Sunday 5 June 2016

नईदुनिया: अब सिर्फ एक मास्ट हेड, एक टाइटल...

लोकमत समाचार के एडिटर और हमारे मित्र विकास मिश्र ने नईदुनिया के जन्मदिवस पर कल एक पोस्ट अपनी फेसबुक वॉल पर की है। देश भर के पुराने मित्रों ने अपने विचार रखे हैं। उस नईदुनिया के बारे में, जो अब हमारे बीच सिर्फ एक टाइटल के रूप में ही शेष है। वो दुनिया तो उजड़ चुकी है, जो हमारी यादों में बसी है, जिसमें हमारे निशान थे। अब वो सिर्फ एक साइन बोर्ड है। एक मास्ट हेड, जो किसी और की मिल्कियत है। उस शानदार दुर्ग की चौकियों पर अब कोई और ही पहरा दे रहा है।

जैसे हमें अपना बचपन लुभाता है और बालपन के उस निर्दोष संसार में हम हमेशा लौटना चाहते हैं, नईदुनिया मेरे लिए कुछ ऐसी ही अहमियत रखता है। वो 14 नवंबर 1994 का दिन था, जब दो नौजवान अभयजी की चयन प्रक्रिया से गुजरकर सीधे सिटी रिपोर्टिंग की टीम में दाखिल हुए थे। मैं रात को जल्दी निकलने के कारण शाम को दो घंटा फ्रंट पेज पर होता था। एक दिन मैं कुर्सी से उछल पड़ा, जब जयसिंह ठाकुर ने सेव-परमल की सांध्यकालीन दावत में कहा कि विजय इसी कुर्सी पर कभी प्रभाषजी बैठा करते थे। जयसिंह फ्रंट पेज के पुराने धुरंधर थे। नए साथियों से खूब घुलमिलकर रहते थे। मजाकिया भी थे। मुझे लगता है वह मजाक ही होगा। हालांकि दो घंटे बाद मैं सिटी रिपोर्टर की अपनी कुर्सी पर जाकर विराज जाता था। उस कुर्सी की तरफ श्रद्धा से देखते हुए।

 मैं यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता का कोर्स करके गया था, जहां हमें नईदुनिया के बारे में इस अंदाज में पढ़ाया गया था, जैसे वह पत्रकारिता का तक्षशिला या नालंदा विश्वविद्यालय हो। हम उसी भाव से वहां दाखिल हुए। करीब नौ साल बिताए। उन दिनों शहर में खेल प्रशाल के उद्घाटन् की तैयारियां थीं। दिसंबर 1994 में मानव संसाधन मंत्री अर्जुनसिंह और मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह ने एक जलसे में उस इनडोर स्टेडियम का लोकार्पण किया, जिसे उसी दिन अभयजी का नाम मिला-अभय प्रशाल। वह नईदुनिया का अभयजी का कालखंड था। नईदुनिया के लिए अपने वैभव का अंतिम दौर।
 पाठक दूसरे अखबारों के भी होते हैं मगर अकेला नईदुनिया था, लोग जिसके आदी थे। अखबार पढ़ने का एडिक्शन नईदुनिया ने पैदा किया था। अगर सुबह नईदुनिया नहीं पढ़ी तो दिन खाली लगता था। कुछ गलत छपा तो चिट्ठियों का जखीरा लगता था। राजेंद्र माथुर ने एक जगह लिखा है कि साल में करीब 60 हजार चिटि्ठयां पाठकों की आती थीं। पाठकों के साथ ऐसा जीवंत कनेक्ट! हम जिस नईदुनिया में दाखिल हुए, उसमें पुरानी पीढ़ी के श्रेष्ठ योगदान के ऊर्जा से भर देने वाले चर्चेे थे। राहुल बारपुते तब जीवित थे। रनवीर सक्सेना भी। कमान अभयजी के हाथ में आ चुकी थी।
 वह विरासत से फिसलन का भी दौर था, जब नईदुनिया मीडिया के कारोबार के लिहाज से आसमान में नई उड़ाने भरने का दम रखता था और ऐसी टीम उसके पास थी, तब वह अपनी पचास साल की संचित ऊर्जा इंदौर में उंडेल रहा था। वह एक ऐसे ठहरे हुए जहाज की शक्ल में इंदौर के बंदरगाह पर खड़ा था, जहां आप कितने ही साल गुजार लीजिए, रहेंगे वहीं के वहीं। इसलिए जिनमें जोखिम लेने का माद्दा था और काम की ललक थी, उन्हें एक दिन नईदुनिया की वह छत छोटी हो गई। वे अपनी नियति की तलाश में निकलते गए। जो कारीगर थे, उन्होंने नईदुनिया की सिमटती दुनिया में भी अपने लिए कुबेर की कथाएं रचीं। नईदुनिया डूब गया, वे अरबिंदों के अंतरिक्ष में अपनी चमकती कक्षाओं में प्रक्षेपित हो गए। वे उस बहती गंगा में डुबकी लगा रहे थे, जो आगे जाकर सूख जाने वाली थी। वे सब जल्दबाजी में थे।
 हम तब लाइब्रेरी की किताबों में पुरानी पीढ़ी के संपादकों की अनुभूति करते थे। सिटी की खबरें लिखते हुए संडे मेगजीन में लिखने के अगले विषयों पर विकासजी के साथ चर्चा करते थे। अभयजी अवसरों में कमी नहीं छोड़ते थे मगर उनके दायरे में कई और चीजें भी थीं। मुझे लगता है कि उनके बारे में निजी तौर पर भी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है। वह जन्म से प्रबंधन का हिस्सा थे, दिलचस्पियां उन्हें पत्रकारों के गोत्र के निकट रखती थीं, राजनीति उन्हें उलझाती थी। इस अजीब त्रिकोण में नईदुनिया उलझकर रह गया। वह अपनी दिशा ही तय नहीं कर पाया।
 अगर अभयजी सिर्फ प्रबंधन की शिखर भूमिका में नईदुनिया के फैलाव के कारोबारी प्लान करते तो क्या होता? अगर वे सिर्फ संपादक बनकर रहते और प्रबंधन कोई और देखता तो क्या होता? अगर वे राजनीति में सक्रिय रहकर अपनी कोई भूमिका इन दोनों से बाहर तय करते तो क्या होता? वे नईदुनिया की शतरंज पर एक साथ तीन रोल में बने रहे। नईदुनिया बाजी हार गया।
 नईदुनिया में दम था कि उसके देश की दस भाषाओं में आज 100 एडिशन होते। नेशनल, रीजनल न्यूज चैनलों की श्रृंखला होती। मेगजींस होतीं। शाम के टेबलाइड होते। वेबपोर्टल होते। इतनी साख उसके पास थी। मगर बदलते समय की जरूरतों से बेखबर, कारोबारी विजन की कमी और गलत लोगों को पहली कतार में रखने की संकुचित प्रवृत्ति ने तबाही के बीज बोए। जो भी नईदुनिया से निकला, भारी मन से गया। तरक्की पाकर गया, मगर भरे दिल से। वह उस पर्यावरण में काम करना चाहता था। मगर पर्यावरण बिगड़ा था। लोग निकलते गए। वह अपने शहर की सीमाओं में मस्त रहा।
 2012 में एक दिन बिकने की मनहूस खबर मिली। यह सिर्फ नईदुनिया का पतन नहीं था, वह हिंदी पत्रकारिता के एक भव्य दुर्ग का ढहना भी था, जिसे एक महान हैसियत में खड़ा करने के लिए एक पूरी पीढ़ी लगी थी। राहुल बारपुते और राजेंद्र माथुर के किस्से ऐसे सुने जाते थे, जैसे मुंबई में आरके स्टुडियो के कबाड़े में खड़ा होकर कोई राज कपूर, शैलेंद्र, हसरत और मुकेश की महफिलों की यादों में जाए।
 नईदुनिया के इस हश्र पर कुछ भी लिखा नहीं गया है। हम सब जिन्होंने कई साल वहां बिताए, कुछ निष्पक्ष विश्लेषण कर सकते हैं और करना चाहिए। निष्पक्ष इसलिए कि हमें अब नईदुनिया से कुछ नहीं चाहिए, क्योंकि अब वह सिर्फ एक मास्ट हेड है। एक साइन बोर्ड। हमने अपना सर्वश्रेष्ठ समय वहां बिताया है। अपने संघर्ष का समय। जब महीने की आखिरी तारीखों में फोन और बिजली के बिल के लिए आकाशवाणी से यदा-कदा मिलने वाले चेक बड़ा सहारा होते थे। मगर हम, प्रवीण शर्मा के शब्दों में पद्मश्री तुल्य, अपनी बाइलाइन में संसार के सब सुख महसूस करके धन्य हो जाते थे। और आज सब कुछ होने के बावजूद हमारे भीतर की वह पवित्र धन्यता लुप्त है।
(विकासजी आपने सही अवसर पर यह प्रसंग छेड़ा है। मनोहर भाटी किताब लिख रहे हैं। इंतजार रहेगा...)









कालसर्प योग

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