Friday 7 April 2017

मोरारी बापू और राम का तलगाजरडा

चैत्र नवरात्र के नौ दिन दिन तक पूरे समय मोरारी बापू की राम कथा सुनी। कल कथा की पूर्णाहुति थी। मेरी मां उन्हें नियमित सुनती थीं। कथा कहीं भी हो टीवी चैनल पर वे पूरे भक्तिभाव से सुना करती थीं। 2013 मंे वे इंदौर आए थे। तब मां को उन्हें सुनते हुए मैंने कुछ टुकड़े मोबाइल में रिकाॅर्ड किए थे। उनके साथ टुकड़ों-टुकड़ों में कथा के कुछ हिस्से मैंने भी अक्सर सुने। इस बार भोपाल में उनके आने का निमित्त बना और संयोग से मुझे भी मुक्त मन से सुबह नौ से दोपहर डेढ़ बजे तक सीधे सुनने का अवसर मिल गया। एक अच्छे अनुभव से गुजरा।
बापू हर बार अपनी कथा के लिए मानस का कोई एक प्रसंग या पात्र ले लेते हैं और फिर पूरे नौ दिन की कथा भारत की महान पौराणिक गाथाओं से गुजरती हुई उसी पात्र या प्रसंग के आसपास घूमती है। भोपाल में उन्होंने मानस विष्णु को अपना विषय के रूप में चुना। रामचरित मानस में विष्णु पर जो कुछ तुलसीदास ने कहा है, उसका वर्णन। भगवान राम विष्णु के अवतार थे या राम से विष्णु का अवतरण है? बापू कहते हैं कि राम ही परम तत्व हैं। उनसे कई विष्णु अवतरित हैं। 
 लगभग चार घंटे की बैठक मंे मोरारी बापू का उदबोधन आपसी संवाद की शैली में बमुश्किल देा से ढाई घंटा होता है। बाकी समय में मानस की चौपाइयों का कीर्तन, राम भजन। ढाई घंटे में भी कभी तीस-चालीस मिनट श्रोताओं की चिटि्ठयों पर चर्चा, पंद्रह-बीस मिनट कोई गीत, शायरी। बीच-बीच में राम का आवागमन हैं। कभी शिव और पार्वती के कथा प्रसंग, कभी विष्णु के वैभव की चर्चा और कभी महाभारत के रोचक किस्सों में कृष्ण पर बात।  
शुरू के दो दिन एक शब्द मैंने बार-बार सुना लेकिन समझा नहीं कि इसका अर्थ क्या है? वह शब्द था-तलगाजरडा। किसी भी बात पर बापू कहते-अपनी तलगाजरडा समझ मंे तो यह ऐसा है। तलगाजरडा परंपरा में यह ऐसा नहीं है। मैं समझा कि वे किसी गुजराती विषय से जोड़ रहे हैं। तीसरे दिन मैंने उनकी वेबसाइट देखी। पता चला कि तलगाजरडा उनका पैतृक गांव है। गुजरात के भावनगर जिले में महुआ तहसील का एक गांव, जहां शिवरात्रि के दिन 1947 में मोरारी बापू का जन्म हुआ। अपने गांव का नाम उन्होंने हर दिन किसी न किसी संदर्भ में लिया ही। जैसे तलगाजरडा के राम मंदिर मंे जो शिवलिंग है, एक दिन बापू ने उसका नामकरण किया-जीवनेश्वर महादेव। आज से तलगाजरडा के राम मंदिर के शिव का नाम जीवनेश्वर महादेव।

बीच कथा में बापू भावुक होकर कहते-मैं तुलसी का गुलाम हूं। अपनी जुबान को बेच दिया साहब! तुलसी और राम के प्रसंगों में कई बार उनकी आंखें छलछलाती। रामकथा का यह कर्णप्रिय गायक आत्मा की गहराई से बोलता महसूस होता। उनके कीर्तन पर झूमने के लिए श्रोता तैयार ही बैठे रहते। वे किसी विद्वान के वक्तव्य को अपनी कथा में लेते तो बड़ी ईमानदारी से स्वीकार करते कि यह जे. कृष्णमूर्ति का कहा हुआ है अौर यह ओशो ने कहा। ओशो का जिक्र तो हर दिन ही हुआ। वे कहते कि भागवत और रामकथा के वक्ताओं को यह सच सामने रखना चाहिए कि वे जिस किसी विद्वान की बात अपने प्रवचन में ले रहे हैं, उसके नाम का उल्लेख भी किया जाए। बापू कहते-यह ऋण है उन महापुरुषों का।
आत्मा के रस से सराबोर उनकी वाणी मधुर है। भारतीय जनमानस में राम की प्रतिष्ठा भी अदभुत है। तुलसीदास ने रामचरित मानस के जरिए राम की कथा को श्लोक से लोक में उतार दिया। संवत् 1631 में रामनवमी के ही दिन तुलसी ने अयोध्या में रामचरित मानस की रचना की। बापू ने बताया कि उस दिन लगन भी वही था, जो राम के जन्म के दिन चैत्र नवरात्र शुक्ल पक्ष की नवमी को था। किसी ईश्वरीय योग से ही तुलसी एक ऐसे समय प्रकट हुए, जब भारत दमन के अंधेरे में गुम था। वह अकबर की हुकूमत का समय था, जब माना जाता है कि मुस्लिम शासन के भयावह दौर मेंेे भारतीयों को कुछ समय की राहत नसीब हुई थी।
 बापू ने एक दिन अयोध्या में कथा की इच्छा प्रकट की। वे मानस गणिका पर कथा करना चाहते हैं। रामचरित मानस में गणिका के प्रसंग और पात्र पर। एक गणिका का किस्सा भी उन्होंने सुनाया-वासंती नाम की एक गणिका अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अवध में जाकर बसी। उसे तुलसी की कामना है। परम बैरागी तुलसी अवध की गलियों से गुजरते हैं। वह तुलसी की माला जप रही है। किसी ने गोस्वामी से कहा-वह आपका नाम रट रही है। पहले दुनिया को रिझाया। अब रघुनाथ को रिझाने आई है। मानस का तुलसी उससे मिलने जाता है। गणिका का दर्शन देने। वह उठने की कोशिश करती है। गोस्वामी निकट आए। वासंती के हाथ कांप रहे हैं। तुलसी के चरण स्पर्श करते हैं। वह बोलने की कोशिश करती है। बाबा के चरण उसके निकट आए। बाबा ने चरणों का दान वासंती को किया। दोनों हाथ उसके चरणों पर हैं। गोस्वामी उसके सिर पर हाथ रखते हैं-कुछ कहना है वासंती? वह बोली-एक बार आपके मुख से राम का गुणगान सुनना चाहती हूं। तुलसी गाते हैं-श्रीरामचंद्र कृपालु भजमन...। यह पद पूरा होता है और उधर वासंती अस्तित्व में लीन हो जाती है। तुलसी का वासंती के पास जाने का संदेश है कि समाज को वहां जाना चाहिए, जहां कोई नहीं जाता। मैं अयोध्या में मानस गणिका पर कथा कहना चाहता हूं।
हर दिन उनके पास श्रोताओं के प्रश्नों की संख्या बढ़ती रही। मेरा एक सवाल था-अयोध्या में राम अपने जन्मस्थान से विस्थापित हैं। यह एक उलझन बनी हुई है। आप कई शायरों के साथ मिलते-बैठते हैं। कभी इस मसले पर कोई चर्चा हुई? बापू ने कोई उत्तर नहीं दिया। हर दिन तलगाजरडा का उल्लेख सुनने के बाद मैंने उन्हें फिर से लिखा-बापू, आप हर िदन तलगाजरडा का जिक्र करते हैं। आपकी महानता है कि आप इतनी विनम्रता से स्वयं को तुलसी का गुलाम कहने का साहस करते हैं। मगर तुलसी के भी मालिक हैं राम और अयोध्या उनकी तलगाजरडा है। उनका जन्म स्थान। लेकिन राम अपनी जन्मभूमि में बेदखल हैं। एक बदशक्ल टेंट में पनाह लिए हैं, जिनकी कथा आपसे सुनकर लाखों श्रोता श्रद्धा से भर जाते हैं। कभी राम के तलगाजरडा पर भी कुछ कहिए। दो शब्द!
मैंने दो दिन तक एक कागज पर घुमा-फिराकर यह प्रश्ननुमा जिज्ञासा उनके समक्ष भेजी। उन्होंने दूसरे कई ऐसे प्रश्न ही लिए जिनके विषय जीवन से जुड़े थे। कोई दुखी है। कोई निराश है। किसी ने कथा में कोई संकल्प ले लिया। शिव, विष्णु या राम से जुड़ा कोई प्रश्न। संभव है मेरी तरह और मानसप्रेमियों ने भी वर्तमान के कुछ प्रश्न लिख भेजे हों। लेकिन उन्होंने ऐसा कोई सवाल नहीं उठाया। आखिरी दिन कथा की पूर्णाहुति पर जब राम अयोध्या लौटे और एक व्यक्ति के संदेह पर सीता को निकाला गया तब बापू ने कहा कि तुलसी रामचरित मानस में इस प्रसंग की चर्चा नहीं करते। तुलसी क्या इशारा कर रहे हैं? तुलसी विवादों से बचना चाहते हैं। वे संवाद चाहते हैं, विवाद नहीं। सीता का त्याग एक विवादास्पद प्रसंग है। तुलसी अपने मानस में इससे बचे।
मुझे लगा कि बापू का इशारा ऐसे सब सवालों की तरफ था, जो हमारे सामने हैं। आज की अयोध्या में एक फटेहाल टेंट में विराजित राम का प्रश्न। एक हजार साल के दमन के दाैर में आहत सभ्यता के बेचैन कर देने वाले अनगिनत सवाल। सत्तर साल से सेकुलर सिस्टम में पनपी गाजरघास में घुमड़ते सवाल। नौ दिन में उन्होंने अपनी ओर से कभी कलयुग के भारत काे शायद ही स्पर्श किया हो। किसी ने उस दिशा में मोड़ने की कोशिश सवालों के जरिए की भी हो तो वे बचकर निकले।
मैं कई बार अयोध्या गया हूं। करोड़ों भारतीयों के आराध्य भगवान राम को उस टेंट में देखना वाकई एक तकलीफदेह अनुभव की तरह रहा। मैंने बापू को उसी भावुक धरातल पर पूरी श्रद्धा से सुना। त्रेतायुग में जगमगाते राम उनकी कथाओं का केंद्र हैं। तुलसी भी, जिन्होंने लोकभाषा में राम की कथा कही और भारतीयों के अंतस में उतार दी। हजार साल के मुस्लिमकाल में हजारों मंदिर ध्वस्त किए गए। अकेले एक निहत्थे तुलसी की एक कविता ने राम की प्रतिष्ठा पीढ़ियों के मानस में कर दी। 
 
बापू के वचन त्रेतायुग की चमकदार अयोध्या की झिलमिलाती झांकी से होकर तुलसी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर ही केंद्रित रहे। मुझे आज की उजाड़ अयोध्या रोज ही याद आती रही। बापू वहां तक भूलकर भी आए नहीं। राम के तलगाजरडा पर बोलना एक सर्वमान्य और विश्वप्रसिद्ध वक्ता के लिए नुकसानदेह हो सकता है। सहज और संतुलित वक्ता की छवि टूट सकती है, क्योंकि अाज की अयोेध्या पर आप क्या कहेंगे? मंदिर का उल्लेख किए बिना कैसे रहेंगे। इसलिए बेहतर है कि अच्छे शायरों के कलाम सुनाए जाएं, अल्लाह, पैगंबर,जीसस, निजामुद्दीन औलिया और अमीर खुसरो के किस्सों के सहारे थोड़ा व्यापक हो लिया जाए, दार्शनिक अर्थ देने वाले फिल्मों के चुनिंदा गीतों को गा लिया जाए। मानस के विष्णु का एक अर्थ यह भी है-जो व्यापक हो, विशाल हो। आकाश भी जिसमें समा जाए। मानस विष्णु ही उनका इस कथा में केंद्रीय विषय था।

कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...