Saturday 29 November 2014

तेलंगाना की त्रासदी



तेलंगाना को बने हुए छह महीने हो गए। केसीआर के नाम से मशहूर के. चंद्रशेखर राव अलग राज्य बनवाने में तो कामयाब हो गए मगर अब असल राजनीित के चक्रव्यूह में फंसे हैं। यूपीए-2 के गर्भ से िनकला तेलंगाना जैसे यतीम हो गया है। बीजेपी के साथ चंद्रबाबू नायडू का गठजोड़ उन्हें हर िदन नाकाम करने में लगा है। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश के बीच इन िदनों टॉम एंड जैरी जैसा खेल चल रहा है। हैदराबाद में केसीआर से लंबी मुलाकात का मौका मिला। कह रहे थे कि नरेंद्र मोदी जैसे सशक्त नेतृत्व के बावजूद तेलंगाना को बेसहारा छोड़ दिया गया है।

तेलंगाना के नाम पर अभी इस राज्य को एक विधानसभा भर मिली है। न प्रशासनिक व्यवस्था और न ही अदालतों का कोई पता है। एक ही राजधानी से दो राज्य चल रहे हैं। अफसरों को पता ही नहीं है िक वे कल किस राज्य में काम करने वाले हैं? इस गफलत में हर दिन एक नया बखेड़ा खड़ा हो रहा है। सौ से ज्यादा सरकारी संस्थानों के बीच बटवारा नहीं हुआ है। लेबर वेलफेयर बोर्ड इन्हीें में से एक है। इसके आठ सौ करोड़ रुपए के फंड में से एक दिन आंध्रप्रदेश सरकार ने 600 करोड़ रुपए विजयवाड़ा में खुले एक नए एकाउंट में डाल लिए। वह भी तेलंगाना सरकार को कुछ बताए बिना। नतीजा एक सरकार दूसरी के खिलाफ थाने में चली गई।
 कोयले की खदानें तेलंगाना में हैं। सारे बिजलीघर आंध्र प्रदेश में। केसीआर का आरोप है कि आंध्र उसके हिस्से की बिजली ही नहीं दे रहा। उधर चंद्रबाबू नायडू यह कहकर केसीआर की खिल्ली उड़ा रहे हैं िक उनके आरोप बेबुनियाद हैं। दरअसल सारी समस्या कुप्रबंधन की है। अपनी कमियों के छुपाने के लिए दूसरों पर दोष मढ़ना अासान है। मगर केसीआर की समस्याएं वाजिब हैं। बिजली तो उन्हें नहीं ही मिल रही। उन्हें कुछ बताए बगैर फैसले हो रहे हैं। जैसे हैदराबाद के घरेलू विमानतल का नाम बदलकर एनटीआर के नाम कर दिया गया। उन्हें मीडिया से यह समाचार प्राप्त हुआ। आंध्रप्रदेश से चार मंत्री केंद्र में हैं जबकि तेलंगाना से सिर्फ एक। वो भी भाजपा का। नाममात्र का।

 ऐसे में केंद्र में केसीआर पूरी तरह बेदम हैं। उनकी राजनीति के रंगढंग भी अजब रहे हैं। 2001 तक वे तेलुगुदेशम पार्टी में ही चंद्रबाबू नायडू के करीबी थे। फिर तेलंगाना राष्ट्रवादी समिति-टीआरएस-के नाम से अपनी पार्टी बना ली। 2004 में यूपीए से हाथ मिलाया। खुद केंद्र में मंत्री बने और तब आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वायएसआर राजशेखर रेडडी की सरकार में अपने पांच मंत्री बनाए। जब वायएसआर हेलीकॉप्टर हादसे में मारे गए तो उन्होंने एक करवट और बदली। वे कांग्रेस से अलग होकर पूरी तरह तेलंगाना के पृथक राज्य के आंदोलन को हवा देने लगे।
 2013 तक आते-आते तेलंगाना का भ्रूण यूपीए-2 के गर्भ में विकसित होने लगा। चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस को भी अपने लिए यही उचित लगा। केसीआर तब तक नया राज्य बनने पर कांग्रेस में टीआरएस के विलय की बातें दस जनपथ के खुशनुमा प्रांगण में करते रहे। राज्य बन गया। यूपीए सत्ता से बाहर हो गया। पहले वे कहते थे कि तेलंगाना का मुख्यमंत्री कोई दलित बनेगा। मगर उन्होंने शान से खुद शपथ ली। अपने बेटे और भांजे को मंत्री बनाया। बेटी को सांसद बनाकर दिल्ली भेजा। मंत्रियों को बुलेटप्रूफ गाड़ियों की सौगात के साथ विधायकों के वेतन दुगने किए।  साठ साल के प्रथक राज्य के आंदोलन की इस परिणति के बारे में किसी ने कल्पना नहीं की थी।    
मजा चखाने की बारी अब चंद्रबाबू नायडू की बारी थी, जिनके बीजेपी से मध्ुर रिश्ते थे। अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया। आंदोलन के दिनों में केसीआर सोचते होंगे कि अपना राज्य बना तो फैसले लेने में अासानी होगी। तेलंगाना की दबी-कुचली जनता के  लिए बड़े सपनों को पूरा करने का मौका मिलेगा। शायद वे भूल गए थे कि भारत की राजनीति में सब कुछ इतना आसान भी नहीं है। अब ये दोनों राज्य कुत्ते-बिल्ली जैसे लड़ रहे हैं। छह महीने गुजर गए हैं। केसीआर के लिए हर दिन कीमती है। वर्ना वक्त ऐसे ही बरबाद हो जाएगा और उनके सपनों का अंबार कभी जमीन पर साकार नहीं हो पाएगा। चंद्रबाबू नायडू के जीवन का यही लक्ष्य है कि केसीआर का कबाड़ा कर दें। तेलंगाना की जनता भारत की राजनीित के सदाबहार चक्रव्यूह में फंसी है।







Thursday 20 November 2014

दो अकेले इंसान


यह राहुल गांधी के नाम देश के एक नागरिक का पत्र है। इसका शीर्षक देना उचित समझा-दो अकेले इंसान। बहरहाल पत्र शुरू करता हूं-
आदरणीय राहुलजी, हर कोई युवा अपना कॅरिअर बहुत समझदारी से चुनता है। वह ऐसा क्षेत्र चुनता है, जिसमें वह सबसे प्रभावशाली प्रदर्शन कर सके या सबसे ज्यादा कमाई कर सके या दोनों। वह कोई जोखिम नहीं लेता। हम मानते हैं कि आपने अपने लिए कॅरिअर का चुनाव सौ टंच जांच-परखने के बाद ही किया होगा।

यह किसने कहा है कि एक बड़े ताकतवर राजनीतिक घराने के उत्तराधिकारी होने से आप सत्ता में रहकर ही जनता से जुड़े माने जाएंगे।  आप एक कारोबारी होकर भी जनता से जुड़े मुददों में अपने सुर मिलाए रख सकते थे। हम आपको अपनी कंपनी या कारखाना चलाते हुए भी अपना रोल मॉडल बनाते। आप एक पायलट होते तो शायद देश के ज्यादा लाड़ले होते। आप कुछ गा रहे होते, फोटोग्राफी कर रहे होते या पेंटिंग बना रहे होते, कुछ लिख ही रहे होते तो देश के दिल में जगह पाते। आपकी अपनी काबिलियत के लिए आपका डंका बजता। वह आपकी अपनी हैसियत होती।
मगर आपको यह मंजूर नहीं था। आपने राजमार्ग चुन लिया। शायद आसान समझकर। आपके बुद्धिशाली सलाहकारों ने आपको क्यों यह नहीं बताया गया कि यहां दूसरों के निशान पर चलकर कोई टिकता भी नहीं है। महान बनना तो भूल ही जाइए। आपको लगा कि पूर्वजों के बड़े कदों की दूर तक फैली छाया में अत्यंत आरामदेह अंदाज में चलते हुए ही आप अपनी उम्र गुजार लेंगे। जयजयकार सुनते से ही फुरसत नहीं मिलेगी। विकास और नेतृत्व किस चिड़िया का नाम है? आप मात खा गए। कंबख्त कांग्रेसियों की यह मजाल कि वे यह कहने की जुर्रत करें कि आप जोकर हैं। आप सर्कस कंपनी के मुखिया हैं। जहां आप जाते हैं, वोट कटने की गारंटी योजना वहां लागू है। एक मां कैसे अपने बेटे की बेइज्जती बर्दाश्त कर सकती है? विपक्ष कुछ कहे, समझ में आता है। मगर अपने ही दो टके के कांग्रेसी। कल तक दरवाजे पर दुम हिलाते थे। अब हमारी बिल्ली हमें ही म्याऊं।
जो पत्रकार आपसे मिले हैं या आपको नजदीक से जानते हैं, उनमें से कुछ से मेरी बात हुई है। आपके बारे में दो बातें बिल्कुल दावे से कही गई हैं। एक, राहुलजी बेईमान नहीं हैं। हो ही नहीं सकते। दूसरा, उनमें ऊर्जा है। कुछ नया करना चाहते हैं, जिससे भारतीयों की जिंदगी आसान हो। किसी ने आपको कम करके नहीं आंका। आपकी मासूमियत अचरज में डालने वाली थी। बिल्कुल बच्चों जैसी ऊर्जा और भोलापन। भारत की दुर्गम राजनीति में सिर्फ इससे ही अच्छे अंक नहीं मिल सकते। तारीफ से ही काम चलाना होगा।
अब आप सोचिए। आपके पिता अनिच्छा से राजनीति में आए। मजबूरी में। उनके प्रधानमंत्री बनने तक वे सितारा हैसियत के इंसान थे। नेहरू के बाद जनता के दिलों में प्यार से जगह बनाने वाला उन जैसा ही सुंदर इंसान हो सकता था। आपमें बिल्कुल वही संभावना थी। राजनीति में वे मजबूरी से आए तो भी प्रधानमंत्री तो बने ही। भारत में राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले हरेक की जिंदगी का सबसे महान सपना। (यह और बात है कि उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल थी वह। यही मजबूरी उनकी दुखद मृत्यु का कारण बनी। आज आपके साथ उन्हें भी देखते तो आनंद ही कुछ और आता। नेहरू के वंशज दिलों में राज करने का हक कायम रखते।)
आपकी क्या मजबूरी थी? साल-दर-साल आपके प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं कैलेंडर पर बदलते हर पन्ने के साथ खत्म और हल्की होती गईं। अब तस्वीर एक बिल्कुल डूबे हुए जहाज की है, जिस पर आपको देखकर लोग क्या-कुछ कह रहे हैं। शर्म आती है। आप इस अपमान के अधिकारी नहीं थे। किनकी वजह से आप इस अवस्था को प्राप्त हुए? कभी सोचिए।
तब शायद कुछ चेहरे आपको याद आएंगे। उन लोगों के, जो पिछले दस-पंद्रह साल आपके सबसे निकट थे। आपके सबसे भरोसेमंद, सबसे प्रतिभाशाली, दूरदर्शी सलाहकारों के चेहरे। जिनके साथ आपकी सुबह होती होगी, जो दोपहर में आपके साथ कंधे से कंधा मिलाकर होते होंगे और जो शाम ढलते ही होने ही चाहिए थे।
आप हमें न बताएं। हमें नहीं पूछना कि वे कौन हैं? उनकी हैसियत क्या है? वे प्राचीन से ज्यादा अजब-गजब इस प्यारे भारत को कितना जानते हैं? भारतीयों से उनका परिचय कितना गहरा है? बेशक वे काफी अनुभवी होंगे। धूप में बाल सफेद और लंबे करके न आए होंगे। और वे तब आपसे कह क्या रहे थे और खुद क्या कर रहे थे? जरा याद कीजिए। उनकी दस बड़ी सलाहों की सूची बनाइए। इन्हें नतीजों से मिलाकर देखिए कि वे किस बीमारी की क्या दवाई बता रहे थे? अब तो सारी रिपोर्टें सामने हैं। महाशय आपसे किस डॉक्टर ने कहा था कि इन अनुभवी ओझाओं के ताबीजों को गले में टांगना है?
मैं महसूस कर सकता हूं कि आपको अब वे ताबीज के काले धागे दम घोंटू साबित हो रहे होंगे। जब अपने जमाने के सामने किसी बिल के टुकड़े-टुकड़े किए थे उन दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कहीं विदेश में थे। एक अच्छे भले आदमी की प्रधानमंत्री के रूप में सबसे बड़ी दुर्गति तब हो रही थी, जब वो विदेश की धरती पर था। आज नरेंद्र मोदी को विदेशी धरती पर देख अपने ड्राइंगरूमें टीवी के सामने बैठे मनमोहन सिंह अपनी विदेश यात्राओं की याद ब्लैक एंड व्हाइट जमाने की किसी मूक फिल्म की तरह करते होंगे। आज किसकी मजाल है कि सरकार या संगठन का कोई भी माई का लाल मोदी के लिखे मामूली कागज के पुर्जे की भी धज्जियां उड़ा दे। राजनीति में विनम्रता की अपनी सीमा है। आखिरकार दमखम दमखम ही है। मगर यही चीज है जो विरासत में नहीं आती। दाव पर लगाने के लिए अपना भी कुछ चाहिए।
 आपके सलाहकारों ने आपके पास कुछ खास नहीं छोड़ा है। एक पल के लिए मान लीजिए अब आप कारोबारी बनते हैं, पायलट होते हैं, फोटोग्राफी करेंगे, गाने में दिलचस्पी लेंगे, वकालत या किसानी करेंगे तो वही इज्जत नहीं होगी, जो पहले होती। अब राजनीति में नाकामी का घाव अश्वत्थामा की तरह तब तक भटकाता रहेगा, जब तक कि पूरे बहुमत से कांग्रेस को लौटा नहीं लाते। 
इस लिहाज से अब आप दोराहे पर हैं। एक तो वही जाना-पहचाना राजमार्ग है, जहां चलते हुए आज आप यहां तक आ गए हैं। जो लक्षण भारत, अमेरिका और आस्ट्रेलिया तक दिखाई देते हैं, उनसे प्रभावित हुए बगैर भी किसी चमत्कार के बगैर लगता नहीं कि अगले पांच साल में आप मोदी की काट कर पाएंगे। आपके बिना भी कांग्रेस में कौन इतना सक्षम आैर प्रबल है, जो एक नपुंसक को वीर्यवान बल प्रदान कर दे।
 साधारण नशा ही जिंदगी बरबाद नहीं करता, राजनीति का नशा और बुरी हालत करता है। भले ही नशा खुद लगा हो या दूसरों ने लगाया हो। वैसे दूसरों की क्या मजाल कि वे मुझे बरबाद कर दें। अपने लिए मैं ही जिम्मेदार हूं। सिर्फ मैं।
अंत में, राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी के बारे एक रोचक तथ्य। अलग-अलग कारणों से दोनों में एक बड़ी और शायद एक ही समानता है। 
 दोनों अकेले हैं!

Monday 17 November 2014

 कफन से भी कमाई छत्तीसगढ़ के नसबंदी शिविर में मारी गईं महिलाओं पर मीडिया क्या फॉलो-अप कर रहा है? आज एक खबर है-पांच घंटे में कर दी 132 महिलाओं की नसबंदी! डॉ. गीता चौरसिया को इस खबर में बिना उनसे बात किए किसी अपराधी की तरह चित्रित किया गया है। जबकि शिविरों में कम समय में ज्यादा ऑपरेशन न तो लापरवाही है, न अपराध। प्रसिद्ध सर्जन डॉ. ललितमोहन पंत दुनिया में इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। अपने तीस साल की धुआंधार चिकित्सा सेवाओं में उन्होंने तीन लाख 30 हजार ऑपरेशन किए हैं। एक दिन में 816 सुरक्षित ऑपरेशन का विश्व कीर्तिमान उनके नाम दर्ज है। एक ऑपरेशन में सिर्फ 20 सेकंड!
 दस साल पहले जब मैं नईदुनिया में रिपोर्टिंग करता था, तब लंदन के एक सर्जन डॉ. एडवर्ड सैक्सटेड पंत साहब का नाम सुनकर यहां आए थे। उन्होंने गांवों के बदहाल शिविरों में ऑपरेशन करते हुए डॉ. पंत को खुद जाकर देखा था और हैरत में पड़ गए थे। वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि बुनियादी सुविधाओं से महरूम गांवों के अस्थाई टेंटों में कैसे एक डॉक्टर अकेला यह चमत्कार करता है। खुशकिस्मती से डॉ. पंत के दामन में लापरवाही का एक भी दाग नहीं लगा।
 टीवी पर लाइव प्रसारित यह कोई ऐसी दौड़ नहीं थी, जिसमें अव्वल आने के लिए वे पागलों की तरह सालों तक ऐसा करते रहे। उन्होंने ये ऑपरेशन दूरदराज गांवों के उन असुविधाजनक शिविरों में किए, जहां डॉक्टरी की डिग्री लेने वाले ज्यादातर भले मानुष झांकते तक नहीं हैं। जरा सोचिए कि इन शिविरों में सैकड़ों महिलाएं और उनके परिजन जाने कहां-कहां से आते होंगे। उनका घंटों तक इंतजार करते होंगे। मृत्यु तो दूर मामूली लापरवाही का एक भी केस इनमें नहीं है।
 सत्तर फीसदी गांवों की आबादी वाले भारत में सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य की बुनियादी संरचना एकदम ध्वस्त है। मध्यप्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं के बर्खास्त संचालक डॉ. योगीराज शर्मा के समय हमने देखा कि किस तरह सैकड़ों करोड़ रुपए नेताओं और अफसरों ने मिलकर खाए। कुछ समय पहले छापे से आहत एक और निलंबित संचालक की धर्मपत्नी ने गुस्से में खुलासा किया कि किस तरह स्वास्थ्य मंत्री महोदय का नियमित हिस्सा उनके पास पहुंचाया जाता रहा था। यही हकीकत है। जिलों के मुख्य स्वास्थ्य अधिकारी की नियुक्तियों से लेकर उन्हें जारी होने वाले फंड के हर चेक में सबकी बंदरबांट सब जानते हैं।
 जिन बदहाल शिविरों में डॉ. पंत या डॉ. चौरसिया जैसे गिने-चुने डॉक्टर अभागी महिलाओं के ऑपरेशन करने जाते हैं, वहां न साधन होते, न स्टाफ, न दवाएं। जबकि दबाव चौतरफा है। मध्यप्रदेश में स्वास्थ्य विभाग के एक हिम्मतवर कार्यकर्ता शिवाकांत वाजपेयी ने पांच साल पहले हर राज्य में व्याप्त मेडिकल माफिया के खिलाफ खुलकर मुहिम छेड़ी थी। मगर होता कुछ नहीं है। एक योगीराज की जगह दूसरा ले लेता है। एक मंत्री के बाद दूसरा अपना दाव खेलता है। खाने-कमाने के इस खेल में कोई यह नहीं देखता कि कहां कुछ परहेज भी कर लेना चाहिए। मगर वे कफन से भी कमाई कर सकते हैं।
 छत्तीसगढ़ में जहरीली दवाओं ने नसबंदी के लिए आईं बेकसूर महिलाओं की जानें ली। इसके लिए डॉ. चौरसिया जैसे लोग कैसे गुनहगार हो सकते हैं। पांच घंटे में 132 ऑपरेशन उनका शौक तो कतई नहीं होगा। अगर चार डॉक्टर होते तो पांच घंटे में वे आराम से तीस-तीस ऑपरेशन करते। साधन-सुविधाओं के बगैर एक डॉक्टर के हवाले एक शिविर में इतनी महिलाएं हैं तो इसके लिए रमनसिंह जिम्मेदार हैं, शिवराजसिंह जिम्मेदार हैं, अखिलेश यादव, उमर अब्दुल्ला जिम्मेदार हैं। उनके स्वास्थ्य मंत्री और अफसर अपराधी हैं। जहरीली दवाएं बनती, बटती रहीं तो यही लोग टांगे जाने चाहिए। दुनिया भर में देश की नाक कटाने वाले डॉक्टर नहीं हैं, यही चेहरे हैं।

Saturday 15 November 2014


                                                       किडनी पर कहर
केस-1
परीता बंडिया की उम्र है सिर्फ 15 साल। वह दसवीं की छात्रा है। घर में कमाने वाली उसकी मां है। एक भाई है, जो पढ़ता है। पिता कुछ नहीं करते। फरवरी के महीने में हाई ब्लड प्रेशर की वजह से परीता पर मुश्किलों का पहाड़ टूटा। उसकी दोनों किडनी फेल हो गईं। अब वह हफ्ते में दो बार डायलिसिस के सहारे है। अस्पताल तक लाने-ले जाने का जिम्मा भी उसकी मां पर है।
केस-2
26 साल की नीति जैन। पिता का छोटा सा कारोबार है। घर में तीन सदस्य हैं। उसे पीलिया हुआ था। जनवरी 2014 में पीलिया के इलाज के दौरान उसकी भी किडनी खराब हो गईं और डायलिसिस पर जाना पड़ा। तब से एक सप्ताह में नीति भी दो बार डायलिसिस पर है।
केस-3
प्रतीक अकोतिया 25 साल के हैं। पिता का साया सिर से उठ चुका है। प्रतीक का स्वास्थ्य बचपन से ठीक नहीं रहा। सात साल से किडनी काम नहीं कर रहीं। बिना डायलिसिस के जीवन संभव नहीं है। सप्ताह में दो बार डायलिसिस और कई दवाओं ने उन्हें 2007 के बाद जिंदा रखा है।
केस-4
घर पर सिलाई करके बमुश्किल दस हजार रुपए महीना कमाने वाली 30 वर्षीय गायत्री जोशी को बहुत तेज बुखार आया था। यह 2008 की बात है। बुखार तो ठीक हो गया मगर इलाज के बाद पता चला कि उनकी किडनी खराब हो चुकी हैं। आखिरकार 2011 से उन्हें भी डायलिसिस पर जाना पड़ा।
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ये मार्मिक कहानियां इंदौर की हैं। देश भर में इन कहानियों का कोई अंत नहीं है। 15 साल की उम्र से लेकर 75 साल के वृद्ध तक किडनी फेल होने की त्रासदी से गुजर रहे हैं। इनके लिए दो ही विकल्प हैं। एक, किडनी ट्रांसप्लांट या डायलिसिस। किडनी ट्रांसप्लांट की सुविधा पूरे देश में कुछ ही जगहों पर है। डायलिसिस भी एक बेहद महंगी और लगातार चलने वाली प्रक्रिया है। देश के अलग-अलग शहरों में एक डायलिसिस एक हजार से दो हजार रुपए में होता है। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि परीता, प्रतीक, नीति और गायात्री जैसे मरीजों के परिवारवालों के लिए यह नामुमकिन ही है।


 मध्यप्रदेश में पहली बार इंदौर में ऐसे मरीजों के लिए एक शुरुआत की गई। डॉ. गोकुलदास ने अपने स्वर्गीय पिता की स्मृति मेंं दो करोड़ रुपए की सहयोग राशि से गुलाबचंद परमार्थिक ट्रस्ट खासतौर से इन्हीं लोगों के लिए बनाया। ट्रस्ट ने इस पूंजी से एक किडनी सेंटर की शुरुआत 2 मार्च 2014 को की। गोकुलदास हॉस्पिटल में स्थापित हुए इस सेंटर में पहले ही दिन से डायलिसिस पर निर्भर मरीजों की कतार लग गई। ये वो लोग थे, जिन्हें एक बड़ी राहत इस सेंटर में मिली। इंदौर में औसत एक हजार रुपए में होने वाला डायलिसिस इस किडनी सेंटर में सिर्फ चार सौ रुपए में मुमकिन हुआ। 20 नई मशीनें लगाई गईं। कुशल तकनीशियनों ने अपनी सेवाएं यहां शुरू कीं।
 मैनेजिंग ट्रस्टी डॉ. गोकुलदास ने बताया कि हर दिन 50 डायलिसिस के संकल्प के साथ यह सेवा शुरू की गई थी। मार्च से अगस्त के बीच सेंटर में 6000 डायलिसिस हो चुके हैं। इनमें लगभग एक हजार डायलिसिस बिल्कुल निशुल्क किए गए। देश के किसी भी राज्य में किडनी के मरीजों के लिए ऐसी सुविधा नहीं है। आर्थिक रूप से बेहद मजबूर 7-9 मरीजों के डायलिसिस इस केंद्र पर हर रोज निशुल्क हो रहे हैं। यह खुशी की बात है कि जीवनदान के इस पवित्र कार्य में शहर के कुछ संस्थान और लोग अपने निजी स्तर पर मदद दे रहे हैं। यह सेंटर अस्थाई है और भविष्य में इसे लेकर कुछ बड़े सपने हैं।
 ट्रस्ट की योजना है कि हम एक साल के भीतर ट्रांसप्लांट की सुविधा भी जुटाएंगे। ट्रस्ट के प्रयास इस दिशा में भी हैं कि उसका अपना भवन बने, जो आधुनिक तकनीकी सुविधाओं से लैस हो। यह मध्यप्रदेश में अपने तरह का अकेला किडनी सेंटर होगा। यह समय की जरूरत है, क्योंकि छोटे शहरों में किडनी के मरीजों के लिए जरूरी न तो डायलिसिस की मशीनें हैं, न डॉक्टर हैं।
 डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर और दर्द निवारक दवाओं का ज्यादा इस्तेमाल जाने-अनजाने में किडनी पर असर कर रहा है। गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों में एक किडनी के मरीज का होना सबका जीना दूभर करने जैसी घटना है। आप ट्रस्ट के किडनी सेंटर में रजिस्टर्ड सैकड़ों मरीजों से मिलकर इस अथाह पीड़ा को समझ सकते हैं। देश के ज्यादातर किडनी के मरीज अपने इलाज के लिए कुछ गिने-चुने बड़े शहरों के व्यावसायिक अस्पतालों पर निर्भर हैं। उनके लिए यह इलाज एक असंभव विकल्प जैसा है। मगर इंदौर में ट्रस्ट ने देश भर के चिकित्सा जगत के लिए एक उदाहरण पेश किया है। ऐसे सेंटर हर शहर में बनें तो यह लाखों जरूरतमंद मरीजों और उनके परिवारों के लिए सबसे बड़ी राहत होगी।
 नेशनल किडनी फाउंडेशन की एक स्टडी बताती है कि भारत में 80 लाख लोग किडनी से जुड़ी गंभीर बीमारियां झेल रहे हैं। इनमें से सिर्फ 22.5 फीसदी यानी 18 लाख मरीज ही डायलिसिस करा पाते हैं। हर साल दो लाख लोग किडनी फेल होने से मृत्यु के शिकार हो जाते हैं। जबकि हम इन्हें सही समय पर डायलिसिस देकर बचा सकते हैं। हालांकि पूरे देश में 40 हजार डायलिसिस मशीनों की जरूरत है जबकि हैं सिर्फ डेढ़ हजार। किडनी के 20 हजार डॉक्टर देश को चाहिए जबकि सिर्फ एक हजार डॉक्टर ही हैं। आबादी के अनुपात में देश की जरूरतें काफी ज्यादा हैं और इंतजाम बेहद कम। मगर एक शुरुआत कहीं से भी हो सकती है। इंदौर में यह कदम उठा लिया है।







Monday 10 November 2014

                                                             चेन्नई में पोजाई
 चार दिन पहले फेसबुक पर एक तमिल फिल्म ‘पोजाई’ का पोस्टर देखा। दिलचस्पी इसलिए हुई कि मशहूर फिल्म एक्टर मुकेश तिवारी इसमें नजर आ रहे थे। मैं संयोग से त्रिवेंद्रम में था और चेन्नई के लिए रवाना हो ही रहा था। चेन्नई पहुंचा तो होटल में सबसे पहले इसी फिल्म के बारे में बात की। यह सुपर हिट मूवी है। मुकेशजी के कारण ही इसे देखने की इच्छा हुई मगर पता चला कि हाउस फुल है। आखिरकार एक टिकट मिल गया। तमिल के लोकप्रिय अभिनेता विशाल की यह एक मसाला मूवी है। श्रुति हासन उनकी हीरोइन हैं।


 सच कहूं तो मैं त्रिवेंद्रम में शाहरुख खान की तमाम कचरा फिल्मों में सबसे ताजी हैप्पी न्यू ईयर देखकर जख्मी हालत में लौटा था मगर चेन्नई में पोजाई देखकर बड़ी क्षतिपूर्ति हुई। सिनेमा के सशक्त माध्यम में भाषा कोई बड़ी समस्या नहीं होती। फिर इस फिल्म के दूसरे ही शॉट में मुकेश तिवारी अपने लाजवाब अंदाज में आए तो आसानी हुई। मुकेश इसमें तमिल के तमाम अदाकारों पर भारी हैं। साधारण शक्ल-सूरत वाले नायक विशाल पर भी। श्रुति कोयले की खदान में रखे सुर्ख गुलाब की तरह हैं।
 एक्शन से भरपूर इस पारिवारिक मसाला मूवी में सारे कलाकारों को खेलने का भरपूर मौका मिला। विशाल और श्रुति के प्रेम प्रसंग युवा दर्शकों को गहरी सांसें लेने को मजबूर करते। कॉमेडियन सूरी पर कई सीन हैं और वे हर बार हंसा-हंसाकर लोटपोट करते हैं। खासकर बच्चों को। मगर जैसे ही मुकेश तिवारी परदे पर आते दर्शकों को सांप सूंघ जाता। एक अच्छी-भली कहानी में उथल-पुथल मचाने वाले निर्दयी विलेन के रोल में मुकेश खूब फबे हैं। उन्होंने अपने लिए मिले हर सेकंड में जान डाली है। हर शॉट और हर डायलॉग में उनका किरदार सब पर बीस रहा। मेरे पड़ोस में बैठे कॉलेज के कुछ युवाओं से मैंने राय जाननी चाही। जानकर अच्छा लगा कि तमिल में मुकेश तिवारी को न सिर्फ सब भलीभांति जानते हैं बल्कि उनके लिए आम राय है-वेरी पावरफुल एक्टर। अपने क्लोज शॉट्स में वे साठ के दशक के प्राण की तरह परदे पर कहर ढाते हैं। आंखें पतली करके जब वे तमिल में बोलते हैं तो थिएटर का शोरगुल थम जाता है। उन्नत ललाट, मोटी मूंछे और पतली आंखों के जरिए उनका चेहरा खासा असर पैदा करता है।
 तमिल की कहानी में पटना कनेक्शन दिलचस्प है। दरअसल मुकेश महाशय का किरदार दक्षिण में अपना जलवा कायम करने के पहले पटना के कलेक्टर का सरेआम कत्ल करके रफूचक्कर होता है। कलेक्टर का संक्षिप्त रोल बिहार के संस्कृति मंत्री विनय बिहारी ने किया। ठीक उसी तरह जिस तरह प्रकाश झा की भोपाल में फिल्माई गई एक फिल्म में कुछेक सेकंड के लिए यहां के एक सीनियर आईएएस अफसर लटक लिए थे। तो मुकेश तिवारी का किरदार पटना से फरार होकर दक्षिण में और बड़े रूप में अन्नम तांडवम् की शक्ल में प्रकट होता है। अपने गुुर्गों से घिरा। अच्छे-भले लोगों के रास्ते में तकलीफें बोता।

 दक्षिण की फिल्मों में संगीत यानी कुछ ऐसा जो थिएटर की दीवारों को कंपा दे और छत को हिला दे। इस फिल्म में भी बिल्कुल यही था। तमिल में सिनेमा एक जबर्दस्त जलसे की तरह है। जब उत्तर भारत में दीपावली के दिन लोग त्योहार की रौनक में डूबे होते हैं तब तमिलनाडु में अनिवार्य रस्म की तरह हर परिवार फिल्म देखने जरूर जाता है। यहां नामी सितारे अपनी फिल्मों को दिवाली के दिन ही रिलीज करते हैं। पोजाई भी इसी महीने रिलीज हुई और खूब पसंद की गई। तमिल के अखबारों में तीन स्टार के साथ तारीफ मिली। यहां अदाकारों का जादू इस कदर सिर चढक़र बोलता है कि उनके फेंस क्लब अपने प्रिय कलाकारों के मंदिरों की प्राण प्रतिष्ठा कर डालते हैं। एमजीआर और उनके बाद जयललिता परदे की ताकत के बूते ही सियासत में अब तक हिट हैं।
 लोकसभा चुनाव के समय मैं दो सप्ताह तमिलनाडु में था। तब तमिल के जानेमाने कॉमेडियन वडिवेलु की फिल्म तेनालीरामन् राजसी अंदाज में रिलीज हुई थी। इसे मैं चाहकर भी देख नहीं पाया था। वडिवेलु ने पिछले विधानसभा चुनाव में डीएमके का साथ दिया था। मैंने मदुरई में अलागिरी के साथ उनकी सभाएं देखी थीं। जयललिता सत्ता में आईं तो वडिवेलु लंबे समय तक तमिलनाडु की सीमा में नजर नहीं आए थे। अम्मा के सामने सरेंडर के बाद ही अगली फिल्म तेनालीरामन् बना पाए थे।
 खैर, मध्यप्रदेश मूल के मुकेश तिवारी को उनकी अदाकारी की तारीफ करते चेन्नई के दर्शकों के बीच खुद को पाकर अच्छा लगा। सही समय पर फेसबुक पर दिखाई दिए पोस्टर के लिए दिल से शुक्रिया। उफ्, शाहरुख खान! भाई मियां हिंदी सिनेमा में इतने साल के अनुभव की कमाई किस कचरे में डाल रहे हो! भाषा की अड़चन के बावजूद पोजाई मेरे लिए हैप्पी न्यू ईयर की भीषण गंदगी से निकलकर एक शानदार शॉवर की तरह थी। शुक्रिया मुकेशजी।

Saturday 8 November 2014

                                                 हंगामा है क्यूं बरपा
केरल जैसे अनुशासित मदिरा प्रेमी शायद ही कहीं हों। शाम ढलते ही लंबी कतारों में खड़े। प्रेमपूर्वक एक दूसरे का हाल पूछते। शांति से अपनी बारी का इंतजार करते। विजेता भाव से खिडक़ी पर पहुंचते। पसंदीदा ब्रांड की बोतल कागज में लपेटते। मुस्कराते हुए बाहर आते। मगर अब इस मुस्कराहट की उल्टी गिनती शुरू हो चुकी है। मदिरालयों के इस मनोरम दृश्य पर दस साल में परदा गिर जाएगा। छह महीने में चौथी बार आने का मौका मिला।

 दूर दक्षिण के इस राज्य में शराब सिर्फ सरकारी दुकानों पर बिकती है। आमदनी-सालाना नौ हजार करोड़ रुपए। इसकी परवाह न करते हुए मुख्यमंत्री ओमन चांडी ने कुछ अहम फैसले लिए हैं। जैसे-हर साल 10 फीसदी दुकानों को बंद किया जाएगा। इस गांधी जयंती पर 338 में से 33 दुकानों पर ताले डल गए। यानी अगले दस साल में पूर्णत: मदिरा मुक्ति। तब तक रविवार को सभी दुकानें बंद रहेंगी यानी साल में 52 सूखे दिन!
 चांडी ने ये फैसले तो अभी लिए मगर प्राइवेट होटलों के बार को बंद करने के कदम ने देश में सबसे ज्यादा मदिरा की खपत वाले इस छोटे से खूबसूरत राज्य की राजनीति में भूचाल ला दिया है। शुरुआत हुई मार्च में, जब घटिया सेवाओं के चलते 418 बार बंद किए गए। दो हफ्ते पहले सरकार ने बचे हुए होटलों के 320 बार भी बंद करने का फैसला लिया। यानी अब शाम की सारी रौनक सिर्फ चार और पांच सितारा होटलों के 65 बार में ही सिमटकर रहने वाली है।

  ताकतवर होटल बार ऑनर्स एसोसिएशन के लिए यह सब्र की इंतहा थी। पिछले हफ्ते हंगामा तब मचा जब एसोसिएशन के कार्यकारी अध्यक्ष और केरल के मशहूर होटल कारोबारी डॉ. बीजू रमेश ने वित्त मंत्री के.एम. माणि के सिर ठीकरा फोड़ा। उन्होंने आरोप जड़ा कि बार एक बार फिर शुरू करने की गारंटी के बदले माणि ने पांच करोड़ रुपए मांगे थे। दो किश्तों में एक करोड़ रुपए उन्हें दिए गए। अब सियासत में तूफान आया हुआ है। सीपीएम सीबीआई जांच की रट लगा रही है। एंटी करप्शन ब्यूरो ने पड़ताल शुरू कर दी। अपने 50 साल के राजनीतिक करिअर में पहली बार 80 वर्षीय नेता माणि मुश्किल में फंसे। अब प्याले पीछे छूट गए हैं। पांच करोड़ की सुर्खियों के साथ माणि चमक रहे हैं। मदिरा मुक्ति के पवित्र प्रयासों में कहानी का यह मोड़ माणि के लिए खतरनाक साबित हुआ।
  प्रश्न यह है कि तीन साल पुरानी ओमन चांडी की यूडीएफ सरकार का मन अचानक शराब से क्यों भर गया? इतने कड़े फैसले लेने की नौबत आई क्यों? इसके मूल में है सिर्फ एक शख्स और वो हैं वीएम सुधीरन। देश के बाकी राज्यों में भले ही कांग्रेस और उसके नेतृत्व की हालत खस्ता हो मगर शराबखोरी के कारण कई तरह की सामाजिक और स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं झेल रही ‘गॉड्स ओन कंट्री’ में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सुधीरन ने शराब के खिलाफ खुलकर मुहिम चलाकर जबर्दस्त साख कमाई। बावजूद इसके कि इस कारोबार पर उनके अपने इरवा समुदाय का ही वर्चस्व है।
 लोकसभा चुनाव के ठीक पहले साफ-सुथरी छवि के सुधीरन को कांग्रेस की कमान सौंपी गई थी। वे शुरू से ही केरल को मदिरा मुक्त करने के हिमायती थे। मगर चांडी सख्त फैसले लेने में हमेशा हिचके। मुख्यमंत्री की मंशा पर भी सवाल उठने लगे। तब कहीं जाकर उन्होंने मार्च में 418 बार बंद किए। होटल बार मालिक इन्हें शुरू करने की फिराक में थे। यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए इन कारोबारियों ने वित्त मंत्री माणि से पींगे बढ़ाई थीं।
 अल्प बहुमत वाली यूडीएफ सरकार में सहयोगी वित्त मंत्री की पार्टी केरल कांग्रेस के नौ विधायक हैं। सियासी गलियारों में चर्चे आम हैं कि  महात्वाकांक्षी माणि 68 विधायकों वाले एलडीएफ के संपर्क में भी थे। कठोर फैसले लेने में अब तक सुस्त रहे ओमन चांडी के लिए यह खतरे की घंटी थी। उन्होंने एक झटके में महफिल लूट ली। नई नीति घोषित करके राज्य को 2025 तक पूर्णत: मदिरा मुक्त करने के उनके उद्घोष ने सुधीरन को तो चौंकाया ही। माणि अलग झमेले में जा उलझे। मगर फिलहाल शराब की दुकानों पर कतार अटूट है। बोतल के लिए अपनी बारी का इंतजार करते मदिरा प्रेमी  चटखारे ले-लेकर सियासत में मचे हंगामे पर गुफ्तगू कर रहे हैं। उन्हें कल की परवाह नहीं है। आज का इंतजाम हो जाए। 2025 किसने देखा है!
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एक साल में गटक जाते हैं..
22 करोड़ लीटर शराब
8.43 करोड़ लीटर बीयर
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कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...