तेलंगाना को बने हुए छह महीने हो गए। केसीआर के नाम से मशहूर के.
चंद्रशेखर राव अलग राज्य बनवाने में तो कामयाब हो गए मगर अब असल राजनीित के चक्रव्यूह
में फंसे हैं। यूपीए-2 के गर्भ से िनकला तेलंगाना जैसे यतीम हो गया है। बीजेपी के साथ
चंद्रबाबू नायडू का गठजोड़ उन्हें हर िदन नाकाम करने में लगा है। तेलंगाना और आंध्रप्रदेश
के बीच इन िदनों टॉम एंड जैरी जैसा खेल चल रहा है। हैदराबाद में केसीआर से लंबी मुलाकात
का मौका मिला। कह रहे थे कि नरेंद्र मोदी जैसे सशक्त नेतृत्व के बावजूद तेलंगाना को
बेसहारा छोड़ दिया गया है।
तेलंगाना के नाम पर अभी इस राज्य को एक विधानसभा भर मिली
है। न प्रशासनिक व्यवस्था और न ही अदालतों का कोई पता है। एक ही राजधानी से दो राज्य
चल रहे हैं। अफसरों को पता ही नहीं है िक वे कल किस राज्य में काम करने वाले हैं? इस
गफलत में हर दिन एक नया बखेड़ा खड़ा हो रहा है। सौ से ज्यादा सरकारी संस्थानों के बीच
बटवारा नहीं हुआ है। लेबर वेलफेयर बोर्ड इन्हीें में से एक है। इसके आठ सौ करोड़ रुपए
के फंड में से एक दिन आंध्रप्रदेश सरकार ने 600 करोड़ रुपए विजयवाड़ा में खुले एक नए
एकाउंट में डाल लिए। वह भी तेलंगाना सरकार को कुछ बताए बिना। नतीजा एक सरकार दूसरी
के खिलाफ थाने में चली गई।
कोयले की खदानें तेलंगाना
में हैं। सारे बिजलीघर आंध्र प्रदेश में। केसीआर का आरोप है कि आंध्र उसके हिस्से की
बिजली ही नहीं दे रहा। उधर चंद्रबाबू नायडू यह कहकर केसीआर की खिल्ली उड़ा रहे हैं िक
उनके आरोप बेबुनियाद हैं। दरअसल सारी समस्या कुप्रबंधन की है। अपनी कमियों के छुपाने
के लिए दूसरों पर दोष मढ़ना अासान है। मगर केसीआर की समस्याएं वाजिब हैं। बिजली तो उन्हें
नहीं ही मिल रही। उन्हें कुछ बताए बगैर फैसले हो रहे हैं। जैसे हैदराबाद के घरेलू विमानतल
का नाम बदलकर एनटीआर के नाम कर दिया गया। उन्हें मीडिया से यह समाचार प्राप्त हुआ।
आंध्रप्रदेश से चार मंत्री केंद्र में हैं जबकि तेलंगाना से सिर्फ एक। वो भी भाजपा
का। नाममात्र का।
ऐसे में केंद्र में केसीआर
पूरी तरह बेदम हैं। उनकी राजनीति के रंगढंग भी अजब रहे हैं। 2001 तक वे तेलुगुदेशम
पार्टी में ही चंद्रबाबू नायडू के करीबी थे। फिर तेलंगाना राष्ट्रवादी समिति-टीआरएस-के
नाम से अपनी पार्टी बना ली। 2004 में यूपीए से हाथ मिलाया। खुद केंद्र में मंत्री बने
और तब आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वायएसआर राजशेखर रेडडी की सरकार में अपने पांच मंत्री
बनाए। जब वायएसआर हेलीकॉप्टर हादसे में मारे गए तो उन्होंने एक करवट और बदली। वे कांग्रेस
से अलग होकर पूरी तरह तेलंगाना के पृथक राज्य के आंदोलन को हवा देने लगे।
2013 तक आते-आते तेलंगाना
का भ्रूण यूपीए-2 के गर्भ में विकसित होने लगा। चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस को भी
अपने लिए यही उचित लगा। केसीआर तब तक नया राज्य बनने पर कांग्रेस में टीआरएस के विलय
की बातें दस जनपथ के खुशनुमा प्रांगण में करते रहे। राज्य बन गया। यूपीए सत्ता से बाहर
हो गया। पहले वे कहते थे कि तेलंगाना का मुख्यमंत्री कोई दलित बनेगा। मगर उन्होंने
शान से खुद शपथ ली। अपने बेटे और भांजे को मंत्री बनाया। बेटी को सांसद बनाकर दिल्ली
भेजा। मंत्रियों को बुलेटप्रूफ गाड़ियों की सौगात के साथ विधायकों के वेतन दुगने किए।
साठ साल के प्रथक राज्य के आंदोलन की इस परिणति
के बारे में किसी ने कल्पना नहीं की थी।
मजा चखाने की बारी अब चंद्रबाबू नायडू की बारी थी, जिनके बीजेपी
से मध्ुर रिश्ते थे। अब ऊंट पहाड़ के नीचे आया। आंदोलन के दिनों में केसीआर सोचते होंगे
कि अपना राज्य बना तो फैसले लेने में अासानी होगी। तेलंगाना की दबी-कुचली जनता के लिए बड़े सपनों को पूरा करने का मौका मिलेगा। शायद
वे भूल गए थे कि भारत की राजनीति में सब कुछ इतना आसान भी नहीं है। अब ये दोनों राज्य
कुत्ते-बिल्ली जैसे लड़ रहे हैं। छह महीने गुजर गए हैं। केसीआर के लिए हर दिन कीमती
है। वर्ना वक्त ऐसे ही बरबाद हो जाएगा और उनके सपनों का अंबार कभी जमीन पर साकार नहीं
हो पाएगा। चंद्रबाबू नायडू के जीवन का यही लक्ष्य है कि केसीआर का कबाड़ा कर दें। तेलंगाना
की जनता भारत की राजनीित के सदाबहार चक्रव्यूह में फंसी है।