Sunday 25 March 2018

मंडी बामौरा में साठ साल बाद

#VIJAYMANOHARTIWARI
नौकरियां हमें अपनी जड़ों से दूर कर देती हैं। आप चाहकर भी जुड़े नहीं रह पाते। मंडी बामौरा मेरे बचपन की बस्ती है, जिस पर कभी बहुत विस्तार से लिखने का मन है। राजीव अग्रवाल जैसे मित्र एक राग दरबारी शैली का व्यंग्य बामौरा पर लिखने के हिमायती हैं। लेकिन मैं शायद ही ऐसा कर पाऊं, हालांकि गुंजाइश पूरी है। एक बार नईदुनिया के रविवारीय में कवर पेज पर एक काल्पनिक कस्बा कथा लिखी थी। यह एक ऐसेे ही अलसाए हुए कस्बे की कहानी थी। इसमें कुछ किरदारों के नाम बामौरा के ही थे। उसी लेख को सौ गुना विस्तार दे दूं तो कस्बा कथा पूरी की जा सकती है। मगर यह एक जोखिम भरा काम होगा। मैं अपने बचपन की यादों और यादों में बसे किरदारों पर व्यंग्य शायद कभी न लिख पाऊं...
फिलहाल यूनाइटेड स्टेट ऑफ बामौरा का जिक्र इसलिए कि अभी-अभी परिक्रमा करके लौटा हूं। प्रसंग था जैन समाज की पहल पर हुए छह दिवसीय पंच कल्याणक और गजरथ महोत्सव का। मुनिश्री निर्वेग सागर, अजित सागर, प्रशांत सागर, विषद सागर, दयासागर और विवेकानंद सागर की उपस्थिति में यहां उत्सव की धूम रही और जैन कारोबारियों ने इस दौरान पूरी तरह अपने कारोबार बंद रखे। आसपास के शहरों से भी हर दिन बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। दो रूप में गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, तप कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक के मनोरम दृश्य हर दिन देखे गए। आचार्य विद्यासागरजी के 50 वें दीक्षा महोत्सव के उपलक्ष्य में आए इस प्रसंग में जैन समाज के हर परिवार की भागीदारी रही। कई परिवारों की तीन पीढ़ियां इस रौनकदार जलसे में मौजूद थीं। हर दिन मुनि संघ ने शुद्ध और सात्विक जीवन जीने के व्यावहारिक सूत्र बताए।
मेरे स्कूल के साथी अरविंद जैन का आदेश था इसलिए समापन से एक दिन पहले कुछ घंटे मैं भी इसमें शरीक हुआ। यह तीर्थंकरों की प्राचीन प्रतिमाओं की प्राण प्रतिष्ठा का भी प्रसंग था। जो लोग इस इलाके से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें बताना चाहूंगा कि भोपाल से करीब डेढ़ सौ किलोमीटर के फासले पर रेल लाइन पर बसा यह छोटा सा कस्बा ऐतिहासिक रूप से मालामाल है। यहां आसपास मौजूद पुरातात्विक स्मारक हमारी स्मृतियों को डेढ़ हजार साल पहले ले जाते हैं। मसलन भगवान आदिनाथ को ही लें। 1957 में बामौरा गांव में खुदाई में करीब 12 फुट ऊंची शानदार प्रतिमा सामने आई थी। ऐसा कहते हैं कि किसी को स्वप्न आया था। यह एक बेहद खूबसूरत प्रतिमा है, जिसमें भगवान आदिनाथ नेत्र मूंदे सावधान की मुद्रा मंे खड़े हैं। इसे तब जंजीरों के सहारे नगर की दूसरी लाइन के जैन मंदिर में लाया गया था। मंदिर की पहली मंजिल पर एक दीवार पर वह ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीर मौजूद है, जिसमें प्रतिमा के सामने बैठे तीन बच्चे दिखाई दे रहे हैं। ये हैं-डॉ. आरके जैन, विनाेद गुड़ा और संपत बुखारिया। जिस जगह यह प्रतिमा मिली, वहीं करीब 900 साल पुराना परमारकालीन शिव मंदिर है, जिसे बीच की किसी सदी में यहां आए जाहिल हमलावरों ने खंडित किया। ऊपर से नीचे तक ही मूर्तियों को छीलकर ऐसा छोड़ा जैसे टूटे-फूटे पत्थरों का एक ढेर हो। वे खंडित मूर्तियां भी मंदिर के चारों तरफ अपने घायल अतीत के किस्से सुनाती हैं। भगवान आदिनाथ को हमारे किसी समझदार पूर्वज ने जमीन के भीतर समाधि में सुरक्षित रखा होगा, वे साठ साल पहले साबुत बाहर आए।
प्रतिमा के सामने आने के बाद 1958 में ऐसा ही पंच कल्याणक महोत्सव आयोजित हुआ था। पंचकल्याणक एक ऐसा प्रसंग है, जब तीर्थंकरों के पवित्र जीवन की पूरी झांकी आपके सामने प्रस्तुत होती है। उनके गर्भ में आने से लेकर निर्वाण तक। कैसे एक सामान्य देहधारी कैवल्य ज्ञान की महान उपलब्धि तक अपने जीवन का निर्णायक स्वयं बनता है और परमात्मा का प्रसाद बनकर सदियों बाद भी लाखों लोगों के दिलों में राज करता है। जैन परंपरा के चौबीसों तीर्थंकरों का जीवन इसकी जगमगाती मिसाल है। राजकुलों में पैदा हुए वे महान लोग त्याग और तप के ऐसे उदाहरण भी बने, जिसकी मिसालें इतिहास में कम ही हैं। ऐसा त्याग कि कब वस्त्र का आखिरी टुकड़ा भी शरीर से गिर गया, उन्हें पता ही नहीं चला। वे अलग लोक से संबद्ध हो चुके थे। एक ऐसे शाश्वत लोक का हिस्सा, जहां से उन्हें मनुष्य की देह में फिर आना नहीं था। वह जीवन जन्म-मरण की यात्रा का अंतिम पड़ाव था।
मंडी बामौरा की 20 हजार से ज्यादा आबादी में सौ से कम परिवार जैनियों के हैं। आधे से ज्यादा बाजार पर उनका वर्चस्व है। यह कारोबारी राजपाट उनकी अपनी कमाई है। वे आज जिस हैसियत में हैं, उसमें तीन-चार पीढ़ियों का परिश्रम और पुरुषार्थ लगा है। मेरे साथ पढ़े अरविंद, राजेश, अरुण जैन या मनीष समैया को भले ही राजगद्दी पुश्तैनी तौर पर मिली हो मगर अपने पिता और दादा की बनाई उस चमकदार हैसियत को बनाए रखने में इनके जीवन के भी 25 साल खप चुके हैं। आज कठरया, बजाज, समैया, गुड़ा और पनारवाले इस बस्ती के स्थापित ब्रांड नेम हैं। अगर हैप्पी यहां मिलते तो पंचरत्न का ब्रांड नेम भी इसमें जुड़ता। एक समय पंचरत्न परिवार की भी मालदार हैसियत हुआ करती थी। हमारे सहपाठी हैप्पी के दादा सेठ भगवानदास पंचरत्न अनाज के समृद्ध कारोबारी थे। साठ के दशक में उनके यहां फलते-फूलते कारोबार में बग्घी, ट्रक, जीप और टेलीफोन हुआ करते थे। उनके सुपुत्र और मेरे मित्र हैप्पी के परम पूज्य पिताश्री कस्तूरचंद पंचरत्न सागर से पढ़कर आए उन गिने-चुने स्नातक युवाओं में से थे, जो फर्राटेदार अंग्रेजी में बात करते थे। मगर उनके जीवन का सार यह निकला कि माया महाठगिनी है। अपरिग्रह के संदेश को उन्होंने अपने ही ढंग से अंगीकार किया। इस परिवार की तीसरी पीढ़ी ने अपने बूते छिंदवाड़ा में एक नए अध्याय की शुरुआत जीरो से की, जहां डॉक्टर सनत, हैप्पी और सुषमा दीदी अपने खुशहाल परिवारों में मंडी बामौरा की दूसरी-तीसरी लाइन की सुनहरी यादों को ताजा करते होंगे।
मैं खुशनसीब हूं कि अपने गांव में साठ साल बाद हुए इस पवित्र धार्मिक और सामाजिक समागम में मुझे कुछ समय बिताने का मौका मिला। मैं पांच साल तक भारत की अपनी यात्राओं के दौरान कर्नाटक में गोम्मटेश्वर से लेकर उत्तरप्रदेश में श्रावस्ती के पास भगवान संभवनाथ के जन्मस्थान और बिहार में राजगृह-नालंदा तक गया हूं। आचार्य विद्यासागर से लेकर आचार्य चंदनबाला से मिलने के अवसर मिले। मुनिश्री तरुणसागरजी के कड़वे प्रवचन के तीसरे भाग की भूमिका लिखी।
मैं मानता हूं कि हर इंसान की तरह बस्तियों की भी याददाश्त होती हैं। मंडी बामौरा की याददाश्त में इस पंचकल्याणक की स्मृतियां भी अंकित हो गईं। आज की तस्वीरों में मौजूद दस-पांच साल के बच्चे दशकों बाद अगले ऐसे ही महोत्सव में अपने बच्चों और बच्चों के बच्चों के साथ अपने बचपन की इन स्वर्णिम स्मृतियों को ताजा करेंगे। मैंने मुनिश्री अजितसागरजी से मुलाकात में कहा कि हमारे यहां इतिहास लेखन की परंपरा नहीं है। ऐसे अवसर इतिहास में दर्ज होने चाहिए। इनका विस्तृत दस्तावेज बनना चाहिए। आयोजन के सारे खर्च की दो चार फीसदी रकम इस पर भी खर्च होनी चाहिए कि यह अवसर रिकॉर्ड पर आ जाए। ताकि सनद रहे....
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मुनि संघ की शिक्षा: जो प्राप्त है साे पर्याप्त है
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-संत न बनो, न सही मगर जीवन में संतोषी ही बन जाओ तो यह भी परम ज्ञान की तरफ बढ़ा हुआ एक छोटा सा कदम है।
-जो प्राप्त है सो पर्याप्त है। अगर जीवन का दर्शन यह हो जाए तो बहुत सारी व्याधियों से समाज मुक्त हो जाए। तनाव मुक्त हो जाए।
-बच्चों को अपने निकट रखें। एक घर में उन्हें प्राइवेसी के नाम पर अलग न करें। इस किस्म की आजादी उन्हें हमसे अलग ही कर रही है।
-टीवी देखते हुए भोजन करना सेहत के लिहाज से कतई ठीक नहीं। मां को चाहिए अपने सामने बच्चों को भोजन कराए। पत्नी पति को ऐसे ही भोजन कराए। अन्यथा कह दे कि ऐसा न किया गया तो वह व्रत करेंगी।
#PANCHKALYANAK #GAJRATHMAHOTSAVA
21 फरवरी 2018
फेसबुक पेज पर...

रेडियो मतलब विविध भारती

#VIJAYMANOHARTIWARI
रेडियो दिवस पर विविध भारती पर आज कुछ पुरानी आवाजें सुनीं। जैसे क्रिकेट कमेंट्रेटर सुशील दोशी, जिन्होंने एक अरसे तक टेलीविजन से पहले के दौर में सिर्फ अपनी आवाज और अंदाज से रेडियो पर मैदान की लाइव झलक पेश की। हममें से हरेक की जिंदगी में रेडियो से एक अहम रिश्ता रहा है। हम किसी भी उम्र के हों, वह हमारी यादों का अटूट हिस्सा है। रेडियो ने ही तलत महमूद, मुकेश, लता मंगेशकर, हेमंत, मन्ना डे, किशोरकुमार, शारदा, हेमलता, शैलेंद्रसिंह की आवाजों का रस हमारी जिंदगी में घोला। मदन मोहन, शंकर जयकिशन, जयदेव और खय्याम की सात्विक धुनें सुनते हुए हमने संसार में आंखें खोलीं। अमीन सयानी फिल्म संगीत के प्रभावशाली प्रस्तोता बने। सुबह आठ बजे के समाचारों में कई आवाजें हमारे घरों और दुकानों पर गूंजी हैं।
मुझे याद है स्कूल के दिन। घर में रेडियो था। मां घर के काम करते हुए हवा महल बड़े चाव से सुना करती थीं। गांव-कस्बों में आज भी रंगमंच नहीं हैं। हमने नाटकों को हवा महल पर ही देखा है, जिसमें आवाजें ही जीवंत दृश्य रच देती थीं। उसी से गाने सुनने का चस्का लगा। संगीत सरिता, आठ बजे की न्यूज बुलेटिन, जयमाला, छायागीत और हवा महल की अमर धुनें जेहन में बसी हैं। मुझे किसी ने बताया था कि 1957 में जब विविध भारती शुरू हुई तो इन कार्यक्रमों के नामकरण में प्रसिद्ध कवि पंडित नरेंद्र शर्मा की भूमिका महत्वपूर्ण थी।
हिंदी सेवा से लेकर ऊर्दू सर्विस तक। एक राष्ट्रीय प्रसारण सेवा थी, जो रात में हफ्ते में एक दिन शुभ अवसरों पर शुभकामना संदेश प्रसारित करती थी। कॉलेज के दिनों में अपने दाेस्तों के जन्मदिन वगैरह पर कई पोस्ट कार्ड लिखे, जो बाकायदा रात बारह के बाद के इस प्रसारण में गांव में ही सुने गए। सुनकर बड़ी खुशी होती थी जब लोग कहते थे-आपका नाम रेडियो पर सुना। स्कूल के दिनों में आकाशवाणी इंदौर का प्रसारण दूसरे केंद्रों की तुलना में बहुत स्पष्ट सुनाई देता था। युव वाणी की चर्चाएं सुनकर ऐसा लगता था, जैसे हम सामने बात करता हुआ देख रहे हों। एक बार काली घटा पर कुछ गाने श्रोताओं से मांगे गए थे। फौरन एक पोस्टकार्ड पर दो गाने लिख भेजे, जो बाकायदा सुनाए गए और वो भी नाम सहित। फरमाइशी फिल्मी गीतों में देश के कई नाम लगातार सुने जाते थे। उन्हें पूरा देश नाम से जानता था। रेडियाे का अपने सुनने वालों से यह दोतरफा रिश्ता था।
मैं बचपन में पढ़ने के लिए कुछ साल शिवपुरी में रहा। वहां मेरे कानूनविद मौसाजी अशोक कुमार पांडे स्कूल टीचर हुआ करते थे। वे पढ़ाकू थे और दुनिया भर के अपने सामान्य ज्ञान को समृद्ध रखने के लिए रेडियो पर बीबीसी की समाचार सेवा सुना करते थे। उनसे मुझे भी बीबीसी सुनने का चस्का लग गया। कॉलेज के दिनों में फिजी में हुए सत्ता पलट की बीबीसी पर शानदार कवरेज और वहां की घटनाएं आज तक याद हैं। उन्हीं दिनों हर बुधवार रात आठ बजे बिनाका गीतमाला भी खूब सुनी। सौतन फिल्म का गाना-शायद मेरी शादी का ख्याल दिल में आया है...साल के आखिर में पहली पायदान पर बजा था। आप तो ऐसे न थे फिल्म का गाना-तू इस तरहा से मेरी जिंदगी में शामिल है...भी गीतमाला में लगातार सुनाई दिया था। रंभा हो जैसे उषा उथुप और कल्पना अय्यर के डिस्को गाने भी।
जब मैं बाकायदा पत्रकारिता में आया तब इंदौर के मालवा हाऊस में पहली बार भीतर से स्टुडियो देखे। तब मुझे स्कूल के दिनों के वे पोस्टकार्ड याद आए, जो रेडियो कॉलोनी के इसी पते पर लिखा करते थे। अब एक नया रिश्ता बना। डायरेक्टर बीएन बोस और डॉ. ओम जोशी, संतोष अग्निहोत्री वगैरह यहां मिले। विद्याधर मुले पत्रकारिता विश्वविद्यालय के अकेले स्नातक थे, जो रेडियाे में गए। बोस साहब और जोशी जी ने मुझसे कई फीचर लिखवाए। पर्यावरण, ट्रैफिक, जनसंख्या जैसे विषयों पर लगातार लिखा। रेडियो पर लिखने का अभ्यास बहुत दिलचस्प लगा। एक नया माध्यम, जहां न आप पढ़े जा रहे हैं, न देखे जा रहे हैं। आपके लिखे हुए को सुना जा रहा है। मेरे लिखे फीचर में अक्सर एक आवाज मनीषा जैन की हुआ करती थी, जो इन दिनों मुंबई में हैं। यह नियम था कि एक लेखक तीन महीने बाद ही दूसरा फीचर लिख पाएगा। मेरा लिखा बोस साहब और जोशी जी को बहुत पसंद आता था। ऐसी कॉपी, जिसकी बहुत मरम्मत की जरूरत नहीं होती थी और 26-27 मिनट का कसी हुई हाथ की लिखी स्क्रिप्ट उन्हें मिल जाती थी, वह भी चार दिन की समय सीमा में ऑन डिमांड।
मेरी हेंड राइटिंग बहुत अच्छी हुआ करती थी। ऐसी कि सामने मौजूद चार कॉपियों में से कोई भी सबसे पहले उठाकर पढ़े। बोस साहब ने मेरे लिए एक रास्ता निकाला। उन्हें तकरीबन हर महीने एक फीचर की जरूरत होती थी। उन्होंने कहा कि अपने दो-तीन दोस्तों से बात करूं। उनके नाम से लिखूं। चैक उनके नाम से बनता था। वे कैश मुझे देते। 850 रुपए की वह रकम बेहद कड़की के उन दिनों में फोन वगैरह के बिल जमा करने में काम आती। मनीषा जैन और विद्याधर मुले की आवाजों में अपने लिखे शब्दों को रेडियो पर सुनने का मजा अलग। वे खूब सुने जाते थे। एकाध फीचर को तो आकाशवाणी केंद्राें की प्रतिस्पर्धा में देश भर में सराहना भी मिली थी और उसका पुनर्प्रसारण हुआ था। तब टीवी चैनल नहीं थे और अखबारों में काम करने वाले रचनात्मक रुचियों के लोग रेडियो से जुड़े रहते थे। नईदुनिया में मेरे सीनियर शिवकुमार विवेक तब प्रादेशिक समाचार बुलेटिन पढ़ते थे।
उसी दौर में फोन इन प्रोग्राम हैलो फरमाइश शुरू हुआ। मंगलवार की शाम चार से पांच बजे कमल शर्मा की गहरी और गंभीर आवाज में यह कार्यक्रम एफएम चैनलों की दस्तक के दौर में विविध भारती के लिए वरदान जैसा था। कमल शर्मा देश के कोने-कोने में फैले श्रोताओं के कॉल सुनते। उनका अंदाज इतना आत्मीय था कि श्रोता से सिर्फ गाने की औपचारिक फरमाइश नहीं लेते थे बल्कि परिवार, पेशा, गांव, शहर से लेकर मौसम तक का हाल पूछते थे। वे अपनी जानकारियां भी शेयर करते थे। एक घंटे के इस बांधे रखने वाले प्रोग्राम में गानों के साथ पूरे देश की लाइव अपडेट मिलती थी। कहीं फसलों का मौसम, कहीं शादियों की धूम, कहीं परीक्षाओं का समय। श्रोता खुलकर सुनाते थे। फाेन लाइनें लगातार व्यस्त होने की शिकायतें करते थे। लगने पर खुशी से फूले नहीं समाते थे। कमलजी कई श्रोताओं की आवाज सुनकर ही उनका नाम बता देते थे। मैं तब सिटी रिपोर्टिंग में था और दिन में शहर की फेरी करके चार तक हर हाल में लौट आता था ताकि एक घंटा हैलो फरमाइश सुन सकूं। एक दफा वे इंदौर आए थे। अभय प्रशाल में संगीत का कोई जलसा था। मैं उनका प्रशंसक था। प्रभु जोशी ने मेरी उनसे मुलाकात कराई थी। फिर रेडियो की दूसरी आवाजों ने भी यह प्रोग्राम संभाला और श्रोताओं के साथ मीठे रिश्ते को सबने खूब निभाया।
आज जब निजी एफएम चैनलों की फसलें भी रेडियो पर जोर और जोर से ज्यादा शोर से लहलहा रही हैं। यह युवाओं के जोश से भरी दुनिया है, जिसमें सिनेमा जगत से जुड़ी फिजूल जानकारियां, नई फिल्मों अौर कलाकारों के बेमतलब किस्सों का भयावह ओवरडोज है। बाढ़ सी आई हुई है। एफएम में भाषा के संस्कार की वह गंभीरता गायब रही, जो विविध भारती की सात्विक पहचान है। यहां है नई पीढ़ी को संबोधित हिंदी-अंग्रेजी की खिचड़ी। विविध भारती के अपने 50-60 साल के संग्रह में गीत-संगीत का नायाब खजाना है, जिसका कोई मुकाबला नहीं हो सकता। लेकिन एक के बाद एक कई एफएम चैनल भी रेडियो के संसार का हिस्सा बने ही। हालांकि दो दशक की उनकी यात्रा में यादगार चीजें बहुत ही कम होंगी। हर शहर के अपने चैनल हैं।
इंदौर में अभिजीत और एकता शर्मा अलग-अलग चैनलों में थे, जिनके कुछ शो याद हैं। भोपाल में अनादि और आशी की आवाजें जानी-पहचानी गईं। आरजे की यह दुनिया विविध भारती के आगे कुछ नश्वर भी है। कब कौन सी आवाज गुम जाए और नई आवाज आ जाए, पता ही न चले। मगर विविध भारती में ममता सिंह, कमल शर्मा, यूनुस खान, मनीषा जैन की आवाजें बरसों से सुनी जा रही हैं। उन्हें सुनते हुए लगता है कि आवाजें हमें जिस संसार से जोड़ती हैं, ये उसी परिवार के हमारे हिस्से हैं।
हमारे परिवार, पड़ौसी, दोस्त, रिश्तेदार, सहकर्मी मिलकर एक संसार रचते हैं। इस संसार में आवाजें भी एक रिश्ता गढ़ती हैं। रेडियो ने यही रिश्ता बनाया। टीवी भी कुछ बिगाड़ नहीं पाया। मेरे लिए रेडियाे का मतलब विविध भारती है और वे सब नाम, जिनकी आवाजें हम सुनते आ रहे हैं। इनसे शायद हम कभी न मिलें, लेकिन सब अपने ही दोस्त लगते हैं। अपने ही परिवार के।
शुक्रिया रेडियो, शुक्रिया विविध भारती।
#VIVIDHBHARTI #RADIO
13 फरवरी 2018
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कहानी हेमंत और प्रिंशु की


#Vijaymanohartiwari
मध्यप्रदेश से उपजी यह एक दिलचस्प स्टोरी है। इसमें प्यार के ड्रामे भी हैं। सेक्स का तड़का है। बेहिसाब पैसा है। सत्ता का नशा है। महत्वाकांक्षा का बुखार है। इश्क है। तड़प है। वादे हैं। खुशनुमा जिंदगी हर तरह के साजो-सामान से सजी है। सुबह हसीन हैं। दोपहरें अलसाई हैं। शामें दिलकश हैं। सपनों से भरी रातें रंगीन हैं। मगर दोनों काे ही यह अहसास नहीं है कि बहुत जल्दी ही रिश्तों की ऊर्जा से भरी गरमाहट ज्वालामुखी की शक्ल लेनी वाली है। अब सरेआम हो चुकी इस कहानी में थाने हैं, अदालत है, फरारी है, जेल है, जांचें हैं, ऑडियो हैं, वीडियो हैं और सबसे ऊपर सियासत है।
कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे सत्यदेव कटारे के चिरंजीव हेमंत कटारे 30 से कम उम्र के हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई करने भोपाल आई प्रिंशु 23 की। यह सपनों से भरे युवा भारत के दो शहरी सिरे हैं, जिनकी जड़ें दूरदराज गांवों में हैं। एक सिरे पर पैदाइशी अमीर नौजवान है, जिसने अपने पिता की राजनीतिक सत्ता का असर आंख खोलते ही देखा और महसूस किया है। उसे कुछ भी हासिल करने के लिए पसीने की एक बूंद नहीं बहानी पड़ी। पिता की नेक कमाई ही रही होगी कि कांग्रेस ने उसे उनकी जगह रखा। आज जब मध्यप्रदेश में कांग्रेस पार्टी 14 साल से ठंडी अपनी राख में से खुद को खड़ा करने की कोशिश में है, ऐसे बेहद मुश्किल मोड़ पर हेमंत से ऐसी परफॉर्मेंस की उम्मीद किसे थी? हेमंत को अभी अपनी आंखों से दुनिया देखनी थी। मगर बाप की कमाई के नशे में चूर आंखें बिना परिश्रम और प्रयास के मिली सत्ता की पहली ही झलक में ही चौंधिया गईं। प्रिंशु का नाम सामने आ गया। वे न होतीं तो कोई और होता। हो सकता है हो भी और फिलहाल कहीं शुक्र मना रहा हो। पेरिस की शामों की रोशनी रंग-बिरंगी होती है। खूबसूरत परछाइयां किसी भी नाम की हो सकती हैं।
हेमंत जब अपने पिता के देहांत के बाद कांग्रेस की राजनीति में उनकी जगह आ रहे होंगे, जब उन्हें पहला टिकट मिला होगा, जब वे पहली बार अपने वोटरों के बीच गए होंगे और जब जीतकर विधायक के रूप में चिर-परिचित राजधानी में कदम रख रहे होंगे तब ऊंचाइयों पर जाते अपने करिअर के उन सबसे शानदार दिनों में यह रिश्ता भी परवान पर रहा होगा। उनके बेहद करीबी दोस्त ही जानते होंगे कि राजकुमार किसी खूबसूरत कन्या पर आशिक हैं। जिंदगी हर तरफ से उन पर एकदम मेहरबान थी। उम्र, मोहब्बत, दौलत, शौहरत, ताकत।
हरियाणा के गृहमंत्री रहे गोपाल कांडा ने जब गीतिका की खुदकुशी के पहले वाली रात महंगी शराब के आखिरी पैग की लज्जतदार चुस्की ली होगी, तब वे ठीक ऐसे ही नाजुक वक्त में थे। लेकिन अगली सुबह खुदकुशी की एक खबर ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। वे उम्र के उस पड़ाव पर थे, जब जूते की दुकान से शुरू हुई उनकी कामयाबी की कहानियां पुरानी हो चुकी थीं और सपनों को सिर्फ रंगीन होने की ही इजाजत थी। अकूत दौलत के दिखावे कांडा पर सबसे भारी पड़ गए। पलक झपकते ही वे राजनीति में हाशिए पर आ गए। सत्ता रेत का महल साबित हुई। नवाबी शौक उन्हें जेल तक ले गया। रातों-रात आई बेहिसाब दौलत और ताकत दो कौड़ी की साबित हुई। हम एक दीपिका का नाम एक खुदकुशी की वजह से जान पाए। उनकी जिंदगी में आईं दूसरी कई दीपिकाएं खैर मना रही होंगी।
अगर हेमंत पहली बार के नौसिखिया विधायक न होेते और उत्तरप्रदेश के बाहुबली मंत्री अमरमणि त्रिपाठी की तरह ही होते तो प्रिंशु जेल से जमानत पर बाहर नहीं आ रही होती, उत्तरप्रदेश के ही मऊ के पास अपने पुश्तैनी गांव के घर में उसकी तस्वीर पर फूलों की एक माला पड़ी होती। फूल भी अब तक सूख गए होते। अगर वे ऑडियो सही हैं तो भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में पीजी की यह धृष्ट कन्या कुछ ज्यादा ही आत्मविश्वास से भरी थी। सब तरह के रिश्तों की एक शानदार पारी खेलने के बाद एक नौजवान विधायक 25 लाख रुपए पर मामला सैटल करने की बात जुआरी सौदागर की तरह कर रहा है और कन्या 28 पर ही किसी कुशल कारोबारी की तरह अडिग है, क्योंकि उसे फिक्र है कि 25 लाख तो 25 दिनों में ही खर्च हो जाएंगे।
इस बेफिक्र बातचीत के दौरान विधायक महोदय को अहसास है कि यह खूबसूरत मगर वाहियात लड़की उसका खेल खराब सकती है। यह तो तय है कि नया विधायक अनाड़ी आशिक है, जो एक दिलफरेब हसीना के हिस्से में आ गया है। कटारे को यह भी शक है कि सत्तादल की कोई तीसरी शक्ति इनके रिश्ते को एक खतरनाक मोड़ पर धकेल रही है और उनके पास खोने को काफी कुछ है। वह अपनी ताजा शौहरत के कबाड़े की आशंका में डरा हुआ है।
प्रिंशु पीजी के लिए जब भोपाल में पहली दफा आईं होंगी तो शायद ही इस तरह संसार के सामने आने का ख्वाब उन्होंने कभी देखा होगा। महात्वाकांक्षा मीडिया में हैसियत बनाने की ही रही होगी। एक ऐसी दुनिया, जहां आप चेहरे से या नाम से जाने जाते हैं। या कम से कम ऐसा मुगालता तो रहता ही है। अनिश्चितता से भरी वह दुनिया, जहां ऊंची पसंद वाले ऊंचे लोग रहते हैं और उन तक पहुंच बहुत आसान होती है। लेकिन कई बार हम चाहते कुछ हैं और हो कुछ और ही जाता है। प्रिंशु की जिंदगी में विक्रमजीत नाम का एक किरदार न जाने कहां से आ जाता है। न वह मऊ का है, न लखनऊ का, न पत्रकारिता विश्वविद्यालय से उसका कोई लेना-देना। बिल्कुल अलग ही पेशे का। एक कार कंपनी का कारिंदा। जब ऐसी कहानियां हवाओं का हिस्सा बनती हैं तो कई मनमाने कतरे भी कानों के आसपास तैरने लगते हैं। सोशल मीडिया के बेलगाम घोड़ों को कोई कहीं जाने से नहीं रोक सकता।
वह विक्रमजीत के साथ देखी जाने लगती है। विक्रमजीत के सियासी आका के बारे में अफवाहें चल पड़ती हैं। आका के ऐसे कई गुर्गे हैं। अगर प्रिंशु को अपने रिश्तों की कीमत ही वसूलनी थी तो इस कहानी में इतनी उथलपुथल की गुंजाइश नहीं थी। मामला भोपाल की अरेरा कॉलाेनी के चमचमाते जूना जिम के आरामदेह सोफे पर किसी सर्द रात एक यादगार सेशन के बाद ही किसी शांतिपूर्ण सुलह तक चला गया होता। प्रिंशु के लिए 20-25 लाख रुपए की रकम भोपाल जैसे शहर में जीने लायक शुरुआत करने के लिए मामूली सी मदद साबित होती या वह डिग्री पूरी करके किसी और शहर में अपना करिअर बनाती। वहां राजनीति की चकाचौंध में अपने लिए कोई नए किरदार ढूंढती। कोई कभी नहीं जान पाता कि हेमंत कटारे से उसके क्या रिश्ते थे?
पुरानी फिल्मों के रंजीत की तरह परदे पर विक्रमजीत हेमंत-प्रिंशु की घटनाओं से भरी इस कहानी में आते हैं। क्या उन्होंने कन्या को मोहरा बनाकर कांग्रेस के हेमंत को ठिकाने लगाने की सोची। मगर इससे विक्रम को भी क्या फायदा होना था? ज्यादा से ज्यादा सौदे में वह अपने हिस्से का टुकड़ा लेकर शांतिपूर्वक रह सकता था। तो क्या इस पूरे फैलारे के पीछे कोई और है? एक ऑडियो में कन्या की आवाज में तीन-चार नाम सुनाई दे रहे हैं। क्या वह कोई और चौथा या पांचवा भी है?
वीडियो और ऑडियो को देखें-सुनें तो हैरत होती है कि कोई लड़की अपने पहले ही रिश्ते में इतनी हुनरमंद हो सकती है। बाहर से पढ़ने आए बच्चों की जिंदगी में झांकने के मौके कम ही आते हैं। क्या इनके परिवारवालों को अहसास है कि ये किस खोखली जमीन पर खड़े हैं? शहरों में आकर ये किन सपनों का पीछा कर रहे हैं?
नेताओं की जिंदगी के तो कहने ही क्या हैं? वे तो सत्ता के सबसे बड़े सपने के लिए ही जीते हैं। किसी भी कीमत पर वही मकसद है, वही नशा है। मगर आप नए खिलाड़ी हैं ताे कभी-कभी उथले पानी में भी डूब सकते हैं। यह एक नौसिखिए नेता की ऐसी ही अक्षम्य और आत्मघाती चूक की कहानी है, जिसकी कई परतें खुलना बाकी हैं। ब्लैकमेलिंग, ज्यादती और अपहरण के तीन केस शुरुआती परतें भर हैं। अब कोई अटेर जाकर उन वोटरों से बात करे, जिन्होंने दिवंगत सत्यदेव की जमानत पर हेमंत पर भरोसा किया था। जख्मी हालत में सही मरहम की जरूरत किसे नहीं होती? हार मुंदी चोट की तरह देर तक दर्द देती है। पुलिस और क्राइम ब्रांच की औकात इस कहानी में सियासी मोहरों से ज्यादा नहीं है। आकाओं को बखूबी पता है कि एक बार सुराग हाथ लगने के बाद कब क्या करना है। उनके लिए यह रोमांच से भरा खेल है।
प्रिंशु सरला मिश्रा, मधुमिता शुक्ला और गीतिका से ज्यादा उम्र लिखवाकर लाई थीं। कई साल साल कोमा में रहते हुए भी सत्यदेव कटारे इतनी पीड़ा में कभी नहीं रहे होंगे। इस समय जहां कहीं वे सूक्ष्म रूप में होंगे तो उससे कहीं ज्यादा तकलीफ महसूस कर रहे होंगे। हेमंत कटारे भिंड में उनकी सियासत के उत्तराधिकारी तो बन गए मगर एक काबिल बेटे नहीं बन सके। इस नाकाबिलियत ने पहले ही चुनाव में जीत के फौरन बाद उन्हें गर्त में धकेल दिया है। इससे उबरना आसान नहीं होगा। घात-प्रतिघात से भरी सियासत इतनी बेरहम है कि कोई भी चीज मोहरा बनाई जा सकती है। इस खेल में पहली मात उनके हिस्से में आ चुकी है।
#hemantkatare
6 फरवरी 2018
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हे पद्मावती इन्हें क्षमा करना!


मैं सेटेनिक वर्सेस भी पढ़ना चाहता हूं। पद्मावती भी देखना चाहता हूं।
मैं एक ऐसे लोकतंत्र में रहता हूं, जो धर्म से निरपेक्ष घोषित है। मैं चाहता हूं कि एक लेखक या फिल्मकार की रचना पढ़े और देखे जाने के बाद ही तय हो कि वह कैसी है? अगर कुछ गलत है तो किताब खुद ब खुद रद्दी की टोकरी में चली जाएगी और फिल्म भी फ्लाप हो जाएगी। जनभावनाओं के नाम पर जितना सेटेनिक वर्सेस पर बंदिश अलोकतांत्रिक है और लगत है, उतना ही किसी भी मूवी की ऐसी मुखालिफत। दोनों ही गलत हैं। जबकि मूवी को कुछ दानिशमंद देख चुके हैं और बता चुके हैं कि उसमें ऐसा कुछ नहीं है, जो राजपूतों की भावनाओं को आहत करने वाला हो। उसमें अलाउद्दीन खिलजी का महिमा गान नहीं है। पद्मिनी से उसके किसी काल्पनिक प्रेम प्रसंग का दृश्य नहीं है। फिर इस स्तर पर ऐसा विरोध समझ के परे है।
यह किसी राजपूत को तो कतई शोभा नहीं देता। राजपूतों की पुरातन पहचान ऐसी नहीं है। आमतौर पर वे शौर्य के प्रतीक रहे हैं। राणा कुंभा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप की छवियां अन्याय और अनीति के विरुद्ध अपना सब कुछ दाव पर लगाकर दुश्मन को ललकारने वाले वीर योद्धाओं की रही है। वे राजपूत समाज के ही महानायक नहीं हैं। वे सदियां बीतने के बाद भी आम भारतीयों के आदर्श बने हुए हैं। लेकिन आज के राजपूतों संगठनों और सेनाओं का सलूक देखिए। वे भेड़चाल में फंसे हुए हैं। ऐसा लगता है कि बुद्धि का उनसे कोई लेना-देना नहीं है। उन्हें अपनी संगठन शक्ति, समय और ऊर्जा का इस्तेमाल ज्यादा रचनात्मक चीजों में करना चाहिए। भारत की दूसरी जरूरी समस्याओं में खुद को खपाना चाहिए।
फिल्म के ऐसे सड़क छाप अंधे विरोध ने यह सिद्ध किया है कि हम एक अराजक समाज में तब्दील हो रहे हैं, जहां चंद गुंडे किसी भी संगठन के नाम की आड़ में पूरी कानून-व्यवस्था को अपने हाथ में ले सकते हैं। वे सरकारों को अपने मनमाफिक झुका सकते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। स्वस्थ लोकतंत्र का लक्षण तो कतई नहीं है। सरकारों को भीड़ के आगे झुकने की बजाए सच के पक्ष में मजबूत होना और उससे ज्यादा मजबूत दिखना चाहिए। जिन राज्यों में फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने के त्वरित फैसले ले लिए गए, वहां शीर्ष और समझदार राजनीतिक नेतृत्व को राजपूत समाज के बुद्धिमान लोगों को इस बात के लिए राजी करना चाहिए था कि वे फिल्म को देखकर ही कोई राय जाहिर करें। बिना देखे अराजकता न फैलाएं। यह सरकारों की प्रतिष्ठा को भी खराब करने वाला अनुभव रहा।
एक फिल्म के विरोध का यह तरीका भारतीय तो कतई नहीं है। हमारे यहां वात्सायन ने कामसूत्र रचे मगर किसी ने उनकी कृति नहीं जलाई। उनका गला नहीं काटा। उलटा उन्हें भी आदर से मुनि माना। चार्वाक का दर्शन नितांत भोगवादी है। मगर किसी मुनि-महर्षि ने पागलों की तरह फतवे नहीं फैंके। चार्वाक को भारतीय मनीषा ने एक ऋषि की तरह स्वीकार किया। रैदास ने जूते बनाते हुए परमात्मा के गीत गाए। किसी ने उनकी हत्या की सुपारी किसी को नहीं दी। यह हमारे स्वभाव में निहित रही सहिष्णुता के सहज उदाहरण हैं। एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक देश में फिल्म के विरोध का ऐसा आचरण पूरी सभ्यता को कटघरे में रखने के लिए तैयार और निराश नकली बुद्धिजीवियों को अच्छी खुराक दे रहा है।
कई साल पहले मेरी मुलाकात जानी-मानी पत्रकार नलिनीसिंह से हुई थी। उस समय अरुण शौरी की किसी किताब का विरोध आंबेडकर के अनुयायी कर रहे थे। कहीं वह किताब जलाई गई थी। नलिनीसिंह का कहना था कि विरोध का यह तरीका मूर्खतापूर्ण है। अगर किताब पर विरोध है तो आंबेडकरवादियों को ऐसी ही एक किताब लिखकर अपनी बात कहनी चाहिए।
हे पद्मावती, हे सांगा, हे महाराणा बलहीन हो चुके इन बुद्धिहीनों को क्षमा करना। ये नहीं जानते कि ये आपके नाम पर क्या-क्या कर रहे हैं?
25 जनवरी 2018
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राजा भोज के बहाने

#VIJAYMANOHARTIWARI
साल 2000 की बात है। एक मार्च का दिन था। मैं उन दिनों इंदौर में था। धार की भोजशाला के लिए हुए आंदोलन का समय था। हिंदू जागरण मंच ने भोजशाला को लेकर एक आंदोलन शुरू किया था। नईदुनिया के लिए इसकी कवरेज के बहाने मुझे राजा भोज के व्यक्तित्व में झांकने का मौका मिला। मुझे लगा कि इंदौर में बैठकर आंदोलन की टेबल कवरेज की बजाए सबसे पहले जाकर भोजशाला के दर्शन करने चाहिए।
उस दिन मैं धार जा पहुंचा। भोजशाला तब पुलिस के कड़े पहरे में थी। पुलिस के जवान ने मुझे प्राचीन पत्थरों की चारदीवारी से घिरी उस इमारत के शानदार दरवाजे पर अंदर जाने से रोका। मैंने वजह पूछी तो जवाब गजब का मिला। वह बोला-इजाजत नहीं है। मैंने अपना प्रेस का परिचय दिया और इतिहास के प्रति अपनी दिलचस्पी जाहिर करते हुए गुजारिश की कि दस मिनट के लिए भीतर जाकर आने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए। वह बोला-मैं ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि मजहब वाले आपत्ति लेते हैं।
मजहब वाले मतलब मुस्लिम। सामने ही कब्रों के आसपास कुछ झुग्गियों में स्थानीय मुसलमान परिवार रहते थे। हालांकि मुझे भोजशाला के दरवाजे तक जाने में उनमें से किसी ने नहीं रोका था। भोजशाला में तब हिंदुओं के लिए साल में एक ही दिन जाने की इजाजत थी-वसंत पंचमी को। जबकि मुसलमान हर शुक्रवार को आ सकते थे-नमाज के लिए। अगर आप सिर्फ इतिहास के जिज्ञासु हैं, न हिंदू हैं, न मुसलमान हैं तो हमारा सेकुलर सिस्टम आपको इस एक हजार साल पुरानी इमारत में दाखिल होने की इजाजत नहीं देता था। केंद्र में अटलजी की सरकार थी। जगमोहन संस्कृति मंत्री थे। राज्य में दिग्विजयसिंह की सरकार की दूसरी पारी थी। हिंदू जागरण मंच ने भोजशाला का मसला गरमा दिया था। तर्क गले उतरने वाला था कि साल में 52 दिन उनके लिए, सिर्फ एक दिन हमारे लिए क्यों?
उस दिन पुलिस के जवान ने मुझे रोककर अपनी ड्यूटी निभाई। मैं मुख्य द्वार से ही भीतर एक गहरी निगाह से झांककर देखा। सामने ऊंचे स्तंभों की एक श्रृंखला नजर आई। दरवाजे के पत्थरों को गौर से देखा। कोई नेत्रहीन भी इन पत्थरों को टटोलकर बता सकता था कि मंदिर है या मस्जिद! जो भी हो अब यह एक राजनीतिक उलझन थी। मैंने अखबार और टीवी में रहते हुए दो मौकों पर तब कवर किया, जब वंसत पंचमी के दिन शुक्रवार भी आया। सरकार के सामने संकट यह खड़ा हुआ कि नमाज कब हो, पूजा कब हो। पूजा की शानदार तैयारियों में जुटे हिंदू जागरण मंच काे यह गवारा नहीं था कि एक दिन के लिए सरस्वती के प्राचीन मंदिर में उनकी मौजूदगी में कोई आए।
उधर आम मुसलमानों को कोई लेना-देना नहीं था मगर सरकार के लिए चुनौती थी कि नमाज भी हुई, यह दुनिया को दिखाए। तो सरकारी विभागों में कार्यरत कुछ मुस्लिम कर्मचारियों को दोपहर के वक्त कड़ी सुरक्षा में लाकर ऊपर छत पर नमाज की मुद्रा में खड़ा करके तस्वीरें प्रचारित कर दी गईं कि बिना किसी रोकटोक के नमाज हो गई। उस दौरान पूजा रोक दी गई। गुस्साए हिंदुओं पर थोड़ी-बहुत लाठियां भांज दी गईं। आंसू गैस के गोले छोड़ दिए गए। शाम ढलते-ढलते सबने राहत की सांस ली कि सब कुछ निपट गया। ऐसा कांग्रेेस के समय भी हुआ और बीजेपी के शासन में भी!
यह प्रसंग मुझे याद इसलिए आया कि कल भोपाल की प्रशासन अकादमी में राजा भोज के स्थापत्य पर एक अंतरराष्ट्रीय कॉन्फ्रेंस में जाने का मौका मिला। एक सत्र की अध्यक्षता करते हुए मैंने उस एक साल को याद किया जब मैंने अपने सारे साप्ताहिक अवकाश राजा भोज के अध्ययन में इस्तेमाल किए थे। मैंने इंदौर के पुरातत्व संग्रहालय और नईदुनिया की लाइब्रेरी में मौजूद किताबें घोंटी। परमारों पर गहरा शोध करने वाले डॉ. शशिकांत भट्‌ट के साथ कई बैठकें कीं। दुनिया एक भोजशाला को जानती है और वो भी विवादों की वजह से। इस रिसर्च के दौरान मैं बाकी दो भोजशालाओं में भी गया।
पहली थी उज्जैन में, दूसरी धार में और तीसरी मांडू में। उज्जैन परमारों की पहली राजधानी थी, राजा भोज जिसे धार लेकर गए। राजा भोज के समय बनी ये शानदार इमारतें संस्कृत के स्कूल थे, जहां सरस्वती की प्रतिमाएं भी स्थापित थीं। भोज सिर्फ एक राजा नहीं थे। वे कई विषयों के गहन ज्ञाता और विद्वान भी थे। व्याकरण, भाषा, साहित्य, नाटक, नृत्य, संगीत, जल प्रबंधन, वास्तु, नगर नियोजन, मंदिर निर्माण, स्थापत्य जैसे तमाम विषयों के विद्वानों की एक बड़ी प्रसिद्ध परिषद थी, जिसमें शामिल होने लिए कश्मीर तक के विद्वानों में होड़ रहती थी। भोज के समय इन इमारतों के नाम भोजशाला नहीं थे। वे आज के शासकों की तरह छोटे दिल के नहीं थे कि अपने नाम से एक स्कूल बनाएंगे, किसी चौराहे पर मूर्ति लगवाएंगे या शासन की योजनाएं चलाएंगे। भोज के समय इनके नाम थे-सरस्वती कंठाभरण। इस नाम के दो ग्रंथ भी उन्होंने लिखे थे और यह उनकी उपाधि भी थी।
उज्जैन, धार और मांडू तीनों जगह के ये भोजकालीन भव्य स्थान 1401 में दिलावर खां गौरी ने एक साथ एक जैसे स्ट्रक्चर में बदले। सरस्वती कंठाभरण के मलबे से ही चारदीवारी में घिरे एक जैसे परिसर बने, जिन्हें अब आज भोजशाला कहते हैं। उज्जैन में वह अनंतपेठ मोहल्ले में आज बिना नींव की मस्जिद है। मांडू के शाही परिसर में दिलावर खां गौरी का मकबरा अौर धार के बारे में सब जानते ही हैं। धार राजा भोज की प्रिय धारा नगरी है। भोज के समय इसके वैभव के कमाल के विवरण हैं। बाद की सदियों में जो कुछ हुआ, वह भी मालवा की घायल याददाश्त में दर्ज है।
परमारों के आखिरी राजा महलकदेव हैं, जिनके समय दिल्ली के सुलतान इल्तुतमिश ने मालवा पर धावा बोला था। तब इस इलाके के सारे मंदिर मिट्‌टी में मिला दिए गए। उज्जैन में महाकाल का मंदिर भी पहली बार तभी तोड़ा गया। विदिशा में विजय मंदिर मलबे में बदल गया। गांव-गांव में जो खंडित मंदिर, टूटी-फूटी मूर्तियां आज तक अपने जख्मों का परिचय देती हुई बाहर आती हैं तो यह उन्हीं सात सदियों की कहानियां कहती हैं, जब ऐसे अंधड़ हर तरफ चल रहे थे। धार में माेहम्मद बिन तुगलक, मलिक काफूर, अकबर, जहांगीर के आने के जिक्र हैं। दिल्ली के बादशाहों-सुलतानों की दक्षिण में मचाई लूटमार के रास्ते पर भोज की धारा नगरी थी। आज देश के दूसरे तमाम बदहाल शहरों जैसा एक और शहर,जिसका अपने समृद्ध अतीत से कोई संबंध शेष नहीं है। दिलावर खां गौरी मालवा का पहला स्वतंत्र सुलतान बना। यह बाबर के भारत आने के सवा सौ साल पहले का वाकया है। हाेशंग शाह गौरी उसका उत्तराधिकारी था, जिसके नाम से होशंगाबाद है और जिसने भोपाल में भोजपुर के पास बने भोज के बांध को तुड़वा डाला था।
हमें 70 साल में हुए राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के नाम भी क्रम से याद नहीं होंगे मगर एक हजार साल के इस पार राजा भोज अब तक हमारी स्मृतियों में जगमगा रहे हैं। क्यों? अगर वे सिर्फ एक राजा होते तो किसे याद रहते? हजारों राजा, सुलतान, बादशाह और नवाब इतिहास के कूड़ेदान में हैं। भोज ने एक आदर्श शासक की तरह हर तरह की कलाओं को अपने राज्य में विकसित किया। गुण संपन्न लोगों को अपने आसपास सम्मान से जगह दी। शानदार निर्माण कराए। किताबें लिखीं। सरस्वती कंठाभरण जैसे ज्ञान के केंद्र नई पीढ़ी को गढ़ने के लिए स्थापित किए। एक छोटी सी जिंदगी और उसमें भी बहुत छोटे शासन के अवसर को इस तरह से जिया कि उनके समय का वैभव सब समाप्त हो गया, मगर वे अब भी आदर से स्मरण किए जाते हैं। हमारे आज के शासक अगर उनसे कोई एक बात भी सीख लें तो बहुत कुछ यादगार कर सकते हैं।
कभी भारतीय ज्ञान परंपरा का सक्रिय केंद्र रही धार की भोजशाला बाद की सदियों में भारत भर की राख और धुएं की कहानी का एक सुलगता हुआ हिस्सा बनकर हमारे सामने है...
#rajabhoj #vijaymanohartiwari #internationalconference
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भोपाल की प्रशासन अकादमी में तीन दिन की एक कॉन्फ्रेंस राजा भोज के स्थापत्य और परंपरागत ज्ञान पर हुई। दूसरे दिन एक सत्र में मुझे भी जाने का मौका मिला। भोज के रचना संसार के कुछ जानकारों को सुना। मगर कई बड़े नाम यहां नदारद भी थे। जैसे-भगवतीलाल राजपुरोहित, केके चक्रवर्ती, रेवाशंकर द्विवेदी, आरके शर्मा, डॉ. एसके भट्‌ट और डॉ. कपिल तिवारी। लगा कि बहुत जल्दबाजी का आयोजन था वर्ना भोज के बहुआयामी व्यक्तित्व और बेमिसाल कृतित्व पर जीवन के 30-40 साल लगाने वाले ये जाने-माने नाम कैसे छूट सकते थे? इतिहासकार डॉ. रहमान अली और पुरातत्वविद ओपी मिश्रा को भी ताबड़तोड़ बाद में बुलाया गया। बहरहाल राजा भोज की भोजशालाओं पर मैंने भी काम किया था। कुछ यादें ताजा करने का मौका मिला।
24 दिसंबर 2017
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ए. राजा के साथ एक दिन

#ARAJA #VIJAYMANOHARTIWARI #2G
वकालत तक पढ़ाई करने वाले अनुसूचित जाति के डीएमके के एक युवा सांसद ए. राजा यूपीए सरकार में टेलीकाॅम मंत्री बने थे और उनके ही समय टू-जी स्पेक्ट्रम का आवंटन हुआ था। वे नीलगिरि सीट से दूसरी बार चुनाव मैदान में थे। यह एक लाख 76 हजार करोड़ के घोटाले के केंद्रीय पात्र की चुनावी सीट थी, जहां से बीजेपी उम्मीदवार एस. गुरुमूर्ति अपना नामांकन खारिज करा चुके थे। चर्चाएं थीं कि मजबूत स्थिति के बावजूद वे राजा के साथ अपना मैच फिक्स कर चुके थे और चुनावी संघर्ष में पडक़र एक महीने बाद नतीजों का इंतजार करने की बजाए उन्होंने अपने लिए फौरन फायदे के विकल्प को चुना था।
मैं मदुरई से निकलकर एक शाम नीलगिरि के लिए रवाना हुआ। सुबह के करीब मट्टपलायम नाम के शहर में पहुंचा, जहां से ऊटी के पहाड़ शुरू होते हैं। गर्मी भयावह थी। मैं बुरी तरह थका हुआ था। दोपहर तक होटल में सोता रहा। राजा अगले दिन यहीं से अपना चुनावी अभियान शुरू करने वाले थे। राजा के निजी सहायक रोच को मैंने कई बार फोन किए। आखिरकार दोपहर बाद मैं ऊटी रोड पर उस बंगले में जा पहुंचा, जहां से नीलगिरि के सांसद का दफ्तर चलता था। कुछ कार्यकर्ता वहां मौजूद थे। किसी को अटैंड करने के लिए रोच के सिवा कोई नहीं था। रोच बाहर थे। अब की बार उसने फोन पर मुझे रात दस बजे बुलाया।
तब तक मैं कई स्थानीय लोगों से मिला। टू-जी का प्रसाद पता नहीं किस-किसको किस-किस ढंग से बटा था। जैसे मट्टपलायम के मेन रोड पर आर्य भवन रेस्टॉरेंट में उस रात राजा के बंगले पर लौटने के पहले मैं मसाला डोसा खा रहा था। गले में काले-लाल दुपट्टे डाले आसपास मौजूद डीएमके कार्यकर्ताओं पर मेरी निगाह गई। मैंने उनसे बातचीत शुरू की। मैं राजा के बारे में जानना चाहता था। पेशे से टेलर एक शख्स से मुझे मिलवाया गया। यह रवि चंद्रन था। उसके बीवी-बच्चे पिछले साल भवानी नदी की बाढ़ में बह गए थे। लाशें मिली थीं। वह रोता-बिलखता एक दिन राजा के सामने पहुंचा। डीएमके कार्यकर्ताओं ने मुझे बड़े कृतज्ञ अंदाज में कहा, ‘राजा ने एक लाख रुपए की मदद दी।’ रवि चंद्रन इस चुनाव में कपड़ों की सिलाई छोडक़र राजा की ध्वजा थामे था।
डोसा खत्म करके मैं तय वक्त से कुछ पहले ही उस बंगले पर पहुंच गया। इंतजार करते-करते रात के साढ़े ग्यारह बज गए थे। मुझे सिर्फ राजा का अगले दिन का प्रोग्राम चाहिए था और उनसे इंटरव्यू के लिए थोड़ा सा वक्त। पहले रोच कहते रहे कि वे रास्ते में हैं। पहुंचने में थोड़ी देर लगेगी। कुछ स्थानीय लोगों से ही पता चला कि राजा पास के ही किसी होटल में हैं या आने वाले हैं। रोच वहीं होंगे। मैं असमंजस में था। आज का दिन बीत गया था और मेरे हाथ कुछ नहीं लगा था।
मुझे लगा कि मैं अपना वक्त बरबाद कर रहा हूं। मैं अपने होटल लौट आया। मगर रोच का कोई जवाब नहीं आया। शायद बंगले पर लौटने के बाद उसने यह जहमत भी नहीं की कि कौन बार-बार फोन करते हुए बंगले पर उसका इंतजार कर रहा था, जो बाकायदा वक्त लेकर आया था। नेताओं के साथ खासतौर से चुनावी मौसम में यह कोई नई चीज नहीं थी। मैंने इसे सामान्य ढंग से लिया। वैसे भी हिंदी के इलाके से आए किसी पत्रकार में दूर दक्षिण के एक प्रत्याशी के स्टाफ को कितनी दिलचस्पी होती? वह क्यों मेरी ज्यादा परवाह करता? खैर मैंने अगली सुबह जल्दी लौटने का फैसला किया ताकि राजा की मुहिम के वक्त सीधे रूबरू हो सकूं।
मैं सुबह आठ बजे फिर पहुंचा। गांवों से आए तीस-चालीस कार्यकर्ता ही वहां दिखाई दिए। उन्हें कतार से बैठने के लिए कहा जा रहा था। थोड़े ही समय में मुझे अंदाजा हो गया कि राजा का अभियान यहां से नहीं किसी और जगह से शुरू हो रहा होगा। रोच का मोबाइल स्विच ऑफ था। वह उस वक्त बंगले में ही कहीं सो रहे थे। वे रात को देर से लौटे थे। अब मेरी कोई दिलचस्पी रोच में नहीं थी। मैं तो उनके बॉस से मिलने आया था। उसी वक्त वहां मौजूद एक कार्यकर्ता ने मुझे बताया कि आपको रोच के पीए से बात करना चाहिए।
‘आप कौन?’ मैं बुरी तरह भन्नाया हुआ था।
‘मैं पेरम्बलूर में राजा का सहायक हूं। निजाम।’ उसने एक महंगे मोबाइल पर खुद को व्यस्त रखते हुए कहा।
‘रोच के पीए कौन हैं?’
‘अशरफ। आप रुकिए मैं उनका नंबर देता हूं।’ वह बोला।
मुझे बहुत गुस्सा आया। मेरे पूरे चौबीस घंटे बरबाद हुए थे। मैं राजा से मिलने आया था। राजा के पीए के पीए से मिलने नहीं। मैंने निजाम से गुजारिश की कि वह मेहरबानी करके मुझे यह बता दे कि राजा का अभियान कहां से शुरू होने वाला है और उन तक मेरा संदेश पहुंचा दे। मगर वह राजी नहीं हुआ, क्योंकि मैं पहले ही रोच के संपर्क में जो था। अब मेरे लिए जो कुछ भी करना था, रोच साहब को ही करना था। अशरफ का नंबर देकर वह चला गया। मैंने वह नंबर वहीं फाडक़र फेंक दिया। किसी अशरफ में मेरी रुचि नहीं थी।
किसी और से मैंने पता किया कि राजा हैं कहां। नाम के राजा और टू-जी के महाराजा ब्लैक थंडर नाम के एक वैभवशाली रिजॉर्ट में थे, जो उनके बंगले से करीब दो किलोमीटर के फासले पर ऊटी जाने वाली सडक़के दाहिनी तरफ घने जंगल में था। केले और नारियल के पेड़ों की हरियाली से घिरी सैलानियों की एक सबसे शानदार रिहाइश। मैंने रोच को मन ही मन हजार गालियां दीं और किसी को बताए या किसी से पूछे बिना सीधे ब्लैक थंडर के उस ब्लॉक के सामने जा पहुंचा, जहां सफेद लुंगी और शर्ट पहने नेता टाइप लोगों की गहमागहमी थी। कई बड़ी गाडिय़ां खड़ी थीं और सुरक्षा के लिए कुछ जवान भी। आधे घंटे तक मैं वहीं तफरीह करते हुए हर हलचल को समझने की कोशिश करता रहा।
मैं बिल्कुल सही जगह पर आया था। राजा यहीं सुईट नंबर एक में थे। यह उन्हीं के लिए रिजर्व था। अक्सर जब मुश्किल होती है तो संयोग भी गजब के होते हैं। यहां का इंतजार अखरने वाला नहीं था, क्योंकि मैं अपने लक्ष्य के निकट था। ऐसी जगह किसी भी पल आपको हेडलाइन हासिल हो सकती है। जब पौन घंटे हुए तो दो शख्स मेरे पास खुश होते हुए आए। इन्होंने मुझे बंगले पर अपने किसी सीनियर से बातचीत करते हुए देखा होगा। मैं फौरन उनसे घुलमिल गया। मैंने यहां आने का अपना मकसद उन्हें बताया। वे तमिल के अलावा टूटी-फूटी अंग्रेजी जानते थे। मेरा काम चल गया था। उन्होंने मुझे वहीं लॉन में टहल रहे एक दूसरे शख्स से मिलवाया, जो उस वक्त मोबाइल कान से लगाए था। जब तक वह फ्री हुआ तब तक मैं उन्हीं से बातों ही बातों में उसकी जड़ों में जा चुका था। यह रघु था। पेरम्बलूर का रहना वाला। राजा का नजदीकी रिश्तेदार। इस शख्स की जिम्मेदारी थी प्रचार के दौरान राजा के ठीक आगे वाली गाड़ी में रहना। उनकी ताजा तस्वीरें नीलगिरि एमपी की फेस बुक प्रोफाइल में दिन भर अपडेट करते रहना।
वह फ्री हुआ तो मैंने नए सिरे से अपना परिचय उसे दिया। मैंने इस दौरान हर शख्स से अपनी मुलाकात में यह फीड बैक जरूर दिया कि राजा के समर्थन में माहौल बहुत अच्छा है। लोग यहां टू-जी को नहीं राजा की रहमतों को याद करते हैं। माहौल पक्ष में है। यह सही भी था। यह अनुकूल फीड बैक मुझे उनसे जोडऩे में मददगार साबित हो रहा था। रघु ने मेरी मुश्किल आसान करते हुए सुझाया कि आप थोड़ा सा इंतजार कर लें। राजा अभी निकलने ही वाले हैं। आप यहीं रोक लेना। वह बात करेंगे। अब कहीं जाकर मुझे तसल्ली हुई। यह काम इतना मुश्किल भी नहीं था। ऐसे पीए और ऐसा स्टाफ अक्सर कबाड़ा करने का काम ही ज्यादा करता है। अल्लाह तो अद्भुत है मगर कम्बख्त मुल्लों का दुनिया में कोई इलाज नहीं है!
अब राजा से बात न भी होती तो मैं उनकी चुनावी मुहिम में तो शामिल होचुका था। मैं सुईट के करीब जा पहुंचा। भीतर राजा दिखाई नहीं दे रहे थे मगर हॉल में आठ-दस लोग हाथ बांधे शायद उन्हीं के सामने खड़े थे। एक-एक कर कुछ कह रहे थे। इतने ही लोग बाहर इंतजार कर रहे थे। ये सब डीएमके के आम कार्यकर्ता या पदाधिकारी कम और राजा के कुशल चुनाव प्रबंधक ज्यादा लग रहे थे। अचानक झकास सफेद कडक़ कलफदार लुंगी और पूरी बांह की सफेद शर्ट पहने राजा प्रकट हुए। सबसे पहले उन पांच-छह लोगों से मिले, जो दरवाजे के बाहर उनके इंतजार में थे। दस-पांच सेकंड में उनसे बात करते हुए आगे बढ़े।
मैंने अपना हाथ उनकी तरफ बढ़ाया और अपने परिचय के साथ आने का मकसद बताया, ‘मैं सिर्फ आपकी वजह से इस इलाके में आया हूं। दो दिन में कई लोगों से मिला हूं। सोचा कि आपका प्रचार भी देख लिया जाए। अगर मुमकिन हो तो बात करना चाहता हूं। हम रास्ते में चलते हुए भी बात कर सकते हैं।’
मैंने उन्हें कुछ कहने या टालने का कोई मौका दिए बिना अपनी पूरी बात कह दी थी। वह मुझे घूर रहे थे। तब तक लॉन में टहल रहे कुछ और लोग उनके पास आ गए। राजा ने उनसे मुखातिब होने के पहले मुझसे कहा, ‘प्लीज कम विथ मी इन माई व्हीकल। वी विल टॉक ऑन द वे।’
राजा बाहर उनसे बात करने लगे तब तक बिना एक पल गंवाए मैं उनकी सफेद मोंटेरों की पिछली सीट पर जा बैठा। यहां न निजाम कहीं नजर आ रहा था, न रोच। सीधे राजा सामने थे। राजा के पास अपनी राम कहानी सुनाने के लिए काफी कुछ था। सबसे पहले वे कांग्रेस पर बरसे। खुद को बेकसूर बताया। यहां तक कि टू-जी नाम के किसी घोटाले के अस्तित्व से ही इंकार किया। उसे बिल्कुल ही कपोल-कल्पित बताया। मैं चुपचाप उनकी बात सुनता और डायरी में नोट करता रहा।
‘हर फैसला सरकार की पॉलिसी के मुताबिक हुआ था। हर चीज की जानकारी प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री को थी। कोई घोटाला है ही नहीं। मुझे तो टेलीकॉम क्षेत्र में क्रांति के लिए याद किया जाना चाहिए था। मैंने मोबाइल कॉल्स की दरें इतनी कम करा दीं कि आज भारत के हर छोटे आदमी के हाथ में भी मोबाइल फोन है।’
‘यूपीए एक रीढ़विहीन सरकार है, जो अब भूतकाल में होने जा रही है। वे अपने एक केबिनेट मिनिस्टर को भी नहीं बचा सके। मैंने एक ऐसे घोटाले के नाम पर 15 बेशकीमती महीने जेल में काटे, जिसका असलियत में कोई वजूद ही नहीं था।’
‘फिर वह सीबीआई, इनकम टैक्स, सीएजी, जांचें, रिपोर्टें, सुप्रीम कोर्ट...यह सब क्या था?’
‘देश में व्यवस्था के नाम पर अराजकता है। सारी एजेंसियां अपनी मनमानी के लिए आजाद हैं। किसी का दूसरे पर कोई काबू नहीं है। सीबीआई का अंदाजा है कि घोटाला 33 हजार करोड़ का है। सीएजी के विचार हैं कि एक लाख 76 हजार करोड़ का है। एक आंकड़े पर ही कोई एकमत नहीं है। इन दोनों के आधार पर सुप्रीम कोर्ट एक तीसरा ही नजरिया तय करता है। हकीकत तो यह है कि यहां किसी के साथ कुछ भी हो सकता है।’
‘अगर ऐसा ही है तो अब आपने क्या तय किया?’
‘कोई नेता ऐसी हिम्मत नहीं दिखा सकता। मैंने अपने वोटरों के बीच एक पम्फलेट जारी किया है। पूरा केस उनके सामने पेश कर दिया है। मैं अपना फैसला उनसे ही लूंगा।’ तमिल में प्रकाशित वह पम्फलेट मेरे पास था। उसके कवर पर लिखा था, ‘आपकी अदालत में मेरा फैसला।’ इसके ठीक नीचे एक बड़ी तस्वीर उस वक्त की थी, जब ग्रे कलर के सफारी सूट में राजा सीबीआई अफसरों से घिरे गिरफ्तारी के बाद जेल ले जाए जा रहे थे। इसे किसी शहादत की तरह पेश किया गया था।
‘आप अब कांग्रेस को कोस रहे हैं। उनसे आपका काफी पुराना गठबंधन था। उसका क्या?’
राजा ने वकालत तक पढ़ाई की थी। उनके पास हर सवाल की काट थी, ‘मान लीजिए आप मेरे दोस्त हैं। आपमें कोई ऐब नहीं है। अचानक आप शराब पीना शुरू कर देते हैं। हमारी दोस्ती खत्म हो जाएगी। कांग्रेस से हमारा संबंध मुद्दों पर आधारित था।’
मुद्दों पर आधारित। सिद्धांतों का सवाल। उसूलों की लड़ाई। न्याय की बात। सम्मान का प्रश्न। भारतीय राजनेता इन शब्दों को इस हद तक निचोड़ चुके थे कि अब इनमें कोई रस बचा नही था। वे इन्हें इतना बेमतलब बना चुके थे कि खुद बोलते हुए उन्हें भी इस बात का भरपूर अहसास होता होगा कि इन खोखली बातों में कोई दम नहीं रह गया है। इन्हें बस ऐसे ही मौकों पर मंत्रों की तरह दोहराना भर होता था। वे यह भी जानते थे कि सामने कोई मूर्ख नहीं है। मगर सामने वाले भी समझते थे कि इस मौके पर दोहराने के लिए इनके पास कोई दूसरे शब्द ही नहीं है। राजा यही कर रहे थे।
बीसेक मिनट बाद हम एक गांव में जा पहुंचे, जहां राजा के स्वागत में डीएमके के काले-लाल रंग के झंडों जैसे कपड़ों से सजी एक खुली जीप तैयार थी। पहाड़ी गांवों की तरफ आज यहां से राजा की चुनावी मुहिम शुरू होनी थी। मोंटेरो से उतरने के पहले अपनी सीट पर पलटकर राजा ने मुझसे पूछा कि आप यहां काफी लोगों से मिले होंगे। कई बातें हुई होंगी। लोग मेरे बारे में क्या कहते हैं?
मैंने मुस्कराकर उनसे कहा कि आपकी पिछली जीत का फर्क 85 हजार वोटों का है। इस अंतर को पाटना आपके प्रतिद्वंद्वी के लिए आसान नहीं होगा। इसमें कोई दो मत नहीं कि शहरी वोटरों में टू-जी को लेकर आपके प्रति कुछ हिचक है मगर गरीब तबके के लोगों को आपकी दी हुई हर मदद याद है और इसके कई किस्से मैंने सुने हैं। मेरी बात सुनकर उन्हें तसल्ली हुई और उनके दो सहायकों को भी जो पिछली सीट पर मेरे दोनों तरफ बैठे हुए हमारी बातचीत को सुन रहे थे। मगर वे सिर्फ तमिल जानते थे। इसलिए समझे नहीं कि बात हुई क्या थी। मगर बॉस खुश होकर गाड़ी से उतरा था सो उन्हें लगा कि हमारी यह बातचीत बड़ी मजेदार थी। मैं राजा के उस दिन के डे-प्लान में अचानक दाखिल हुआ था। राजा के दोनों सहयोगी शायद इस भ्रम में भी थे कि राजा और मैं पुराने परिचित हैं। जो भी हो उस दिन बंगले से कूच करने का मेरा फैसला सही समय पर लिया गया सही फैसला था वर्ना एक और दिन का बरबाद होना तय था।
आज का दिन शुरू करने के पहले यह एक तरह से राजा के लिए भी शुभ समाचार था कि उनके वोटरों का रुझान उनके प्रति है। वे झटपट विदा हुए। मैंने उनसे अगली बार दिल्ली में मिलने का वादा किया और हम दोनों कार से बाहर निकल आए। कुछ लोगों ने उन्हें फूल मालाएं पहनाईं। राजा जीप पर सवार हुए। तमिल में सबको वणक्कम के साथ संक्षिप्त भाषण दिया। टू-जी के लिए खुद को बेकसूर बताया। वे आगे बढ़ गए।
मैं मट्टपलायम अपने होटल में लौट आया। अब मुझे उस बेरौनक बंगले पर जाने की कोई जरूरत नहीं थी, जहां रोच आराम फरमा रहे थे। मुझे पीए के पीए से भी कोई लेना-देना नहीं था।
‘भाड़ में जाओ तुम।’ मैंने बंगले के सामने से गुजरते हुए मन में कहा। चालीस डिग्री की गर्मी में मैंने दो यादगार दिन ऊटी में बिताए। मट्टपलायम से मैं तुरंत ही निकल गया था। देर शाम जब कूनूर होकर ऊटी पहुंचा तो वहां ठंडक थी। लोग स्वेटर में घूम रहे थे। ईएमएस मयूरा होटल के मैनेजर प्रशांत ने मुझे ऊटी के एक होटल मालिक सुंदर का नंबर दिया था, जहां से देखने लायक सारे ठिकाने आसपास ही थे। मैं वहीं रुका। यहां की चहल-पहल देख मुझे पिछले साल इन्हीं दिनों की उत्तराखंड यात्रा की यादें ताजा हुईं, जब चार धाम यात्रा शुरू हुई थी और गांव-कस्बों में सारे होटल धुल-पुतकर दुल्हन की तरह सजकर तैयार थे। ऊटी में होटल कम्फर्ट इन की दीवारें, दरवाजे और कमरों से भी ताजे ऑइल पेंट की महक गई नहीं थी। सैलानियों का सीजन शुरू हो चुका था। अब दो महीनों के लिए ऊटी में हर चीज की कीमतें आसमान पर थीं।
(पुस्तक-भारत की खोज में मेरे पांच साल-से)
#vijaymanohartiwari
22 दिसंबर 2017
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मेरे देश के दो बड़े स्पीडब्रेकर


दो बेडरूम के फ्लैट में चार सदस्य बढ़कर चालीस हो जाएं तो उस घर की दशा क्या होगी? अकेली टेक्नोलॉजी के बूते पर ऐसे घर की कितनी समस्याओं के हल हो सकेंगे जबकि घर में लोग लगातार बढ़ ही रहे हों। भारत की स्थिति कुछ ऐसी ही है। सुनने में यह बात कड़वी लगे मगर हम सवा सौ कराेड़ के गर्व नहीं, शर्म के विषय हैं। नंदन नीलेकणी, नारायणमूर्ति, पित्रोदा जैसी हस्तियों को आबादी और जातिगत आरक्षण जैसे सबसे विकट स्पीडब्रेकर पर खुलकर बोलने की जरूरत है। राजनीतिक दलों की औकात नहीं...
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#VIJAYMANOHARTIWARI
इन्फोसिस के सह-संस्थापक नंदन नीलेकणी भोपाल आए। उनका भाषण भारत की अर्थव्यवस्था के मजबूत भविष्य की संभावनाओं से भरा हुआ था। सबसे पहले उन्होंने क्या कहा, यह देखें। वे बाेले-इस दौर में डेटा ही इकाेनॉमी का ऑयल है। भारत आर्थिक रूप से समृद्ध होने के पहले डेटा में समृद्ध होने जा रहा है। जबकि पश्चिम के देशों में आर्थिक समृद्धि पहले आई, डेटा बाद में। भारत की कारोबारी समृद्धि में डेटा अहम भूमिका निभाने वाला है। कैशलेस अर्थव्यवस्था और जीएसटी स्थिर होने पर छोटे कारोबारों में बड़े बदलाव दिखाई देंगे। डेटा का इस्तेमाल शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं में जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए होगा। तब भारत एक चमकदार भविष्य में कदम रखेगा। बड़ी आबादी हमारी एक चुनौती है। कम समय में समस्याओं के टिकाऊ हल चाहिए। हम टेक्नालॉजी की मदद से यह हासिल कर सकते हैं।
रोबोट टेक्नोलॉजी पर : साल दर साल जॉब के नेचर बदल रहे हैं। पुरानी तरीके की नौकरियां खत्म हो रही हैं। नए तरह के अवसर पैदा हो रहे हैं। एक समय चीन मैन्युफैक्चर में सुपर पावर बन गया। आज यह सेक्टर ऑटोमेशन में जा रहा है। जर्मन कंपनी एडिडास में कर्मचारी कम बचे हैं, रोबोट सारा काम संभाल रहे हैं। दुनिया के इन बदलावों के मद्देनजर भारत के सामने चुनौती है कि वह अपने यहां किस तरह के जॉब पैदा करे। अब दस तरह के स्किल आपके पास होना ही चाहिए। लाइफ लांग लर्निंग हमें अपनानी होगी। हफ्ते में 15 मिनट कुछ नया सीखने के लिए दें। इस लिहाज से हमारे सामने तीन चुनौतियां हैं-हरेक भारतीय कैसे शिक्षित हो, कैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा हो और लाइफ लांग लर्निंग।
शिक्षित होने की शर्त: नीलेकणी के 18 मिनट के भाषण का यह सबसे जरूरी हिस्सा था। जैसे इश्तहारों में शर्तेँ लागू सबसे नीचे स्टार लगाकर टिकाया जाता है। उन्होंने कहा- समृद्ध इकोनॉमी वाले जापान, चीन और कोरिया जैसे देश शिक्षित हैं। इसलिए ग्रोथ हासिल की। भारत में सबको शिक्षित किए बिना हम यह लक्ष्य हासिल नहीं कर सकते। सब बच्चे स्कूल जाएं, लिखना-पढ़ना सीखें। उन्हें स्मार्ट फोन, कम्प्यूटर और टीवी जैसे डिवाइस इस्तेमाल की आदत हो। भारत में 350 मिलियन लोगों के पास स्मार्ट फोन आ चुके हैं। भारत एक बड़ा देश है। हमें हर तरह के तकनीकी प्लेटफॉर्म बनाने होंगे। शिक्षा में सुधार के लिए डिजीटल कनेक्टिविटी के साथ कोर्स के विश्वस्तरीय आॅनलाइन कंटेंट जरूरी हैं। यह वैश्विक साक्षरता को सुधारने में मददगार होंगे।
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मेरा मत:
#NandanNilekani #NarayanMurthi #SamPitroda #SundarPichai जैसी हस्तियां भारत की सबसे बड़ी समस्याओं पर खुलकर बात कर सकती हैं। वे बेतहाशा बढ़ती आबादी को कंट्रोल करने के लिए सरकारों को प्रेरित करें और बिना किसी लागलपेट के जातिगत आधार पर पत्थर की लकीर बन चुके आरक्षण की भी सत्य समीक्षा करें। मेरा स्पष्ट मत है कि ये दो मसले भारत की आर्थिक तरक्की से गहरा ताल्लुक रखते हैं।
हम बड़े गर्व से कहते हैं कि हम सवा सौ करोड़ के मुल्क हैं। लगातार तेजी से बढ़ रही इस भीड़ ने इन्फ्रास्ट्रक्चर का कचूमर निकाला हुआ है। रेलवे प्लेटफार्म, ट्रेनें, बस अड्‌डे, बसें, सड़कें, स्कूल, अस्पताल लबालब भरे हैं। शहरों के पास कोई मास्टर प्लान नहीं हैं। वे बस फैलते जा रहे हैं। खेती का रकबा घट रहा है। नदियां बरबाद हो चुकी हैं। हरियाली दम तोड़ रही है। तीन टुकड़े होने के बाद बचा-खुचा यह देश अधिकतम साठ-सत्तर करोड़ की जनसंख्या सीमा में ही होना चाहिए था। आज हम दो गुना बोझ ढो रहे हैं। हम सवा सौ करोड़ के गर्व नहीं, शर्म हैं!! हर साल डेढ़ लाख लोग सड़क हादसों में ही मर जाते हैं। यह एक छोटे शहर की आबादी के बराबर है। कीड़ों-मकोड़ों की तरह बढ़ती, जीती-मरती आबादी में सिर ऊंचा करने की भला क्या बात है?
अकेले संजय गांधी आजाद भारत में एकमात्र ऐसे नेता हुए, जिन्होंने भारत के सीमित संसाधनों पर तेजी से बढ़ रहे आबादी के बोझ को सबसे पहले सत्तर के दशक की शुरुआत में ही महसूस किया और सरकारी नीतियों में परिवार नियोजन के टारगेट जोड़े। जैसा कि हमेशा होता है भारत में कोई भी अच्छी शुरुआत जल्दी ही पचड़ों में पड़कर अपनी गति को प्राप्त हो जाती है। निचले स्तर पर जनसंख्या को काबू में लाने का क्रियान्वयन सरकारी मशीनरी ने जिस फूहड़ ढंग से किया, आज चालीस साल बाद कोई भी ताकतवर राजनीतिक दल खुलकर इस मसले पर बात न करने में ही अपनी भलाई समझता है।
दूसरा, #reservation जातिगत आरक्षण। देश में हर कोई जानता है कि अब यह गंदी वोट बैंक की राजनीति का एक बड़ा मोहरा है। जातियों काे खुश करने का सबसे सस्ता और घातक साधन। इसने भारत की प्रतिभा को कुंठित किया है और सरकारी सेक्टर में नाकाबिलों की एक ऐसी फौज खड़ी कर दी है, जिससे देश को क्या मिला, इसकी समीक्षा होनी चाहिए। मैं आरक्षण के नाम पर अनुकंपा नियुक्तियों के खिलाफ और हर तबके के आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को अाधुनिक मुफ्त शिक्षा का हिमायती हूं। वे किसी भी जाति के हों। उन्हें देश की हर प्रतियोगी परीक्षा में दूसरे सबल बच्चों के बराबर खड़ा किया जाना चाहिए। लेकिन किसी भी सेवा में चयन का एकमात्र आधार योग्यता ही होना चाहिए। मेरिट और सिर्फ मेरिट। आरक्षण ने बेहिसाब अनुकंपा नियुक्तियां दीं हैं और पदों पर आए ऐसे लोग अपने ही समाज से कटकर नव सवर्ण बन गए। उनके ऊंचे पदों पर जाने से उनकी बिरादरी का कौड़ी का भला नहीं हुआ। वे अपने गांव के ही अपनी जाति के लोगों को बगल में नहीं बिठाते। हिकारत से देखते हैं। उनकी तीसरी पीढ़ी आरक्षण की मलाई मार रही है।
नीलेकणी अगर भारत को सचमुच तेजी से गतिशील अर्थव्यवस्था के भविष्य के रूप मेें देखते हैं तो टेक्नोलॉजी जितनी जरूरी है, उतने ही सिस्टम के ये सबसे बड़े स्पीडब्रेकर भी उनके ध्यान में हाेने चाहिए, जिन पर सबने मौन व्रत धारण किया हुआ है। इन मसलों पर खुलकर बोलने का समय है। उनकी आवाज में असर है, जो ऊंचाई पर बैठे उन नीति निर्धारकों के लिए भी ठीक से सुनाई देती है, जो ऊंचे पदों पर जाकर ऊंचा सुनने के आदी हैं। जमीनी सच से अनजान, जहां असली भारत बिलबिलाती भीड़ की शक्ल ले रहा है और प्रतिभाओं को हमने कुंठित होकर मरने या टिके रहने के लिए उनके चारों तरफ अंतहीन संघर्षपूर्ण हालात पैदा कर रखे हैं!
#vijaymanohartiwari
2 दिसंबर 2017
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सपनों के हत्यारे

#VIJAYMANOHARTIWARI
मध्यप्रदेश में व्यापमं महाघोटाला सरकार, समाज, शिक्षा के कारोबारियों और दलालों की संगठित अपराध श्रृंखला का दूसरा नाम है। एक ऐसा सामूहिक कुकर्म, जिसने हजारों काबिल युवाओं के सपनों की लगातार हत्या की। एक पीढ़ी बरबाद कर दी। इस पाप में हर वर्ण और हर वर्ग के ऊंची पसंद वाले ऊंचे लोग बढ़-चढ़कर भागीदार थे। बीते पंद्रह सालों में मेडिकल माफिया की ताकत उनके तेजी से फैले कारोबारी साम्राज्य में साफ नजर आई थी। किराना बेचते-बेचते या एक मामूली क्लिनिक से शुरुआत करके मेडिकल और डेंटल कॉलेज-यूनिवर्सिटी की चकाचौंध कर देने वाली अरबों की मिल्कियत खड़ी करने वालों को शहर और सियासत ने सदा सलाम किया था। उनकी आवाज में असर था। उन्हें नजरअंदाज करना नामुमकिन था। वे नए आर्थिक दौर के विजेता थे!
देश के काबिल विद्यार्थी पचास साल से #reservation की पक्षपातपूर्ण अमानवीय रीति-नीति के बेकसूर शिकार हैं। व्यापमं की वजह से निश्चित ही ऐसे हजारों होनहार बच्चे चंद अंकों के अंतर से पीएमटी में पीछे रहे होंगे। अब तक उन्हें बखूबी अंदाजा हो गया होगा कि कौन सफेदपोश चील-गिद्ध उनके हक पर हमले बोल रहे थे। अंधेरगर्दी भी कैसी? एमबीबीएस की एक सीट 80 लाख तक में बिकी और प्रीपीजी की बोली डेढ़ करोड़ तक गई। जब एक्टर बिकते हैं, खिलाड़ियों की बोलियां लगती हैं और नेता-अफसर ठेलों पर हर माल दो रुपए की तरह सजे हैं तो मेडिकल की सीटों के सौदे में क्या खराब था?
पइसा फैंको, तमाशा देखो। इस तमाशे के ताकतवर खिलाड़ियों को एक पल के लिए भी यह सोचने की जरूरत नहीं थी कि वे आटे में नमक नहीं, पूरा नमक ही नमक चला रहे हैं। उन्हें गरीब और निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के मेहनती और प्रतिभाशाली बच्चों की आंखों में पंख खोल रहे मासूम ख्वाबों का जरा भी ख्याल नहीं था। ये सारे खिलाड़ी खुद बेहद मामूली हैसियत से निकलकर इस स्तर पर आए थे, जहां वे अफसर, नेता, डॉक्टर और दलालों के गिराेह में माफिया राज चलाते हुए देखे गए।
मोटी रकम मुंह पर मारकर मेडिकल कॉलेजों में दाखिला लेने वाले विद्यार्थियों ने अपनी कामयाबी के जश्न जरूर मनाए होंगे। अब वे डॉक्टर बनकर निकलने वाले थे। सिलेक्शन के बाद मालदार घरानों में उनके रिश्ते तय थे। उन लड़की वालों को इससे कोई मतलब नहीं था कि दामाद के गले में डॉक्टरी किस कीमत पर और किस-किसकी कीमत पर टंगी है। वे भी नौकरी और बिजनेस में ऐसे ही काले-पीले तरीकों से लुटाने लायक बेहिसाब खजाने भरे बैठे थे। आने वाला कल इन सबके लिए सुनहरा था। मगर असलियत उजागर होते ही पुलिस और अदालतें दृश्य में आ गईं। जेलों में चहलपहल बढ़ गई। महफिल का जायका बिगड़ गया। रायता फैल गया!
खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे। जिनके पास 80 लाख चुकाने की हैसियत नहीं थी, वे तब मन मसोसकर ड्राइंगरूम में सिस्टम को गाली देते हुए चुप बैठ गए थे। सबके मन में यह कसक जरूर रही कि काश हमारे पास भी रोकड़े होते! हमने भी कुछ कमाया होता। यह तबका बेईमानी के अवसर न मिलने भर से ईमानदार होने का मुखौटा लगाए था। मगर जब सीटें खरीदने-बेचने वाले जेल गए तो कलेजे में सबसे ज्यादा ठंडक यहीं थी। एक सुर में आह भरकर सबने कहा-पापियों का अंजाम यही होना था!
बरसों पहले पढ़ी लियो टॉल्सटॉय की एक मशहूर कहानी याद आ रही है-हाऊ मच लैंड द मैन नीड। एक आदमी को आखिर कितनी जमीन चाहिए? कहानी यूं है कि एक इंसान से कहा जाता है कि वह दौड़ना शुरू करे और सूरज ढलने के पहले जहां तक पहुंचेगा, उतनी जमीन उसकी। वह पूरी ताकत से दौड़ना शुरू करता है। दोपहर तक बिना रुके, बिना ठहरे भागता है। सूरज सिर पर चढ़ आता है। वह भी थककर चूर है। मगर और जमीन की लालसा में सूरज के डूबने तक भागता ही जाता है। इधर सूरज डूबता है और वह आदमी गश खाकर गिरकर मर जाता है। कहानी का सार है कि जिस दो गज जमीन पर वह गिरा, उसे उतनी ही जमीन जरूरी थी मगर हाय, लालच ने उसे पागलों की तरह दौड़ाया!
व्यापमं के सारे गुनहगार इंदौर और भोपाल के बड़े और नामी अस्पतालों के मालिक और सरकारी अफसर बेहद साधारण परिवारों से ही आए थे। इस घनघोर घोटाले में कदम रखने के पहले वे अपने करिअर के दस-पंद्रह साल बिता चुके थे। इस दौरान उन्होंने अपने शानदार घर-फॉर्म हाऊस बना लिए थे। मामूली से क्लिनिक छोटे नर्सिंगहोम या अस्पताल में बदल चुके थे। #medicaleducation और व्यापमं में तिकड़मों से डटे अफसरों ने दो-चार प्रमोशन डकार लिए थे। महंगी गाड़ियां और बड़े क्लबों की मेंबरशिप ली जा चुकी थीं। दवा कंपनियों से डॉक्टरों की सदाबहार साठगांठ ने भी जिंदगी की रौनक में इजाफा किया था। महंगे उपहार और साल में दो-एक विदेश यात्राओं का सिलसिला शुरू हो गया था। रईसी ठाटबाट में सबके बच्चे शानदार स्कूल-कॉलेजों में पढ़ ही रहे थे। मगर इस हैसियत मंे तो कई कम्बख्त हैं। शहर और सूबे में अपना नाम सबसे बड़ा ही होना चाहिए। एक ब्रांड की तरह-गोयनका, भंडारी, विजयवर्गीय, चौकसे, भदौरिया। कितने भारी-भरकम नाम! जैसे-सहारा, माल्या...। तो ब्रांड बनने के बड़े हसीन सपने के साथ व्यापमं वीरों की एक नई दौड़ शुरू हुई थी...
टॉल्सटाॅय की कहानी यहां एक अलग मोड़ लेती है-
बेइंतहा लालच में व्यापमं की कहानी के किरदार सूरज ढलने के बाद भी गश खाकर गिरे नहीं। रात भर दौड़ते रहे। सिस्टम के अंधेरे रास्तों की हर बड़ी शाख पर बैठे उल्लुओं ने इनकी महादौड़ के दर्शन लाभ लिए। दक्षिणा का आदान-प्रदान हुआ। पसीने की एक बूंद पेशानी पर लाए बगैर वे बिना हांफे दौड़ते गए। सुबह सूरज को ही इन्हें देखकर गश आ गया। सचमुच हैरान था सूरज। उसे ताज्जुब तो यह था कि अब ये अकेले नहीं थे। इनके साथ कई मंत्री-मंत्राणी, शर्मा, शुक्ला, त्रिवेदी, महेंद्रा, अरोरा, शिवहरे और अनगिनत एनआरआई भी जाने कहां-कहां से नोटशीट, बैलेंसशीट, मार्कशीट, काउंसलिंग चार्ट और हार्ड डिस्कें लिए दौड़ते दिखे। बेहिसाब कैश रास्ते में बिखरा पड़ा था। हर साल पीएमटी के बाद ताकतवरों का एक नया झुंड इन लुटेरों में शामिल हुआ था। पटना, लखनऊ और कानपुर के धावक भी आ धमके थे। समाज में एक शक्तिशाली काफिला आकार ले चुका था, जहां सिर्फ पैसे और पैसे वालों की ही चलती थी!
लालच की इस दौड़ का आखिरी छोर कहीं नहीं था। मगर व्हिसल ब्लोअर नाम की एक नई जमात ने शोर मचा दिया। तभी बीच दौड़ में कहीं से बिन बुलाई #STF प्रकट हुई। थोड़ी देर में लगा कि वह भी दौड़ में शामिल है या दौड़ने वालों को रास्ता दे रही है। एसटीएफ ने कुछ दौड़ाकों को पलक झपकते ही इधर-उधर किया। दस्तावेज-हार्डडिस्क को जांच नाम की जादू की गंदी पोटली में उतारा। पता नहीं कहां से तभी #CBI आ धमकी। एसटीएफ सकपकाई। जादू की पोटली सीबीआई ने छीन ली। कुछ धावकों को धर लिया। कुछ जेल गए। कुछ फरार हुए। मगर वे विजेता थे। अब तक वे चमचमाते हुए नामी ब्रांड बन चुके थे-#chirayu, #arvindo, #LN, #peoples, #index, #amaltas, #ardigardi...।
29 नवंबर 2017
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अलाउद्दीन खिलजी के बारे में दो बातें

#VijayManoharTiwari
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 पद्मावती में खिलजी का किरदार निभा रहे रणवीरसिंह ने कल सोशल मीडिया पर एक्टर मैलकम मैकडॉवेल और हीथ लीजर के ऐसे चेहरे पेश किए, जो अपनी अलग-अलग फिल्माें में बेहद डरावने किरदार में हैं। रणवीर ने पद्मावती में अपने किरदार का चेहरा नुमाया करते हुए जाहिर किया कि अलाउद्दीन का किरदार भी ऐसा ही डरावना था। आज आपसे अलाउद्दीन खिलजी के बारे में बात करता हूं। इसके बाद हम पद्मावती प्रसंग को यहीं विराम देंगे और भंसाली की फिल्म का इंतजार करेंगे।
सबसे पहले, जो लोग अलाउद्दीन खिलजी जैसे शासकों को मजहबी नजरिए से देखते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि इस्लाम वह करने की इजाजत नहीं देता, जो खिलजी जैसों ने सदियों तक भारत में किया। इस्लाम अमन का पैगाम देता है। पड़ोसी भूखा हो तो आपको अपना पेट भरने के पहले सोचने की हिदायत है। दुनिया के तमाम धर्मों ने जो चंद याद रखने लायक बातें कहीं हैं, यह वाक्य उनमें कोहिनूर की तरह है। ऐसे इस्लाम का कट्टर अनुयायी बताकर खिलजी जैसे बर्बर लुटेरे कातिल भारत काे रौंदने में फख्र मानते रहे। इसलिए इनके कारनामों को पहले जानें, फिर कोई राय कायम करें।
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में साठ के दशक में हुए एक शानदार काम पर गौर कीजिए। अतहर अब्बास रिजवी ने भारत में मुस्लिम शासन के लेखकों के अरबी-फारसी के दस्तावेजों का हिंदी में अनुवाद कराया। मैं बहुत जिम्मेदारी से कहना चाहता हूं कि इतिहास में रुचि न भी हो तो ये दस्तावेज हर लाइब्रेरी में होना चाहिए। उनके समय के लेखकों ने हरेक सुलतान को इस्लामी शासक कहकर जमकर तारीफें की हैं। दिल्ली पर कब्जे के बाद बंगाल से लेकर गुजरात तक, मालवा से लेकर दक्षिण भारत तक सदियों तक चले हमलों, लूट, कत्लेआम के रोंगटे खड़े कर देने वाले ब्यौरे हैं। वे अपनी फौजों को भी इस्लाम की फौजें कहते हैं। अभी पद्मावती के कारण अलाउद्दीन खिलजी चर्चा में है इसलिए यहां मैं अपनी बात सिर्फ खिलजी वंश के इसी सुलतान पर केंद्रित रहूंगा। खिलजी वंश का दूसरा सुलतान था अलाउद्दीन, जिसने 1296 से 1316 तक राज किया।
वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले बूढ़े जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कढ़ा का हाकिम बनाया था। कढ़ा की जागीर में रहते हुए दिल्ली के सुलतान जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार लूट के इरादे से विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरि को लूटने में कामयाब हुआ। रामदेव वहां के राजा थे। नृशंस तौरतरीकों से हासिल फतह पर खिलजी का यशगान करते हुए जियाउद्दीन बरनी जैसे लेखक लिखते हैं कि देवगिरि में इसके पहले यहां किसी ने इस्लामी फौजों का मुकाबला किया ही नहीं था। खिलजी को देवगिरि से बेहिसाब दौलत मिली। सदियों का संचित खजाना हाथ लगा। दस्तावेजों में हर लूट के हिसाब हैं कि कहां से क्या मिला।
रमजान के दिनों में इफ्तारी के वक्त चचा का कत्ल:
देवगिरि से लौटते हुए उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का अंदाजा हो गया था। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है, हुकूमत के लालच में उसकी हत्या की हद तक नहीं जाएगा। मान जाएगा। वह उसे प्यार से अला कहता था। दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। अलाउद्दीन घात लगाए ही था। जो लोग अलाउद्दीन में एक मुसलमान देखते हैं, उन्हें जानना चाहिए कि उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और कढ़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में भी घुमाया गया। वह संवाद बड़े मार्मिक हैं जब वृद्ध जलालुद्दीन सामने आया तो कहता है-मुझसे क्यों डरता है अला। तुझे याद है तू बहुत छोटा था। मेेरे सिर पर चढ़ जाता था। मेरे कपड़ों पर पेशाब कर देता था...। अला उसकी एक नहीं सुनता। पीठ में खंजर घोप देता है...
उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई बड़ी बात नहीं थी मगर जिस चाचा ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी भी बेटी दी, सिर्फ दिल्ली पर कब्जे की जल्दबाजी में उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। दिल्ली में भी लोग उसके खिलाफ थे। मशहूर जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी के पास अलाउद्दीन के सबसे विश्वसनीय ब्यौरे हैं। उसने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों यानी अपने चचेरे भाइयों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया। ऐसा शख्स मुसलमान नहीं हो सकता।
देवगिरि की लूट रिश्वत में लुटाई:
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि दरबार के ताकतवर लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरि से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। इस बात के रिकॉर्ड हैं कि उसने कड़ा-मानिकपुर से दिल्ली तक हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। इस तरह वह दिल्ली का सुलतान बना।
देवगिरि की पहली लूट का हिसाब:
उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्टर था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरि में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरि की उस पहली लूट का हिसाब बरनी ने यह लिखा है- घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा!
बतौर सुलतान 1296 से अलाउद्दीन की खुलेआम लूट, हमलों और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउद्दीन के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना इतिहास के एक निष्पक्ष जिज्ञासु की नजर से तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा तक को आहत किया। हजारों बेकसूरों को एक झटके में कत्ल करा देना, औरतों-बच्चों को भी न छोड़ना, एक दीनदार मुसलमान के ख्याल में भी यह पाशविकता नहीं हो सकती।
सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। करण हार के डर से देवगिरि चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। युद्ध में परााजित गुलामों के साथ कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।
कौन थी देवलरानी:
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह भी अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।
दक्षिण भारत की हैरतअंगेज लूट:
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की लगातार बढ़ती गई हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने खून से हमेशा रंगी रही तलवार से जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर काफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक काफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी।
जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरि के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। हालांकि मलिक काफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया। मलिक काफूर को हजार दीनारी भी कहा जाता है। उसे एक हजार दीनार के बदले खरीदा गया था। कहते हैं कि वह एक हिंदू गुलाम था, जो मुसलमान बन गया था।
दोस्तो, जो लोग मजहबी नजरिए से अलाउद्दीन खिलजी जैसे सुलतानों-बादशाहों को अपने आदर्श पूर्वज के रूप में देखकर विजेता के भाव से खुश होते हैं, उनसे एक गुजारिश करूंगा। वे अपनी वंशावलियों के बारे में जरा सोचें। वे कौन थे, क्या थे, क्या से क्या बना दिए गए थे और थोड़ा उन बदनसीब औरतों का ख्याल करें, जो हर साल हजारों की तादाद में युद्ध में हार के बाद उठा ले जाई जाती थीं। सुलतानों की तरफ से वे जिन महानुभाव विजेताओं में भी तोहफे की तरह बांटी गई होंगी, उनके बच्चे और उनके भी बच्चों के बच्चे हुए होंगे। वे कहां गए?
क्या आपको आज के लखवी-हाफिज-गिलानी-जिलानी-जिन्ना में उन्हीं बेबस बच्चों के चेहरे दिखाई नहीं देते? बस याददाश्त पर जोर डालने भर की दूरी और देरी है। कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि वह दुर्गम दौर हम सबका भोगा-भुगता है। वह हमारी साझी मुसीबत थी, जो सदियों तक देश ने झेली। कोई इसमें खुद को अलग न माने। और इसकी कीमत भी किसी इस या उस तबके ने नहीं चुकाई। इसकी कीमत भारत ने चुकाई। 1947 में तो देश के ही टुकड़े हो गए!
20 नवंबर 2017
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मेरे पत्र पर रानी पद्मिनी का जवाब आया है-


प्रिय विजय
तुम्हारे पत्र ने चित्तौड़गढ़ की स्वर्णिम स्मृतियों को ताजा कर दिया। वे स्मृतियां जो उस मनहूस दिन राख में बदल गईं थीं। चित्तौड़ के अासमान पर उस दिन सूरज रोज की तरह चमक रहा था। मगर हमारे जीवन में एक गहरी अमावस सामने तय थी। राजपूतों की पीढ़ियों की प्रतिष्ठा दाव पर थी। रनिवास में हम सबके चेहरों का रंग उड़ा हुआ था। ऐसा खौफ इसके पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। हमारे पुरुष वीर थे। वे वीरों की तरह ही अपने भाल पर तिलक लगाकर युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। हमने अपने दुश्मन पर भी विश्वास किया। कोई छलकपट, धोखा नहीं किया। यही हमारा संस्कार था। शायद यही हमारी कमजोरी थी। आखिरकार हम अपने ईश्वर का स्मरण करते हुए कतार से अग्निकुंड में जाकर अपनों से और अपनी जिंदगी से विदा हुए थे। वह शारीरिक पीड़ा तो पल पर की थी। लपटों में जाकर प्राण पखेरू कुछ ही क्षणों में उड़ गए थे। देह कुछ देर में भस्म हो गई थी। मगर जिंदा रहते बेबसी के वे आखिरी पल पराजय और अपमान की भयावह मानसिक पीड़ा के थे। वह टीस देहमुक्त होने के सात सौ साल बाद भी कम नहीं हुई।
चित्तौड़ को राख में से फिर उठ खड़ा होने में ज्यादा समय नहीं लगा होगा। मगर तब हम नहीं थे। हम चित्तौड़ की यादों का हिस्सा हो गए। चंदेरी की रानी मणिमाला और रायसेन की रानी दुर्गावती के सामूहिक आत्मदाह के बारे में आपने लिखा है। आप इतिहास की किताबें खंगालेंगे तो पता चलेगा कि चित्तौड़ की हैसियत तब आज की दिल्ली जैसी थी। कई राजपूत राजघरानों का शक्तिकेंद्र चित्तौड़ ही था। राणा कुंभा, राणा सांगा और महाराणा प्रताप ने मेवाड़ को शक्तिशाली बनाया था। तब हमारे बहुत गहरे रिश्ते रायसेन, चंदेरी और मांडू के राजाओं से थे। हम जानते हैं कि बाद की सदियों में मणिमाला और दुर्गावती के साथ भी सैकड़ों राजपूत औरतें जौहर के अग्निकुंडों में उतरकर हमारे पास आती रहीं। सुनाने के बाद सबके पास एक जैसी कहानियां थीं। राजपूत राजघरानों की वे रानियां भी अंतत: यहीं आईं, जो तुगलकों और मुगलों के हरम में गई थीं और उनके बच्चे हुए थे, जिनमें से कई सुलतान और बादशाह भी बने। मेरे समय खिलजी था। बाद में नाम बदलते गए। जौहर की आग बुझी नहीं। वह किलों में भी धधकती रही और दिलों में भी! यह सदियों से आ रहे रुलाने वाले समाचारों की ऐसी श्रृंखला है, जिसने हमारी आत्मा को भी इस लायक नहीं छोड़ा कि हम दूसरी देह धारण करके फिर लौटने का साहस करते।
आपने देश के तीन टुकड़ों में बंटने के बारे में भी लिखा। इसका पता हमें तभी हो गया था। पाकिस्तान नाम के टुकड़े में, जो लोग हमारे जैसी ही मौत मरने के लिए मजबूर हुए, उन औरतों-बच्चों के भी कई काफिले यहां आए। कोई कुएं में कूद कर मरा था। कोई तलवारों से काटा गया। कोई जीते-जी शोलों में बदल दिया गया। लाशों से भरी ट्रेनें। कई औरतें, जो लूट के माल की तरह उठा ली गईं थीं, वे एक लंबी यातना भरी जिंदगी जीने के बाद कहीं गुमनाम अंधेरी कब्रों में जा सोईं। वे न इज्जत से जी सकीं, न मर सकीं। उनकी रूह कंपाने वाली कहानियां हमने यहां सुनीं।
तुमने एकदम सच कहा। भारत से हमारा परिचय तथागत गौतम बुद्ध से ही था। श्रीलंका में बुद्ध का विचार भारत से ही आया था। हमारी कल्पना थी कि जहां कभी बुद्ध हुए, वहां हर तरफ शांति होगी, विपस्सना के अनुभव होंगे। जीवन अपने सुंदरतम रूपाें और कलाओं में विकसित हो रहा होगा। निस्संदेह यह धरती का ऐसा टुकड़ा होगा, जिसके पास दुनिया को बताने के लिए काफी कुछ शुभ समाचार होंगे। अजंता-एलोरा, सांची-सारनाथ, नालंदा-विक्रमशिला में बुद्ध का विचार कितने रूपों में खिला, इसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। मगर क्या भारत ने कभी कल्पना की थी कि उसकी समृद्धि किन बेरहम बहेलियों को सदियों तक हमलों और कब्जों के लिए एक खुला निमत्रंण हो सकती है? क्या भारत ने कभी सोचा था कि उसे किन ताकतों से टकराना होगा? किस-किस तरह के बर्बर काफिले भारत का शिकार करने आने वाले हैं? वे किस तरह की कभी न खत्म होने वाली लड़ाइयों में भारत को कोने-कोने में धकेल देंगे और कब्जे कर-करके एक नई पहचान कायम करने की निर्लज्ज कोशिशें करते रहेंगे? किस तरह हमारे ही लोग उस नई पहचान में अपनी जड़ों को भुलाकर गाफिल हो जाएंगे?
दुनिया के इतिहास में यह बहुत ही दर्दनाक अनुभव हैं, जो भारत के हिस्से में आए। भारत धरती का एक और बेजान टुकड़ा भर नहीं था। सदियों की विकास यात्रा में इस देश ने संसार को कई कमाल की चीजें दी थीं। यहां का धर्म इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि अंतत: समस्त प्रकार की हिंसाओं से मुक्त होकर सच्ची मानवता के लिए खुले दिल और दिमाग से ही कुछ श्रेष्ठ हो सकता है। इसलिए हमने महाविनाश के महाभारत भी भुगते, किंतु एक समय बुद्ध की शांति को ही शिरोधार्य किया।
मैं पूछना चाहती हूं कि क्या भारत ने आज भी कभी इनके बारे में ठीक से सोचा है? मैं चाहती हूं कि हम एक बार तो सच का सामना करें। यह हमारा साझा सच है। इसमें कोई बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक नहीं है। तुमसे सहमत हूं कि हम ही बहुसंख्यक हैं। हम ही अल्पसंख्यक हैं। मैं सात सदियों के इस पार से बहुत साफ देख सकती हूं कि हम सब एक ही हैं। सरहदों के इस तरफ भी हम हैं, उस पार भी हम हैं। मंदिरों में स्तुति भी हम कर रहे हैं, मंदिर के विरोध में भी हम ही हैं और हमें अहसास भी नहीं। रावलपिंडी के पास तक्षशिला किसने बनाया था? अफगानिस्तान में बामियान के बुद्ध किसने गढ़े थे? शैव और बौद्ध परंपराओं का केंद्र रहे कश्मीर में हम ही हम पर पत्थर फैंक रहे हैं। हम ही हमारे पीछे बम-बारूद लिए पड़े हैं। जो जबरन थोपी गई नई पहचानों में गाफिल हैं, वे भी उन आंधियों में उड़े हुए तिनके ही हैं, जो सदियों तक देश के हर हिस्से में हमें भुलाती-भटकाती रहीं। मैं तो उस अपवित्र आंधी से सीधी टकराने वाली बेबस सदियों की एक अभागी किरदार भर हूं।
खिलजी से चित्तौड़ का सामना कोई नई घटना नहीं थी। उसके पहले जलालुद्दीन खिलजी ने भी रणथंभौर को जमकर लूटा और बरबाद किया था। और पहले बिहार-बंगाल में भी नालंदा और विक्रमशिला आग के हवाले किए गए थे। ये कारनामे भी किसी बख्तियार खिलजी ने ही किए थे। गजनी से आए किसी बेरहम मेहमूद ने तो 17 बार भारत को रौंदा था। हम सोमनाथ के किस्से सुनते थे तो डर से ज्यादा आश्चर्य होता था। लूटकर हमारे देवालयों को तोड़ गिराने का मतलब हम कभी नहीं समझे और कई जगह उन्हीं मंदिरों के मलबे से नई इमारतें बनाना तो बिल्कुल ही समझ के परे था। अजयमेरू यानी आज का अजमेर तो हमसे ज्यादा दूर नहीं था। वहां जिसे आप अढाई दिन का झोपड़ा कहते हैं, जरा उन पत्थरों को आंख खोलकर और दिल थामकर देखिए। वे जख्मों की कौन सी कहानी सुना रहे हैं?
सच बात तो ये है कि तब पूरा देश ही मलबे में बदल रहा था। देश हर जगह एक नई और डरावनी शक्ल ले रहा था। चारों तरफ से व्यापारी समूह और राजदूत उस समय के भारत में चल रही लूट और हमलों की कहानियां चित्तौड़ में भी आकर सुनाया करते थे। चित्तौड़ के किले पर खड़े होकर तब हम चर्चाएं किया करते थे कि कोई शासक ऐसा कैसे कर सकता है कि देवताओं की मूर्तियों को तोड़कर मांस तौलने के लिए कसाइयों को दे दे या किसी मस्जिद की सीढ़ियों पर चुनवा दे ताकि वह लोगों के पैरों तले रौंदी जाए? कौन सा धर्म इसकी इजाजत देता है? सत्तर साल पहले एक नया शब्द भारत से सुनने में आया-सेकुलर। मगर हम इसका मतलब नहीं समझे और जो खबरें अब आती हैं तो लगता है कि मेरे भारत को ये क्या हो गया? भारत अपनी चमकदार लेकिन गुमशुदा याददाश्त के साथ किस दिशा में कूच कर गया?
अरे हां, किन्हीं संजयलीला भंसाली का जिक्र तुमने किया है। मुझे अच्छा लग रहा है कि वे कोई फिल्म मुझ पर बना रहे हैं। तुम देखो तो बताना कि पद्मिनी की कहानी को कैसे दिखाया? मुझे विश्वास ही नहीं है कि हमारे दौर की त्रासदियों को कोई जस का तस दिखा सकता है। उसे सब्र से देखने और देखकर शांत रहने के लिए भी बड़ा कलेजा चाहिए। कभी सोचना, आपके घर के चारों तरफ भूखे भेड़ियों जैसे नाममात्र के इंसानों की शोरगुल मचाती पागल भीड़ हाथों में तलवारें चमकाती हुई घेरकर खड़ी हो। वे कभी भी दरवाजा तोड़कर आपके घर में दाखिल हो सकते हों। कोई बचाने वाला न हो। आपकी ताकत लगातार घट रही हो। दाना-पानी बाहर से सब रोक दिया गया हो। आप कब तक टिकेंगे और जब वे भीतर दाखिल होंगे तो क्या होगा? जो होता था, हमने उसके भी खूब किस्से सुने हुए थे। इसलिए हम यह कठोर फैसला कर पाए कि इज्जत की मौत ही ठीक है। भंसाली साहब के लिए यही कहूंगी कि सिर्फ मुनाफे के लिए इतिहास से न खेलें। हम पर जो गुजरी, उसका सौदा न करें। अपनी दादी, नानी, मां, बहन, पत्नी और प्रेयसी में पद्मिनी को देखें। फिर तय करें कि क्या दिखाना है, क्यों दिखाना है?
विजय, तुमने पत्र लिखा। मुझे मेरे आहत अतीत की स्मृतियों में ले जाने के लिए धन्यवाद। अब संपर्क में बने रहना। जो जुल्मों की दास्तान सुनाने के लिए भारत में नहीं बच नहीं सके, वे सब यहां आए। मेरे पास बहुत कुछ है बताने को। भूलना मत। फिर कुछ लिख भेजना। पद्मिनी को भूलने का मतलब इतिहास को भूलना होगा!
-पद्मिनी
17 नवंबर 2017
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पद्मावती को पत्र


प्रिय पद्मावती,
सादर प्रणाम। संभवत: सात सौ साल बाद ये पहला ही पत्र है, जो किसी ने आपको लिखा होगा। संजय लीला भंसाली नाम के एक कारीगर हैं। वे फिल्में बनाते हैं। इतिहास के किरदारों पर उम्दा फिल्में बनाई हैं। इस बार आप पर उनकी फिल्म आने वाली है। इसके बहाने आप बहस का विषय बन गई हैं। दो बातें आपसे करने का मन हुआ। कभी सोचता हूं कि जब आप श्रीलंका से चित्तौड़ आईं होंगी तो भारत के बारे में क्या सपने आपकी आंखों में रहे होंगे। भारत का परिचय आपको गौतम बुद्ध से ही रहा होगा। समृद्धि और शांति का मुल्क, जहां से तथागत का विचार आज से 23 सौ साल पहले महेंद्र और संघमित्रा श्रीलंका लेकर गए थे। वे मगध सम्राट अशोक की संतान थे। मगर जब आपने चित्तौड़ का रुख किया तब तक महेंद्र-संघमित्रा की कहानी 16 सौ साल पुरानी हो चुकी थी। यहां छह सौ साल से कुछ और ही पक रहा था, जिसकी लपट आपके ही सामने चित्तौड़ को छूने वाली थी। जीते-जी जलती आग में अपने ऐसे अंत के बारे में आपने शायद ही कभी सोचा होगा!
आपके आने के सौ साल पहले ही चित्तौड़गढ़ से 500 किलोमीटर के फासले पर तब दिल्ली हैवानियत का ज्वालामुखी बन चुकी थी, जिसका लावा पूरे भारत को अपनी चपेट में ले रहा था। भारत वीरों की भूमि ही थी मगर वे ऐसे जाहिल युद्ध के आदी नहीं थे, जिसमें कोई नियम-कायदे नहीं थे। धोखा, छलकपट, बेरहमी ही जिनके उसूल थे। अरब की रेतीली हवाओं में पला एक कबीलाई विचार जहां से गुजरा था, उसने सब कुछ जलाकर राख कर डाला था। आपके समय चित्तौड़ का सामना जिस खिलजी से हुआ, वह उसी खूनी जोश से भरा हुआ था। तब तक दिल्ली पर कब्जा हुए सौ साल हो चुके थे। खिलजी को खेलने के लिए खुदा ने बीस साल दिए। 1296 से 1316 के बीच ये बीस साल भारत की बदकिस्मती के भी बीस साल थे।
हमें सत्तर साल पहले की बातें भी याद नहीं रहतीं। आपके और हमारे बीच तो 714 साल का फासला है। हम भारतीय भूलने में माहिर हैं। यूं दुनिया-जहां की जानकारियां होंगी मगर हमें अपने आसपास के इतिहास का कोई पता ही नहीं है। इतिहास के नाम पर अजीब किस्म की बेखबरी है या दूसरों के सुनाए कुछ किस्से-कहानियां हैं बस। वो भी सबके अपने नजरिए के हिसाब से। यहां इतिहास को तोड़मोड़ कर अपनी मनमर्जी लायक बनाकर परोसने की पूरी आजादी रही है। वैसे आपसे बेहतर कौन बता सकता है कि अतीत में याद रखने लायक बचा ही क्या था हमारे पास? कब्जा, कत्लेआम, लूटमार यही था।
आपने 1299 में राजस्थान के ही रणथंभौर में हुए अलाउद्दीन के हमले और औरतों के जौहर के किस्से सुने होंगे। पता नहीं आपके दिल पर तब क्या बीत रही होगी! चित्तौड़गढ़ में उस दिन आपने अपने जीवन का सबसे कठिन फैसला लिया और अपनी अनेक सखियों के साथ चिता की आग की तरफ कदम बढ़ाए। चंद घंटों में सब तबाह हो गया था। आप एक आंसू बनकर भारत की आंख से लुढ़क गईं। उन हालातों में उस धधकती आग में औरतों की सामूहिक आत्महत्याओं को आज हम जौहर के नाम से जानते हैं। आपका जौहर अंतिम नहीं था। चित्तौड़ में ही अगले ढाई सौ साल में और जौहर हुए। हर बार किसी सुलतान या बादशाह के हमले के बाद हारने के हालात में औरतों को अपनी इज्जत बचाने का यही एक रास्ता बचा था।
मध्यप्रदेश में चंदेरी और रायसेन के जौहर भी इतिहास में हैं। चंदेरी और रायसेन के रिश्ते चित्तौड़ राजघराने से तब बहुत गहरे थे। मेवाड़ ने तो अपनी घायल स्मृतियों में आपकी यादों को एक दीये की तरह जलाकर रखा, लेकिन यहां शायद ही किसी को याद हो कि पद्मावती की तरह चंदेरी में राजा मेदिनी राय की रानी मणिमाला और रायसेन के राजा सलहदी की रानी दुर्गावती ने भी अपने नाते-रिश्तेदारों, मंत्रियों, सेनापतियों की औरतों के साथ जौहर किए थे। आपको जानकर दुख होगा कि रायसेन की रानी दुर्गावती चित्तौड़गढ़ के ही राणा सांगा की बेटी थीं। चित्तौड़ से वे डोली में विदा हुई होंगी। मगर अपने सम्मान की खातिर जीते-जी सामूहिक चिता में उतर जाने की शक्ति उन्हें आपकी ही कहानी से मिली होगी! सांगा और बाबर के बीच की जंग में सलहदी भी सांगा की सेना में शामिल थे।
आपके बाद जैसे भारत राख और धुएं की एक भयावह कहानी है। कभी सोचता हूं कि उस क्षण चित्तौड़, चंदेरी या रायसेन के राजमहलों में क्या-कुछ घट रहा होगा, जब यह सूचना मिली होगी कि हम युद्ध हार गए हैं। कभी भी अलाउद्दीन, बाबर या सूरी की फौजें किले में दाखिल हो सकती हैं। महलों में मातम छा गया होगा। जैसे दिवाली के सारे दीये अचानक बुझ जाएं। जान बचाने के लिए आप इंतजार कर सकती थीं। होता क्या? अलाउद्दीन खिलजी चित्तौड़ को बेरहमी से लूटता और महीनों की मशक्कत से हासिल इस फतह की पूरी कीमत वसूलता। बेशक इस लूट में आप और बाकी सारी औरतें-बच्चियां भी शुमार होतीं। आपके साथ जितनी भी औरतें उस दिन चित्तौड़ में रही होंगी, वे सब खिलजी के फौजियों में बांट दी जातीं। चित्तौड़ के महल से निकालकर आप सबको सामान की तरह ढोकर दिल्ली ले जाया जाता। दिल्ली के अपने महलों में आप माले-गनीमत की नुमाइश में पेश की जातीं।
आखिरकार खिलजी के हरम में आप बाकी जिंदगी, अपने जैसी ही दूसरी सैकड़ों औरतों के साथ गुजारतीं, जो ऐसी ही लूट में भारत के कोने-कोने से लाई गईं थीं। आपकी मुलाकात गुजरात के राजा करण की रानी कमलादी से भी होती और आप कमलादी की बेटी देवलरानी को भी देखतीं। पता नहीं आपको कैसा लगता यह देखकर कि अलाउद्दीन ने कमलादी को खुद रखा और उसकी बेटी देवलरानी का निकाह अपने बेटे खिज्र खां से करा दिया। बची हुई जिंदगी में अपनी आन-बान और शान के मिट्‌टी में मिलने तक की कहानियां आप एक दूसरे को सुनातीं, कुछ बच्चे पैदा होते और एक दिन किसी अंधेरी कब्र में जाकर दफन हो जातीं। कमलादी और देवलदेवी के बारे में किसी को कुछ नहीं मालूम। तो किसे पता चलता कि पद्मावती कहां गईं, उसका क्या हुआ? पद्मावती इतिहास के अंधेरे में खो गई होती। मगर ऐसा नहीं हुआ। खिलजी की फतहें इतिहास में दर्ज हैं मगर सात सदियों के पार पद्मावती भी आंखों में झिलमिलाती है।
चित्तौड़ की आग में भस्म होने के साथ ही आसमान पर गाढ़े धुएं की काली परत छा गई थी। आप चित्तौड़ के आसमान से भारत के दामन में गिरा एक आंसू हैं। सात सौ साल बाद वो आंसू कई सवालों के साथ सामने है। मगर हम सवालों से बचने वाले लोग हैं। फिर एक अकेला पद्मावती का ही प्रश्न होता तो निपट भी लेते। देश का दामन ऐसे अनगिनत आंसुओं से भरा है। आपके साथ जलकर मरीं कितनी औरतों के नाम हमें याद हैं? मणिमाला और दुर्गावती के साथ सामूहिक आत्महत्याएं करने वालीं कितनी औरतों के नाम किसे पता हैं? और उन औरतें के बारे में क्या, जो आपकी तरह जौहर के फैसले नहीं कर सकीं और अपना सब कुछ बरबाद होने के बाद लूट के माल में शामिल होकर सुलतानों-बादशाहों के हरम में समाती रहीं? यह इतिहास से गिरते आंसुओं की अंतहीन झड़ी है, जिस पर किसी भी इज्जतदार कौम को पश्चाताप और शर्म से भरा होना चाहिए। आपको याद करते हुए मेरा सिर शर्म से झुका है। दिल दर्द से भरा है। दिमाग बेचैन है। आप इतिहास का मरा हुआ हिस्सा नहीं हैं। अाप जीवित स्मृति हैं। आप हमारी आंखों की नमी में हैं।
अलाउद्दीन खिलजी हो, तुगलक हो, तैमूर हो, बाबर हो, औरंगजेब हो या नादिर शाह। तवारीख में इन सबने खुद को इस्लाम का अनुयायी होने का दावा बड़े जोर से कराया है। मैं नहीं मानता कि ये मामूली मुसलमान भी थे, क्योंकि मुझे तो यह बताया जाता है कि इस्लाम का मतलब ही है-शांति! अमन का संदेश देने वाले मजहब में ऐसे क्रूर किरदार, जो जिंदगी भर कत्लेआम, लूटमार करते रहे और काफिरों के कटे हुए सिरों की मीनारें बनवाकर गाजी का तमगा टांगते रहे। ये कम्बख्त कैसे मुसलमान हो सकते हैं? ये भारत के इतिहास के सबसे बड़े गुनहगार हैं।
मुझे नहीं पता संजय लीला भंसाली के सिनेमा में क्या है? मगर मैं जानता हूं कि आज किसी की हिम्मत नहीं कि सच को सच की तरह दिखा दे। कुछ मुस्लिम संगठनों ने भी भंसाली की फिल्म का विरोध किया है। उनकी दलील दिलचस्प है। वे फरमा रहे हैं कि पद्मावती में मुसलमानों की छवि खराब की गई है। देखिए तो उन्हें अलाउद्दीन में एक मुसलमान दिखाई दे रहा है?
कभी सोचता हूं कि युद्ध हारने के बाद राजे-रजबाड़ों की जो काफिर औरतें इन सुलतानों-बादशाहों और उनके बाकी फौजियों के हिस्से में गई होंगी, उनकी औलादें और उन औलादों की औलादें आज कहां किस रूप में होंगी? वे जो जोर-जबर्दस्ती या लालच से धर्मांतरित हुए होंगे, उनके बच्चे और उनके बच्चों के बच्चे आज कहां और कैसे होंगे, क्या कर रहे होंगे? उनकी याददाश्त में क्या होगा? और आज जो हैं, वे कैसे महमूद, अलाउद्दीन, तुगलक, तैमूर, बाबर और औरंगेजब से अपना रिश्ता जोड़ सकते हैं। वे भी तो इनके पुरखों को दिए जख्मों के जीते-जागते, चलते-फिरते सबूत हैं। इस्लाम के नाम पर सदियों तक लूटमार और कत्लेआम करते रहे इन सुलतानों-बादशाहों से परेशान पुरखे हम सबके एक ही थे। जरूरत है कि ये अपनी याददाश्त पर जोर डालें। तारीख के पन्ने पलटें। अपने दानिशमंदों से मशविरा करें, सवाल पूछें-हम कौन हैं, हमारे पुरखे कौन थे? वे जो यहां हमले करने आए या वे जिन पर हमले हुए और मरते-कटते रहे, जलील होते रहे। अपनी जातीय स्मृति को जगाएं। सच का सामना करें!
अब कुछ नहीं हो सकता। आपके जौहर के बाद इस जमीन पर बहुत कुछ घटा है। यह देश तीन टुकड़ों में बटा है। आप आकर देखें तो हैरान होंगी। अब हम यहां बहुसंख्यक हैं। हम ही अल्पसंख्यक हैं। जबकि आपके समय तक हम काफी कुछ एक ही थे। मगर हमारी याददाश्त कमजोर हैं। हमें पता ही नहीं कि हमारी बेकसूर मां-बहनों के साथ क्या हुआ? कौन कहां से आया और हमारे साथ क्या खेल कर गया? हम जो बहुसंख्यक हैं, वे आपकी कहानी से आहत महसूस करते हैं। हम जो अल्पसंख्यक हैं, वे अलाउद्दीन को अपना समझते हैं। आशा है आप हमारी भूल को माफ करेंगी।
प्रिय पद्मावती हमें विश्वास है आप स्वर्ग में ही होंगी। आप धरती पर मत आइएगा। यहां कुछ भी नहीं बदला है। भारत में लौटकर आपको दुख ही होगा।
उत्तर की प्रतीक्षा है।
आपका ही-
विजय मनोहर तिवारी
14 नवंबर 2017
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