि ईश्वर मुझे यहीं अपनी शरण में बुलाना। और योग कुछ ऐसे बने कि वे मध्यप्रदेश को अलविदा कहकर यहां बस गए। संस्कृत में तो वे निष्णात हैं ही, हिंदी से अच्छी मराठी है।

कालसर्प योग का नाम सबने सुना है मगर यह होता क्या है?

किसी भी जन्मकुंडली में 12 गृह होते हैं। इनमें से किसी एक में अगर राहू विराजमान है तो उससे सातवें घर में केतु होगा ही। अगर ऐसा नहीं है तो कुंडली सही नहीं मानी जानी चाहिए। राहू के किसी भी घर में होने का सीधा मतलब है कि वह उसे कमजोर करेगा। आसान भाषा में कहें तो राहू का स्वभाव है-कबाड़ा करना, भट्‌टा बैठाना। जिस भी ग्रह के साथ यह होगा, उसे चोट करेगा। यह उसका स्वभाव है। जैसे सूर्य का स्वभाव है- वर्चस्व बनाना, प्रभावशाली होना, मान-सम्मान बढ़ाना। अगर कुंडली में सूर्य के साथ राहू विराजमान हों तो यह सूर्यग्रहण दोष कहलाएगा। राहू और केतु एक ही शरीर के दो हिस्से हैं। केतु भी जिस ग्रह में होगा, परेशानी पैदा करेगा।

अब मान लीजिए राहू कंुडली में प्रथम स्थान यानी लग्न में है तो मानिए कि जातक का स्वभाव उग्र होगा। यहां से सातवां स्थान पत्नी का होता है, जहां केतु की स्थिति तय है। तो यहां ये महाराज पत्नी को शारीरिक-मानसिक कष्ट में डालेंगे। अगर राहू दूसरे घर में यानी धन स्थान पर है तो निश्चित ही आर्थिक मोर्चे पर कबाड़ा करेगा। यहां से सातवां यानी आठवां घर मृत्यु का होता है, जहां केतु अप्राकृतिक मृत्यु की तरफ धकेलेगा या मृत्यु तुल्य कष्ट पैदा करेगा। राहू से क्रम में सातवें घर मंे केतु होंगे ही।

जब राहू-केतु दोनों के बीच सारे ग्रह एक तरफ आ जाएं तो यह होता है पूर्ण कालसर्प योग। अगर ऐसा है तो नोट कीजिए जातक के जीवन में हद से ज्यादा मुश्किलें आती रहेंगी, अकारण संघर्ष होगा, काम बनते-बनते बिगड़ेंगे। इसे सांप-सीढ़ी के खेल की तरह समझिए कि आप खूब संघर्ष के बाद ऊपर पहुंचेंगे मगर वहां सांप मुंह खोले मिलेंगे और एक झटके में नीचे ला पटकेंगे। अब इस दुर्गति और परेशानी की वजह या बहाना कुछ भी बनेगा। आपका एक गलत फैसला, किसी की एक गलत सलाह। कुछ भी। अगर संयोग से राहू और केतु के बीच सारे ग्रह एक तरफ हों लेकिन कोई एक ग्रह बाहर अपनी जगह बनाता दिखे तो उसकी डिग्री राहू के अंश से ज्यादा होनी चाहिए अन्यथा यह अर्द्ध कालसर्प योग बनाएगा।

अब मूल बात। आखिर इस अनुष्ठान में होता क्या है?
यह चार घंटे का अनुष्ठान है। सबसे पहले संकल्प। यह सबसे अहम हिस्सा है। इसमें जातक अपने नाम, गोत्र, इच्छा और लक्ष्य को प्रकट करते हैं। मूल श्लोक संस्कृत में। यह काम तीन प्रत्यक्ष देवताओं की साक्षी में होता है। ये हैं-सूर्य, अग्नि और वरुण। श्लोक में कहा जाता है कि हे देव आप हमारी पूजा के साक्षी हैं। इनके बाद गणपति पूजन और कलश का पुण्य वाचन। आशीर्वाद के एक श्लोक का अर्थ है- धन धान्य, लक्ष्मी, विजय, लाभ, पुत्र, पौत्र, आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य और शत्रु पराजय। पुरोहित जब संस्कृत में श्लोक का उच्चारण करते हैं तो जातक मन में दोहराते हैं-मम ग्रह। अर्थात् मेरे घर में...

दूसरे श्लोक का अर्थ है-पाप, रोग, शोक, दुख, दारिद्र, भय, पीड़ा मेरे घर से दूर जाए। बाहर निकले। तब जातक बोलते हैं-मम भो ब्राह्मण: भू देव:। यह आशीर्वाद के लिए व्यक्त किया गया अनुग्रह है। इसके बाद एक प्रार्थना में व्रत, नियम, तप, स्वाध्याय, कृतु, दम, दया, दान के जिक्र हैं। जातक को निर्देश होते हैं कि वह इस पूजा के बाद अगले सवा महीने तक अपनी जीवनचर्या में सात्विक बदलाव लाए। इस दौरान मदिरा पान, मांसाहार से दूर रहें, कहीं भी मुफ्त का भोजन न लें। सवा महीने में ही कालसर्प योग की शांति के नतीजे अनुभव में आने लगते हैं।

फिर सोलह देवियों का पूजन, राहू काल सर्प शांति, नवग्रह शांति और आरती, होम-हवन के साथ पूर्णाहुति। राहू काल सर्प शांति प्रधान पूजा है। इसमें नौ नागों की पूजा होती है। मान्यता है कि नौ ग्रह कालसर्प योग के कारण नाग रूप में आ गए हैं। पूजा में राहू-केतु की प्रतिमाएं और एक सोने का नाग रखा जाता है। सोने का नाग इसलिए कि कई ऐसे दोष जो अज्ञात हैं, वे भी विसर्जित हों। आज के बाद कोई भी अतिरिक्त व्याधि जीवन में शेष नहीं रहनी चाहिए। इनकी समस्त शांति के लिए धातुओं में स्वर्ण प्रथम होने से सोने का नाग इसके लिए निर्धारित किया गया। इतना करने के बाद नवग्रह शांति का आशय इतना है कि कालसर्प योग में सारे ग्रह जो नाग रूप में थे, अब उन्हें शक्ति प्राप्त होनी चाहिए।

पूजा के अंतिम चरण में क्षेत्रपाल पूजा होती है। राहू राक्षस प्रवृत्ति के हैं। इसलिए उन्हें बलि या कुर्बानी लगती है। भले ही देवताओं के बीच बैठकर समुद्र मंथन से निकला अमृत पी लिए हों। उन्हें यही भोग प्रसन्न करता है। इसलिए उड़द मांसाहार के रूप में अर्पित किए जाने का प्रावधान है। मैंने पहली ही बार सुना कि उड़द को संस्कृत में मांस अन्न कहा गया है। रक्तबीज नाम के राक्षस के रक्त से जमीन से उड़द की उत्पत्ति की कोई प्राचीन कथा है। चूंकि सनातन धर्म में जीव हिंसा निषेध है लेकिन राहू को बलि से प्रसन्न भी करना है तो उनके प्रिय भोग मांस अन्न के रूप में उड़द पर्याप्त है। अंत में उस कामना का अर्पण, जिसके लिए आप त्रयम्बकेश्वर आए।

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कालसर्प की शांति त्रयम्बकेश्वर में ही क्यों?
पंडित विष्णु और पंडित शिवाकांत चार भाई हैं। ये दोनों यहीं हैं। शिवाकांत छोटे हैं मगर त्रयंबकेश्वर में वे पहले से हैं। दोनों ही महर्षि महेश योगी की उन विद्यापीठों से निकले हैं, जिनमें प्रवेश के लिए छपने वाले अखबारी विज्ञापनों में एक समय मोटे अक्षरों में छपता था-सिर्फ ब्राह्मण बालकों के लिए। दूरदराज गांवों के परंपरावादी ब्राह्मण परिवारों ने अपने कुल-कुटुंब के एक-दो बच्चों को सालों तक इन विद्यापीठों में यह सोचकर भेजा कि हमारे वंश से कोई तो अपने मूल कार्य में जाए। इसलिए ये बच्चे स्कूल-कॉलेज की औपचारिक पढ़ाई से वंचित रहे मगर ऐसा कुछ हासिल करके निकले कि आज इनके कारण इनके परिवारों की प्रतिष्ठा भी है। विष्णु और शिवाकांत के बड़े भाई मनोज शास्त्री सबसे पहले अस्सी के दशक में महर्षिजी के आव्हान पर वेदों के पाठ्यक्रमों में शामिल हुए थे। इसे पूरा करने के बाद वे दो साल के लिए एक अनुष्ठान में अमेरिका गए। दूसरी बार फिर दो साल के लिए उनका चुनाव हुआ। वे गए मगर छह महीने में ही भारत प्रेम उन्हें यहां खींच लाया। वे मध्यप्रदेश में ही हैं। 

शिवाकांत अब तक करीब दस लाख लोगों की कालसर्प योग की शांति कर चुुके हैं। इनमें देश भर के हर दल के छोटे-बड़े नेता, अफसर, एक्टर, खिलाड़ी और बड़े कारोबारियों से लेकर सामान्य किसान, नौकरीपेशा और उनके परिजन भी शामिल हैं। अमावस और पूर्णिमा पर सबसे ज्यादा लोग होते हैं और नागपंचमी पर इनकी तादाद हजारों में होती है, जो चार-छह महीने पहले समय तय करके बेफिक्र होकर आते हैं। पंडित विष्णु अपना सीमित समय ही देते हैं और अब तक देश भर में उनके 30 हजार कृतज्ञ यजमान हैं, जो लगातार उनके संपर्क में रहते हैं। इतने लोगों के कालसर्प योग शांति का मतलब है इतनी ही जन्म कुंडलियों का अध्ययन वे कर चुके हैं। शिवकांत के यजमानों में कई प्रवासी भारतीय भी हैं, जो दुनिया के कई देशों से हैं।

दोनों से मेरा एक और सवाल था-कालसर्प की शांति त्र्यम्बकेश्वर में ही क्यों?

मैं उनके सामने सिर्फ अपनी जिज्ञासाएं लेकर गया था। मेरी कुंडली में ऐसा कोई योग नहीं है। सारे ग्रहों की कृपा मुझ पर जन्मजात है। मेरी अगाध आस्था अपनी परंपराओं में है। मुझे इन पर गर्व है। मैं एक ऐसी समृद्ध संस्कृति का हिस्सा हूं, जिसे समय के अनंत विस्तार में मेरे महान पूर्वजों ने बुद्धि के सब दरवाजे-खिड़कियां खोलकर विकसित किया। दोनों युवा पुरोहितों ने मेरे प्रश्न पर कहा कि वे इस अनुष्ठान के पहले अपने सभी यजमानों को इसकी पृष्ठभूमि जरूर बताते हैं। उनसे कहते हैं कि वे जो चाहे प्रश्न पूछें। किसी भी विधि, सूत्र या मंत्र को सिर्फ किसी जानकार के कहने मात्र से विश्वास न करें। अपनी बुद्धि का प्रयोग जरूर करें। गहन जिज्ञासु बनें। प्रश्न करें कि यह क्या है, क्यों होता है, इसका निवारण देश में यहीं क्यों बताया गया है? इसके पीछे कहानियां क्या हैं? अनुष्ठान के असर कैसे अनुभव होते हैं?

मेरे प्रश्न के उत्तर में कथा समुद्र मंथन की है, जो सबने ही सुनी है। देवताओं और राक्षसों ने समुद्र मंथन किया। सबसे पहले विष निकला। इसे ग्रहण करने की शक्ति किसके पास थी। शिव ने इसे कंठ में धारण किया। वे नीलकंठ कहलाए और इसीलिए देवाें के देव महादेव भी। फिर महालक्ष्मी निकलीं। ये विष्णु के हिस्से में आईं। ऐरावत हाथी को इंद्र ने लिया। उच्चैश्रेवा नाम का अश्व और पारिजात नाम का वृक्ष स्वर्ग गया। इस वृक्ष के नीचे की गई कोई भी कामना पूर्ण होती है। इस कड़ी मंे 14 वें क्रम में अमृत कुंभ निकला। वह दीपावली की त्रयोदशी यानी धनतेरस का दिन था। जैसे ही अमृत कलश आया, देवताओं ओर राक्षसों में छीना-झपटी शुरू हो गई। संघर्ष में पृथ्वी पर चार स्थानों पर अमृत छलका-हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक। ये चारों ही हर 12 साल में होने वाले महाकुंभ मेले के निर्धारित स्थान इसीलिए बने।

विष्णु ने देखा कि सारा अमृत संकट में है। नष्ट हो जाएगा। वे मोहिनी रूप में सामने आए। राक्षस और देवताओं ने ऐसी संुदरी कभी किसी लोक में नहीं देखी थी। सब तत्काल प्रभाव से अमृत भूलकर मोहित हो गए। मोहिनी ने बारी-बारी से दो दल बनाए। एक पार्टी राक्षसों की और दूसरी देवताओं की। राक्षसों के दल को मदिरा पिलाई। मदिरा भी 14 रत्नों में से एक थी, जो मंथन से निकली थी। अमृत के धोखे में राक्षस मदिरापान करते रहे। दूसरी तरफ देवताओं को मोहिनी रूपी विष्णु ने अमृत बांटा।

राहू यह देखकर चकराए कि उनके दल के राक्षस क्यों झूम रहे हैं। जबकि देवता अत्यंत आनंदित हैं। राहू राजा बलि के प्रधान सेनापति थे। वे देवता के रूप में आ गए और देवताओं की पंक्ति में विराजमान हो गए। मोहिनी ने उन्हें भी अमृत प्रदान किया। ब्रह्मा ने उन्हें पहचाना। फौरन विष्णु को रोका। लेकिन तब तक अमृत पी चुके थे। क्रोधित मुद्रा में विष्णु ने सुदर्शन चक्र से राहू का सिर काट डाला। अमृत पीने से उनकी मृत्यु नहीं हुई। दोनों अंग जीवित रहे। धड़ भी और सिर भी। तब शिव का आगमन होता है। वे कहते हैं-इसकी मृत्यु संभव नहीं है। इसके और टुकड़े करने से कोई लाभ नहीं। राहू ने कहा-अब मैं भी अमर हूं। मुझे देवताओं के तुल्य स्थान दीजिए। मैं किसी से मरने वाला नहीं।

यह प्रसंग सतयुग का है, जो युग क्रम में पहला है। तब सात ग्रह थे। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरू, शुक्र और शनि। राहू के दो हिस्सों को राहू और केतु के रूप में ग्रहों के क्रम में स्थान दिया गया। तब से नौ ग्रह हुए। देवताओं की संगत में आकर राहू के विचार बदले। उन्होंने महादेव से कहा-मैं मूलत: राक्षस हूं। मेरी प्रवृत्ति वही है। ग्रह रूप में मेरा प्रभाव मनुष्य के लिए बहुत घातक सिद्ध होगा। उसके जीवन में संकट का निमित्त मैं बनूंगा। इसका भी कुछ उपाय कीजिए। तब शिव ने कहा-जहां हम तीनों विराजमान होंगे, अगर आपकी शांति यहां होगी तो नकारात्मक प्रभाव क्षीण होगा। त्रयम्बकेश्वर के ज्योतिर्लिंग में तीनों ब्रह्मा, विष्णु और महेश विराजमान हैं।

एक और रोचक कथा इस पवित्र स्थान का महत्व कई गुना बढ़ा देती है। यह गौतम ऋषि से जुड़ी कथा है। यह गौतम ऋषि का तप क्षेत्र रहा है। उनकी पत्नी का नाम अहिल्या था। एक सरोवर में वे जल लेने जाया करती थीं। अहिल्या को यह अभिमान था कि वे महर्षि गौतम की पत्नी हैं। सरोवर में वे पहले जल लेती थीं। दूसरी ऋषि पत्नियों ने इस भेदभाव की शिकायत अपने आश्रमों में की। सब ऋषियों ने योगमाया से एक गाय उत्पन्न की और गौतम के आश्रम में छोड़ दिया। गौतम के स्पर्श से गाय मर गई। गौ हत्या का दोष महर्षि पर लगा। उस युग में यह सबसे बड़ा पाप था। संगठित ऋषियों ने सहयाद्रि क्षेत्र में उन्हें रहने के योग्य नहीं पाया। गौतम ने विनम्रता से कहा-आप ही इसका निवारण बताएं। ऋषियों ने कठिन और असंभव सी शर्त रखी-तीनों देव यहां आएं और गंगा की उत्पत्ति हो तभी आप इस पाप से मुक्त हो सकते हैं। 

गौतम ने घोर तप किया। प्रसन्न होकर पहले भोलेनाथ ही आए। गौतम की आंखें भर आईं। बोले-प्रभु आप अकेले नहीं। मेरे अस्तित्व का सवाल है। आप तीनों ही साथ चाहिए। गौतम की तपस्या से प्रसन्न महादेव ने ब्रह्मा और विष्णु को भी आमंत्रित किया। अभी एक और शर्त बाकी थी। गौतम ने वह भी कह दी-प्रभु, मेरी पाप मुक्ति के लिए गंगा भी प्रकट कीजिए। शिव ने अपनी जटाओं से बहती गंगा की एक धारा त्रयंबकेश्वर की पर्वत श्रृंखला को प्रदान की। यही गोदावरी का उद्गम है। यहां इसे गौतमी गंगा भी कहते हैं। महर्षि गौतम की तपस्या के सम्मान में ब्रह्म पुराण में एक श्लोक है, जिसका अर्थ है-सारे तीर्थों का फल, सारे तीर्थों का पुण्य, समस्त यज्ञों का फल, सभी वेदों का ज्ञान गौतम के तट पर है। त्रेतायुग में राम अपने वनवास काल में करीब 11 महीना पंचवटी में रहे, जो नासिक में है। यहीं से सीता का हरण हुआ और यहीं से उन्होंने दक्षिण प्रस्थान किया, जहां सुग्रीव से उनकी मित्रता होती है और हनुमान के रूप में एक समर्पित निष्ठावान शक्तिशाली और बुद्धिमान भक्त मिलते हैं।

ये युगों पुरानी गाथाएं हैं। भारत की सनातन परंपरा में इस धरती का हर कोना ऐसी गाथाओं को अपनी अनंत स्मृतियों मंे समेटे हुए है। अनगिनत ऋषियों और उनकी पीढ़ियों ने जन्म, जीवन और मृत्यु, सुख और दुख, कारण और परिणाम के चिंतन, मनन और शोध में सिंधु से लेकर गोदावरी तक महान नदियों के तटों पर अपना जीवन लगाया है। उनके अनुभव और ज्ञान को उनके योग्य शिष्यों ने अपनी स्मृतियों में अगली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखा। समय के प्रवाह में भारत का रंग-रूप और आकार-प्रकार बदलता गया। बहुत कुछ मिट गया। बहुत कुछ बच भी गया। जो कुछ बचा है, उसमें हमारी परंपराएं हैं। हमारी मान्यताएं हैं। हमारी आस्थाएं हैं। हम इन्हें मानें या न मानें, लज्जित हों या गर्व महसूस करें, यह हम पर निर्भर है। मगर हमें समझने की कोशिश जरूर करनी चाहिए। हर रहस्य आपको एक नई कहानी में ले जाएगा। और हर कहानी का एक सार तो होता ही है।
#vijaymanohartiwari







Wednesday 9 May 2018

जिन्ना अब भी जिंदा है

#VIJAYMANOHARTIWARI
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर सिर्फ दीवार पर टंगी एक बेजान तस्वीर का मामला नहीं है। जिन्ना भारत के दस हजार साल के ज्ञात इतिहास के भीषण मोड़ पर पैदा हुए। वे इस मुल्क के टुकड़े करने के गुनाह से कयामत तक बरी नहीं हो सकते। जिन्ना की तस्वीर पर भले ही देर से ध्यान गया हो, यह विवाद का नहीं, भूल सुधार का विषय था। जिन्ना अब एक व्यक्ति नहीं, सोच है। बटवारे की सोच। विध्वंस की सोच। सियासत की आड़ में आतंक की सोच। देश को बटवारे का दंश झेलने के बाद भी इस वैचारिक विष से छुटकारा नहीं मिला है। यह भारत विरोधी सोच जिन्ना की शक्ल में अब भी जिंदा है।
1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1947 में मुल्क के बटवारे के साथ आजादी मिलने तक के 90 साल का अंतराल आश्चर्यजनक रूप से भारत की तकदीर बदलने वाला कालखंड है। घटनाओं से भरे इन नाै दशकों में अनगिनत रतन भारत की कोख से पैदा हुए। आजादी हासिल करने की बेचैनी से भरा यह सिर्फ एक लंबा संघर्ष ही नहीं था। यह एक ऐसा महायज्ञ था, जिसमें देश के काेने-कोने में लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियां दीं। मुझे लगता है कि आजादी के ये सेनानी पुरातत्व के कोई जानकार थे। वे जानते थे कि एक हजार साल की गुलामी राख और धूल की बेहिसाब परतों के नीचे कुछ है। कुछ जिंदा है। कुछ बचा हुआ है। वे 90 साल तक लगातार खुदाई करते रहे। खोदते रहे। मरते रहे। खोदते रहे। मरते रहे। 15 अगस्त 1947 की सुबह यह उत्खनन पूरा हुआ और वे भारत माता की भूली बिसरी सी एक महान प्रतिमा निकाल पाने में सफल हुए, जो बदहवास, धूल धूसरित, पीड़ित, अपमानित किंतु जीवित थी।
भारत में लादी हुई गुलामी बहुत भारी पड़ी थी। दमन और जोर-जबर्दस्ती के दिल दहला देने वाले दौर भारत ने देखे और भुगते थे। देश के कोने-कोने में भयावह कहानियां मौजूद थीं। धर्म, कला, साहित्य, संस्कृति और स्थापत्य के हमारे प्राचीन मान बिंदुओं को जगह-जगह तहस-नहस किया गया था। ताकत के जोर पर हमारी पहचानें बदलकर रख दी थीं। समय की धूल सिर्फ तोड़फोड़कर छोड़ दिए गए भव्य स्मारकों के खंडित पत्थरों पर ही नहीं पड़ी थी, वह हमारी याददाश्त पर भी जम चुकी थी। देश के आजादी की दहलीज पर आते-आते मोहम्मद अली जिन्ना ने भटकी हुई याददाश्त को और गुमराह करने का गुनाह किया। मजहब के नाम पर एक अलग मुल्क का ख्याल उन बेरहम सुलतानों, बादशाहों, निजाम और नवाबों के क्रूर सिलसिले में भारत की आत्मा पर सबसे बड़ा घाव था, जो अब तक रिस रहा है।

वीरेंद्र कुमार बरनवाल की किताब जिन्ना एक पुनर्दृष्टि में जिन्ना के हिंदू पुरखों की बढ़िया पड़ताल है। सिर्फ दो पीढ़ी पहले जिन्ना के पूर्वज पुंजाभाई वालजी ठक्कर थे। काठियावाड़ का यह परिवार श्रीनाथजी का भक्त था। राजकोट में पंुजाभाई ने इस्मायली धर्मगुरू आगा खां के अनुयायी बनकर इस्लाम कुबूल किया तो घर में हंगामा मच गया था। जिन्ना की मां मिट्‌ठूबाई और बुआ का नाम मानबाई यही जाहिर करते हैं कि वे अरब या अफगानिस्तान से नहीं आए थे अौर न ही यहां कोई दस-बीस पीढ़ी पहले अपनी बल्दियत बदली थी। अपने मूल मजहब की यादें दिमाग में बहुत ताजा होंगी। पूरी तरह पश्चिम के रंग में रंगे जिन्ना एक काबिल और कामयाब बेरिस्टर थे। निजी तौर पर उनका अपने मजहब से कोई लेना-देना नहीं था। इस्लाम में वर्जित लगभग हर चीज के वे बेइंतहा शौकीन थे।
पाकिस्तान का भूत दिमाग में उतरते ही उनका रंग बदला। वे टाई-सूट से सीधे शेरवानी और मखमली टोपी के स्तर पर उतर आए। हालांकि इस नए कलेवर में उनके कई किस्से भी मशहूर हैं। जैसे- एक बार वे किसी मस्जिद में ले जाए गए। वहां सीधे जूते पहने दाखिल होने लगे तो शेरवानी-टोपी की तजुर्बेकार लीगी जमात वाले किसी साहब ने उन्हें टोका था-जिन्ना साहब यहां जूते पहनकर नहीं जाते। मुस्लिम लीग रईस सामंतों की एक सियासी जमात थी और जिन्ना के लिए यह एक हिट फिल्म के सेट जैसी थी, जिसमें वे साइन कर लिए गए थे। अब वे एक ऐसे हिंदुस्तानी नहीं रहे थे, जो आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से भिड़ रहा है। वे पाकिस्तान की स्क्रिप्ट लेकर लीग के सेट पर आए। यहां उन्हें उन 93 फीसदी मुसलमानों के मजहबी रहनुमा का रोल अदा करना था, जो मुसलमानों की उस श्रेणी में थे, जिनके पुरखे कहीं बाहर से हिंदुस्तान नहीं आए थे बल्कि वे यहीं के थे और धर्मांतरित हुए थे।
इस्लामिक यूनिवर्सिटी बहावलपुर के विद्वान डॉ. मुहम्मद सलीम अहमद ने आम मुसलमानों की इस श्रेणी को अरबी टाइटल दिया था-अज्लाफ। इसका मतलब है-नीच और कमीना। पहली श्रेणी के मुसलमानों को उन्होंने अशराफ कहा। मतलब कुलीन, खानदानी यानी हमलावर विजेताओं के वंशज। उस समय इनकी तादाद सिर्फ 40 लाख आंकी गई थी। जिन्ना चाहते तो इस मजहबी सेट से बहुत बेहतर रोल प्ले कर सकते थे। अगर उन्हें वाकई हिंदुस्तान की न सही, हिंदुस्तान के मुसलमानों की ही बेहतरी की फिक्र होती तो भी ऐसा नहीं करते, जो उन्होंने किया। मगर उनके लिए अपनी जिद और साख किसी भी कौम और मुल्क से बड़ी थी। कांग्रेस की सियासत में अगर वे खुद को दरकिनार मानते थे तो यह इतनी बड़ी बात तो नहीं ही हो सकती थी कि मुल्क के बटवारे के भयानक नतीजे तक जाती।

तुर्की में कमाल मुस्तफा पाशा उनके ही समय मंे हुकूमत में आए थे। तुर्की एक मुस्लिम देश है और इस्लाम के चरण कमल भारत से पहले वहां की जमीन पर ही पड़े। एक हजार साल बाद तुर्की अपनी मूल पहचान खो चुका था। पाशा ने तुर्की भाषा, सभ्यता और संस्कृति की फिक्र की। वे तुर्की के पहले सर्वमान्य नेता थे, जिन्होंने खलीफा के पद को खत्म कर अपने देश को मूल पहचान की तरफ लौटाया। 1923 में तुर्की की सत्ता संभालने के बाद एक के बाद एक कई सुधार किए। इस्लामी मुल्कों की बदहाली और बरबादी से फिक्रमंद हर दानिशमंद को इस पर गौर करने की जरूरत है। पाशा ने इस्लामिक की जगह तुर्की को सेकुलर स्टेट बनाया। इसके लिए कॉमन सिविल कोड लागू किया। इस्लामिक कैलेंडर, मजहबी तालीम, मदरसों और परदा प्रथा पर बंदिश लगाई।
सबसे बड़ा काम तुर्की भाषा के शुद्धिकरण का किया। सिर्फ सात महीने में तुर्की भाषा से अरबी और फारसी के शब्द छांट-छांटकर हटाए गए। अरबी लिपि के इस्तेमाल पर रोक लगाई। यहां तक कि कुरान को भी तुर्की में ट्रांसलेट कराया और 1932 में पहली बार मस्जिदों में तुर्की में नमाज शुरू हुई। अल्लाह शब्द का भी तुर्की अनुवाद किया-तानरी। शरिया अदालतें हमेशा के लिए बंद कर दी गईं। निकाह की जगह सिविल मैरिज को मान्यता दी। साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार की जगह रविवार तय किया। नई मस्जिदों के निर्माण पर रोक लगाई और मौजूदा 70 हजार मस्जिदें सरकारी निगरानी में लेकर आए। मजहबी मामले शिक्षा विभाग का विषय बनाए गए। कट्‌टरपंथी मुस्लिमों अौर मुल्ला-मौलवियों ने उनका विरोध किया मगर जनता के जबर्दस्त समर्थन से ही वे यह कमाल कर पाए। 1938 में आखिरी सांस लेने के पहले सिर्फ 15 साल में तुर्की एक आधुनिक देश के रूप में दुनिया के सामने आया। जनता ने कमाल को प्यार से अपना अतातुर्क कहा, तुर्की में इसका अर्थ है-राष्ट्रपिता। ध्यान रहे, इन क्रांतिकारी प्रयोगों में पाशा ने इस्लाम को नहीं छोेड़ा। उन्होंने कहा-इस्लाम हमारा मजहब रहेगा मगर हम यह न भूलें कि हम तुर्की भाषी और तुर्की संस्कृति के लोग हैं।
जब पाशा तुर्की में एक राष्ट्र का कायाकल्प इस ढंग से कर रहे थे तब भारत के मुसलमानों की बेहतरी के लिए हमारे अतातुर्क महात्मा गांधी के दिमाग में खिलाफत आंदाेलन का ख्याल आया और पूरे भारत में मुस्लिमों को खुश करने के लिए तुर्की में खत्म हुए खलीफा के पद की वकालत यहां करने बैठ गए। जिन्ना ने ठीक इसी दौर में अपनी साम्प्रदायिक सियासत को चमकाने के लिए नारा दिया-इस्लाम खतरे में है। बेपढ़े-लिखे मजहबी मुसलमानों में यह जंगल में आग की तरह फैल गया।
कोई ताज्जुब नहीं कि आजादी के बाद ज्यादा समय तक हुकूमत में रहीं कांग्रेस और सभी सेकुलर सरकारों ने वोट बैंक पुख्ता करने के लिए ऐसे ही सस्ते अौर घटिया उपाय अपनाए। इनसे किसी का भला नहीं हुआ। गजब देखिए कि जिन्ना जैसे पढ़े-लिखे और दुनिया देख चुके मुसलमान को भी अपनी कौम और अपने मुल्क की भलाई के लिए क्या सूझा? वे चूड़ीदार पाजामी, शेरवानी और मखमली टोपी लगाकर पाकिस्तान का खतरनाक आइडिया लेकर आए। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन का हुक्म उनके माथे पर लगा एक और कलंक है, जब अनगिनत हिंदुओं का कत्लेआम किया गया। यह सियासत नहीं थी। यह गुंडागर्दी थी। यह आतंक था। और यह कराने वाला एक काबिल बेरिस्टर अपनी कौम का रहनुमा बन बैठा था।
 हिंदी के प्रति जिन्ना की नफरत हैरत में डालने वाली थी। 1937 में कांग्रेस सरकारें आठ प्रांतों में बनी थीं। उन्होंने स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य की थी। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने वायसराय को मुस्लिमों के प्रति ज्यादती की एक फेहरिस्त सौंपी। इसमें मुसलमानों को हिंदी पढ़ाने का मुद्दा भी शामिल था। जिन्ना की संकरी दृष्टि में हिंदी को हिंदुओं और ऊर्दू को मुसलमानों की भाषा नजर आती थी। जबकि वे खुद ऊर्दू नहीं जानते थे। इस तरह जिन्ना एक धर्मद्रोही, राष्ट्रद्रोही और भाषाद्रोही का घृणित घालमेल थे, जिन्होंने स्वतंत्र भारत की चेतना में सांप्रदायिकता का जहर घोला। बदकिस्मती से बचा-खुचा भारत भी उस अभिशाप से खुद को मुक्त नहीं कर पाया।
सिर्फ भारत के टुकड़े करने का ही गुनाह उनके माथे पर नहीं है, अपनी ही कौम को गलत रास्ते पर गाफिल करने के और बड़े गुनहगार वे हैं। जेएनयू में भारत के टुकड़े करने के नारे जिन्ना के ही विष बीज हैं। हालांकि टीबी से मरने के पहले उन्हें अपनी जिंदगी की सबसे भयानक भूल का अहसास भी हो गया था। अपने डॉक्टर से उन्होंने कहा था-पाकिस्तान मेरी सबसे बड़ी भूल थी। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अलग मुल्क बनने के बाद पाकिस्तान में बचे करीब 20 फीसदी हिंदुओं का 70 साल में सर्वनाश ही हो गया। वे बांग्लादेश में भी विलुप्त होेने की कगार पर हैं और बचे-खुचे भारत के अलीगढ़ नाम के शहर में एक यूनिवर्सिटी जिन्ना की तस्वीर को छाती से लगाए बैठी है। यह शहर मुस्लिम लीग की गतिविधियों का सबसे सक्रिय केंद्र था। 1914 में लीग का मुख्यालय अलीगढ़ से लखनऊ रुखसत हो गया था।





कालसर्प योग

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