Sunday 26 October 2014



                                                                               बुद्धं शरणं
विशाखापत्तनम आंध्रप्रदेश का सबसे बड़ा समुद्रतटीय कारोबारी शहर है। तूफान के पहले शानदार हरियाली के बीच बसी बीस लाख आबादी। शहर से सटी एक पहाड़ी इसे दो हजार साल पुरानी विरासत से जोड़ती है। पकी हुई ईंटों से बना बौद्ध मठ। अपने मूल रूप में यहां का स्तूप 80 फुट ऊंचा रहा होगा। इस पहाड़ी के उतार पर सामने दूर तक समुद्र लहराता हुआ देखिए। गौतम बुद्ध के अनुयायी यहां समुद्री रास्ते से ही आए होंगे।


 सम्राट अशोक ने जब कलिंग की लड़ाई जीती तब यह इलाका कलिंग की सीमाओं में था। आसपास कई पहाडिय़ों पर बौद्ध मठ बने। मैंने बिहार में प्राचीन नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय के खंडहर देखे हैं। उत्तरप्रदेश में श्रावस्ती और इलाहाबाद के पास कौशांबी नाम की जगह पर भी गया हूं। वाराणसी के पास सारनाथ तो कई बार जाना हुआ है। इनमें श्रावस्ती, सारनाथ और कौशांबी वे जगहें हैं, जहां गौतम बुद्ध स्वयं आए। तथागत के जीवन के करीब 24 चातुर्मास श्रावस्ती में ही हुए।
 इन सारे बौद्ध स्मारकों में समानता यह है कि इनके निर्माण की तकनीक और सामग्री बिल्कुल एक जैसी है। अलग-अलग आकार की पकी हुई ईंटों का बेजोड़ इस्तेमाल हुआ है। यहां पत्थर का उपयोग न के बराबर है। सिर्फ फर्श और दरवाजों पर। विशाखापत्तनम के बौद्ध परिसरों का निर्माण भी बिल्कुल इसी ढंग से हुआ है। यह सारनाथ, कौशांबी, नालंदा और विक्रमशिला का ही विस्तार मालूम होता है।

 यह भारत की रगों में रची-बसी रचनाशीलता की चमकदार श्रृंखला है। इतिहास के थपेड़ों ने काफी कुछ नष्ट कर दिया मगर ये खंडहर आज भी हमें गर्व की अनुभूति देते हैं। हमें आत्मविश्वास से भरते हैं। हमें अपनी मजबूत नींव का अहसास कराते हैं। इन स्मारकों में हमारे महान् पूर्वजों का परिश्रम और खून-पसीना ही नहीं लगा, उनकी सृजनशीलता और साहस के भी प्रमाण हैं ये।

Saturday 25 October 2014

                                                          तूफान से तबाह
 दो हफ्ते हो गए। विशाखापत्तनम में तूफान की तबाही ने कुछ भी साबुत नहीं छोड़ा है। दीपावली के ठीक पहले चार दिन मैं वहां रहा। मगर एक भी आदमी सरकार के प्रति शिकायत से भरा नहीं मिला। यह हैरत की बात थी। ऐसे मौकों पर आमतौर पर सबसे ज्यादा लोग सरकार से ही खफा होते हैं। इसकी वजह मुझे कलेक्टर ऑफिस में देखने को मिली, जहां मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने पिछले एक हफ्ते से कैम्प किया हुआ था। वे किसी दफ्तर में नहीं बैठे। कहीं होटल या सर्किट हाऊस में नहीं रुके। न ही अपने चमचों से घिरे घूमते रहे।
 तूफान के थमते ही आए। एक बस में रुके। वहीं सुबह नौ बजे से रात दो बजे तक काम करते। गांव जाते। शहर का मुआयना करते। संबंधित विभागों के सारे मंत्री और आरामतलब अफसर मजबूर होकर चिलचिलाती धूप में मैदान में मौजूद रहे। आम पब्लिक में से कोई भी उनसे आकर मिल सकता था। लीडर को इस रूप में पूरी सरकार आ जुटी। आरामतलब अफसर बस्तियों में दौड़ते-भागते नजर आए। मैंने नायडू ने अलग से मुलाकात की। बस में रुकने और मीटिंग करने के बारे में उन्होंने ने कहा, ‘यह मुश्किल ऑफिस में बैठकर हल होने वाली नहीं थी। फिर  तो मैं हैदराबाद के सचिवालय में मीटिंग करता। मुझे मैदान में होना ही चाहिए था।’



 एबीपी न्यूज चैनल के हमारे मित्र ब्रजेश राजपूत मुझसे पहले विशाखापत्तनम जा चुके थे। उनसे कुछ जानकारियां लेकर मैं भी गया। हर साल छोटे-बड़े करीब तेरह तूफान उठते हैं यहां। मगर पहली बार किसी ने शहर पर सीधा हमला बोला। दो सौ किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से जब बवंडर चला तो चौबीस घंटों तक बीस लाख लोग बंद घरों में दिल थामे बाहर का शोर सुनते रहे थे। जब दरवाजे खुले तो बरबादी के निशान सामने थे। शहर की खूबसूरती उजड़ चुकी थी। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश एयरफोर्स में रहे 92 वर्षीय के. जगन्नाथराव कहते हैं, ‘कुदरत का ऐसा कहर किसी ने इसके पहले कभी नहीं देखा था।’

 सोमवार, तेरह अक्टूबर की सुबह से ही शहर एक ऐसे बड़े घर में बदल गया, जहां बीस लाख लोग एक साथ रहते हैं। हर कोई साफ-सफाई में लगा है। मछुआरों की बस्तियों में मिलजुलकर नावों की मरम्मत की जा रही है। बिजली के खंभे सीधे खड़े किए जा रहे हैं। हजारों बंद कारखानों में नए सिरे से शुरू करने की हलचल है।
  प्रदेश के सबसे बड़े औद्योगिक शहर में इस बार दिवाली की बंपर खरीददारी के आंकड़ों की जगह दूसरे ही आंकड़ों की चर्चा है। करीब 70 हजार करोड़ के नुकसान का अंदाजा है। 27 हजार बिजली के खंभे धराशायी हैं। 8000 किलोमीटर लंबी बिजली की लाइनें खराब हुई हैं। 7300 ट्रांसफर टुकड़े-टुकड़े हो गए। 80 लाख पेड़ उखड़ गए। आसमान सुनसान है। भूला-भटका शायद ही कहीं कोई परिंदा दिखे। जो भी था गुजर गया। सबको बड़ी राहत यही है कि चार दिन पहले से लोग तूफान से खबरदार थे। इसलिए जानमाल का उतना नुकसान नहीं हुआ। महफूज लोग जब घरों से निकले तो पूरा शहर ही एक घर बन गया। युवाओं ने अपने मोहल्ले संभाल लिए। कुछ दूसरी गलियों में गए। सब मिलकर शहर को साफ कर रहे थे। जिन बस्तियों में नुकसान ज्यादा हुआ, वहां मदद पहुंचा रहे थे। त्योहार के समय आई मुसीबत एक ऐसा इम्तहान बन गई, जिसमें हर कोई अव्वल आया।
 समुद्र से सटी कैलाशगिरि की हरी-भरी पहाडिय़ां उजाड़ हैं। इलाके में लाखों पेड़ सूखे कंकालों की तरह बिखरे हैं। शहर के सबसे व्यस्त मॉल सीएमआर सेंट्रल में दिन भर लोगों की लंबी कतारें हैं। इधर दिवाली की खरीददारी नहीं चल रही। लोगों के हाथों में पटाखे नहीं, पौधे हैं। वृक्षों की नौ प्रजातियों के करीब 25 हजार पौधे रोज बटे। हर तबके के लोग आए। उनके नाम और फोन नंबर दर्ज किए गए। सीएमआर के कर्ताधर्ता एम. वेंकटरमण ने बताया कि हम हर तीन, छह और नौ महीने में पौधों की प्रगति फोन पर पूछेंगे। जाकर तस्वीरें लेंगे। पौधों की अच्छी परवरिश करने वालों को खरीददारी पर खास रियायत होगी। वक्त लगेगा मगर हम हरियाली को वापस लाकर हुदहुद को जवाब देंगे।

  विशाखापत्तनम की खास पहचान है चार मिलियन टन उत्पादन क्षमता का स्टील प्लांट। फिलहाल यह इंसान के इस्पाती इरादों का जीता-जागता नमूना है। तूफान के बाद का आकलन था कि उत्पादन शुरू होने में कम से कम चार हफ्ते लगेंगे। मगर सिर्फ छह दिन में ही शुरू हो गया! 15 में से चार यूनिटें इस्पात ढाल रही हैं। हर दिन 12 हजार टन हॉट मैटल के उत्पादन के लिए ढाई सौ मेगावॉट क्षमता का बिजलीघर यहीं है। कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन में डिप्टी मैनजर के. बंगार राजू बताते हैं, ‘ताकतवर तूफान कुछ रुकावटें ही लाया। नायडू ने हमें 50 मेगावॉट बिजली दी। इससे हमें प्लांट शुरू करने में आसानी हुई। वे पल हमारे लिए दिवाली जैसे थे। चालीस हजार कर्मचारियों के चेहरे खिल उठे थे।’ दिवाली के मौके पर लोग नायडू के साथ समुद्र किनारे मोमबत्तियां लेकर हजारों लोग चुपचाप गुजरे। यह बताने के लिए कि हम जिंदा हैं। सब कुछ फिर जुटा लेंगे।

Saturday 11 October 2014

                                              बेचैनी का बयान
 डूबकर नहीं डूबा हरसूद। प्रोफेसर प्रेमशंकर रघुवंशी की लंबी कविता एक ऐसे समय आई है, जब देश भर की हमारी सरकारें अपने राज्यों में पूंजी निवेश की खातिर दुनिया भर के धनपतियों के स्वागत में दरवाजे पर वंदनवार सजाकर सिर पर मंगल कलश लिए खड़ी हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और नए राज्य तेलंगाना के केसीआर एक साथ सिंगापुर में निवेश की संभावनाओं के लिए कटोरे लिए घूम रहे हैं। मध्यप्रदेश में आठ बार इन्वेस्टर्स का मेला लग चुका है। लाखों करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट कतार में हैं। सरकारी तंत्र के लिए यह दिवाली है।
 सरकारों की चिंता वाजिब है। पांच साल के लिए चुनकर आने वाले नेता भारी दबाव में हैं। अब कोरे वादों और भावुक भाषणों के जमाने लद रहे हैं। जनता नतीजे चाहती है। वह भी फौरन। कुछ चमत्कार होना चाहिए। और वह क्या है? उसे अच्छी सडक़ें चाहिए, स्कूल-अस्पताल-कारखाने चाहिए, टेक्नॉलॉजी चाहिए, उन्नत खेती चाहिए, इनके लिए हर समय बिजली चाहिए, रोजगार चाहिए। यह सब करने में परंपरागत रूप से भ्रष्ट सरकारों की सामथ्र्य कितनी है? उनके नेताओं की अपनी ट्रेनिंग क्या है? वे अकेले के दम पर क्या कर सकती हैं? इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए पलक पांवड़ें बिछ रहे हैं। यही सबसे आसान है।



 मध्यप्रदेश में एक हजार मेगावॉट बिजली की इंदिरा सागर परियोजना में डूबे ढाई सौ गांवों में हरसूद एक प्रतीक बनकर अमर है। उसे डूबे हुए दस साल हो गए। मगर वह जेहन में ताजा है और रहेगा। वर्ना यह कविता कहां से आई? मुझे 2004 में जून की चिलचिलाती गर्मी और देर से आए मानसून के वे दिन याद हैं, जब इस बांध के कारण हुआ विस्थापन अपने आखिरी दौर में था। भारी अफरातफरी और जल्दबाजी में लोगों को उनके घरों से निकाला गया था। उनके पुनर्वास के इंतजाम सरकारें नहीं कर पाई थीं। दुनिया भर के सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया की टीमें वहां हमारी हर तरह की नाकामियों को नजदीक से देख रही थीं।
 दिग्विजयसिंह के दस साल के राज में लालटेन युग की तरफ सरक रहे मध्यप्रदेश को बिजली चाहिए थी। बांध उनके समय बना। विस्थापन की पीड़ा के ठीकरे भाजपा की नई नवेली सरकार के सिर फूटे। विजन न उनके पास था, इनके पास समय भी नहीं था कि पता चले कि विजन है कि नहीं। सरकारों में वैसे भी पांच साल से आगे देखने की सामथ्र्य वाले माई के लाल कम ही हैं।
 प्रो. रघुवंशी की कविता में भी हरसूद सिर्फ एक प्रतीक है। एक भावुक प्रतीक, जो विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर छोड़े गए कुछ जरूरी सवालों को सामने रखती है। ये सवाल मानवीय विस्थापन और पुनर्वास से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें प्रकृति के विनाश की ज्यादा जरूरी चिंताएं हैं। लेखक के दिल के तार न सिर्फ हरसूद बल्कि उस पूरे इलाके से गहरे जुड़े हैं, जिसे बांध की सख्त दीवार से टकराकर पीछे पसरे नर्मदा नदी के बेक वॉटर ने लील लिया।
 सत्तर के दशक में उन्होंने कई साल यहां बिताए हैं। स्कूलों में पढ़ाया। गांवों में रहे। घाटों पर बैठे। रचे-बसे। नैसर्गिक रूप से समृद्ध नर्मदा की हरी-भरी घाटी का करीब 900 वर्ग किलोमीटर का इलाका जलमग्न है। डेढ़ लाख आबादी को बिखरे हुए दस साल हो गए। यह एक अलग कहानी है। संयुक्त परिवारों के बिखरने की। खेतीबाड़ी के मालिकों के सडक़ों पर आने की। सरकारी तंत्र की बेरहमी और संवेदनहीनता की। भ्रष्टाचार की। आम आदमी की बेबसी की। इस कविता में वही दर्द और आंखों में भर आए आंसू शब्दों में ढलकर जैसे बह निकले हैं। यह कविता कोरा भावुक बयान नहीं है।

 इस कविता में एक वृद्ध आचार्य अपने अतीत की स्मृतियों में झांक रहा है। वर्तमान की करतूतों को देख रहा है। और तब भविष्य के कुछ सवाल उसका पीछा करने लगते हैं। उस भविष्य के सवाल, जिसमें वह नहीं होगा। समय के इन तीन सिरों में अचानक आया एक बांध है। राजधानियों से उठते विकास के उजले नारे हैं। दूर देहातों में हकीकत में पसरा अंधेरा है। धोखा है। चालबाजियां हैं। तब एक बेचैनी है, जो अमानवीय और निष्ठुर तंत्र की उपज है। यह बेचैनी कहां जाएगी? वह कविता में उतरेगी।
 कभी सोचता हूं कि अगर इंदिरा सागर बांध परियोजना के विस्थापित बहुत आदर्श ढंग से कहीं बसाए गए होते, उन्हें उनके हिस्से के वाजिब मुआवजे मिले होते, वन संपदा को बचाने की कुछ और अधिक ईमानदार कोशिशें की गई होंती, पशु-पक्षियों और वन्य प्राणियों की कुछ बेहतर देखभाल की गई होती, सरकारें कुछ और मानवीय ढंग से पेश आई होतीं तो क्या होता? तब प्रो. रघुवंशी की कविता किस रूप में सामने आती? मगर हुआ इसके बिल्कुल उलट। इसीलिए यह दर्द है। यह आंसू हैं। सुनहरी यादें हैं। यह कविता है।
इस कविता ने निजी तौर पर मुझे उसी सन्नाटे में ला खड़ा किया है, जो मैंने 2004 में हरसूद को कवर करते हुए अपने भीतर गहरे तक पाया था। वे सारे किरदार मेरी आंखों में ताजा हो उठे हैं, जिन्हें हमने मजबूर हालातों में अपनी जमीन से उखडक़र बिखरते देखा। उस हाल में भी अपनी जेबें भर रहे सरकारी अफसर और उनके दलाल आसमान में उड़ते चील-गिद्धों की तरह थे, जो जमीन पर मांस नोचने के लिए झपटते हैं। मगर बांध के पीछे की इस डूबती जमीन पर मुर्दे नहीं पड़े थे। जिंदा लोग अपने अधिकारों के लिए आस लगाए थे, जो उखडऩे के सालों बाद अदालतों के चक्कर लगाते रहे।
 हरसूद का विस्थापन 2004 में हुआ। हजारों लोग अपने नए ठिकाने की तलाश में दूर-दूर तक बिखर गए। स्कूलों से बेदखल मासूम बच्चों की धुंधली यादों में हरसूद उनके जिंदा रहने तक पीछा नहीं छोड़ेगा। टूटकर बिखरी हुई नौजवान पीढ़ी खुद को संभालने में अपनी उम्र के बाकी साल बिताएगी। बूढ़े पुराने गली-मोहल्लों, खेत-खलिहानों और दुकान-बाजारों की तकलीफदेह यादों को लिए अपने अंतिम सफर पर जाएंगे।
 प्रो. रघुवंशी की कविता विशाल भारत के नर्मदा घाटी के एक छोटे से कोने में पली-बढ़ीं तीन पीढिय़ों का बयान है। यह मनुष्य के जिंदा रहने का सबूत है। यह एक दस्तावेज है। एक गवाही है कि जब विकास की योजनाओं को विनाश लीला की तरह अमल में लाया गया तो सब खामोश नहीं बैठे थे। कुछ बेचैन भी थे।
 बेचैनी जिंदा लोगों में होती है। मुर्दों में नहीं।

Friday 10 October 2014

                       विदिशा में किले अंदर
 विदिशा में पुरानी बस्ती को कहते किले अंदर हैं। मगर किले जैसा कुछ नहीं है। कुछ ढूंढने निकलेंगे तो पुरानी दीवारों के पत्थर कहीं-कहीं झांकते नजर आ जाएंगे। किले अंदर की गलियों से गुजरेंगे तो इतिहास आपके कानों में कुछ कहता हुआ महसूस होगा। सदियों पुराने मंदिरों के अवशेष किसी दीवार में दिखेंगे। कहीं काले पहाड़ नाम का पुराने पत्थरों का टीला बचा है। एक के ऊपर एक रखे तराशे हुए पत्थरों को उघाडि़ए। शानदार सदियों के सबूत तह करके रखे हैं। मुगलों का नामोनिशान मुल्क से मिट गया। मगर मुगलटोला विदिशा में मौजूद है। नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी यहीं पले-बढ़े।
 मेरे लिए कॉलेज के दिनों की यादों का शहर है विदिशा। गणित में एमएस-सी के बाद यहीं के एसएसएल जैन पीजी कॉलेज में एक साल पढ़ाकर निकला हूं। छह साल गुजारे। मेरा ननिहाल इसी इलाके में है। ऐतिहासिक रूप से यह इतना समृद्ध रहा है कि रोमांच होता है। 23 सौ साल पहले मगध में मौर्य साम्राज्य था। चंद्रगुप्त मौर्य के पौते थे अशोक, जो अपने पिता बिंदुसार के समय उज्जैन के गवर्नर रहे। तब विदिशा की कन्या से विवाह किया। जब खुद सम्राट बने और बौद्ध धर्म की शरण में आए तो महान् स्तूपों के निर्माण के लिए सांची की पहाड़ी को चुना। उनके बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए थे धर्म के प्रचार के लिए। अपनी मां से मिलने वे यहां आए।



 जिन पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य राजवंश के अंतिम दुर्बल शासक ब्रहद्रथ को एक सैनिक परेड में खत्म किया, वे विदिशा मूल के ही थे। कालिदास का नाटक मालविकाग्निमित्रम् विदर्भ की राजकन्या मालविका और अग्निमित्र की प्रेम कहानी है। पुष्यमित्र के बेटे थे अग्निमित्र। यह शहर उत्तर से दक्षिण को जोडऩे वाले प्राचीन राजमार्ग पर था। जब भारत की गुलामी का दौर शुरू हुआ तो यहां भी ग्रहण लगा। बीजामंडल के खंडहर उन बर्बर हमलों की याद दिलाते हैं, जो सात सौ सालों तक हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करते रहे। अलाउद्दीन खिलजी ने विदिशा को लूटा तो यहीं के किसी आदमी ने उसे देवगिरि की अथाह दौलत के किस्से सुनाए थे।
 देवराज बिरदी जब कलेक्टर थे एक किताब पर काम किया था उन्होंने-विदिशा थ्रो द एज। मुझे स्टुडेंट लीडर रहे स्वर्गीय अनिल सक्सेना टप्पू ने वह किताब पढऩे को दी थी। विदिशा के रहने वाले पूर्व सांसद निरंजन वर्मा ने भोपाल रियासत के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान के कारनामों पर एक उपन्यास लिखा था-बाणगंगा से हलाली।

 अटलबिहारी वाजपेयी यहां से सांसद चुने जाते थे। उन दिनों हम कॉलेज में थे, जब कलेक्टोरेट में वे परचा भरने आते थे। फिर शिवराजसिंह चौहान यहीं से चुने गए और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक गए। यह एक सुरक्षित सीट मानी गई इसीलिए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष रहीं सुषमा स्वराज को यहां आना आरामदायक लगा। यह और बात है कि इन हस्तियों के राजनीतिक करिअर में एक खामोश भूमिका निभाने वाले विदिशा शहर के हिस्से में उल्लेखनीय कुछ नहीं आया।
 कैलाश सत्यार्थी को नोबेल न भी मिलता तो उन्होंने जो काम किया है, वह उतना ही महत्वपूर्ण और प्रेरक होता। यह और बात है कि नोबेल में नाम आने से मुख्यधारा के मीडिया में उनका गुणगान हो गया वर्ना यतीम और मजदूर बच्चों जैसे रूखे और बेरौनक विषय पर किस चैनल के पास समय था और कौन अखबार अपने कीमती डेढ़ पेज खराब करता? आदतन हर जरूरी काम को कल और दूसरों पर टालने वाले भारतीयों के बीच कैलाश सत्यार्थी जैसे व्यक्तित्व बड़े-बड़े ऊंटों को उनकी ऊंचाई का असली अहसास कराते हैं। सत्यार्थीजी ने विदिशा का मान बढ़ाया। ये ऐसा काम है, जो यहां से चुन-चुनाकर गए मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री या नेता प्रतिपक्ष के लिए भी समाज के अंधेरे कोनों को रोशन करने की प्रेरणा दे सकता है। वैसे इंसान अपना असली कद खुद बनाता है। उसके लिए किसी पद की जरूरत नहीं पड़ती।

Tuesday 7 October 2014

                                                            मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री
 प्रधानमंत्रीजी पधार रहे हैं। आज का दिन अहम है। मध्यप्रदेश के लिए। उससे ज्यादा मुख्यमंत्री के लिए। भाजपा की राजनीति में लालकृष्ण आडवाणी खेमे के हैं शिवराजसिंह चौहान। तभी तो नरेंद्र मोदी से रुष्ट आडवाणी लोकसभा जाने के लिए मध्यप्रदेश आना चाहते थे। मध्यप्रदेश के कई आयोजनों में आडवाणी उन्हें आशीर्वाद देने आते रहे हैं। हमने दोनों हाथों को चरणों तक ले जाते हुए उनके आदर में झुके शिवराज को अनगिनत बार देखा है। छोटे-बड़ों के बीच यह संस्कार की बात है। भाजपा से इसकी अपेक्षा यूं ही नहीं होती।
  पिछले विधानसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी प्रचार के लिए मध्यप्रदेश आएं या नहीं? शिवराज का यह डर लाजमी माना गया था कि मोदी के आने की सूरत में मुस्लिम बहुल सीटों का गणित फेल हो सकता है। हालांकि ऐसे मौके पर उन्हें अपने काम पर सबसे ज्यादा भरोसा जाहिर करना चाहिए था। यह और बात है कि वे खुद 120 सीटों से ज्यादा उम्मीद नहीं कर रहे थे। आडवाणी के सिपहसालार को बिगुल फूंकना जरूरी था। मगर यह क्या? मध्यप्रदेश में 160 से ज्यादा सीटें? यह किसका चमत्कार था।
 राजनीति कितनी अनिश्चितताओं से भरा खेल है? कुलमिलाकर एक साल के आसपास ही तो हुआ है। भाजपा में मोदी का प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में आगे किया जाना। उनका धुआंधार अभियान। यूपीए के परखच्चे उडऩा। मोदी की शपथ। आडवाणी और जोशी को सत्ता के व्यस्त कार्यालय से बलपूर्वक प्रदान स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति। पहली बार आने पर लोकसभा की दहलीज पर झुका उनका माथा। मंत्रियों और अफसरों की पस्ती। भूटान, नेपाल, जापान और अमेरिका की हॉलीवुड साइज प्रस्तुति। मीडिया की मस्ती।
 अब इस चकाचौंध कर देने वाले वैश्विक वातावरण में राजनीति में उनके ही समकक्ष सखा, अपने राज्य में तीन बार के लोकप्रिय मुख्यमंत्री शिवराज गूगल मैप पर कहां हैं? वे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीजी की पावन उपस्थिति में लक्ष्मीपुत्रों को मना रहे हैं। लक्ष्मीपुत्रों के लिए मोदी गारंटी कार्ड हैं। शिवराज के लिए राजनीति का नवीनीकृत राशन कार्ड। अमेरिका यात्रा की असीम ऊर्जा से ओतप्रोत नरेंद्र मोदी का एक घंटे के लिए मध्यप्रदेश की धरती पर आगमन यहां दिवाली का वातावरण बना रहा है। मोदी की शपथ के बाद आडवाणी का अकेलापन और गहराने वाली पहली घटना।
 प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो। मानस पढ़ा नहीं है। मां से सुना है। ऐसी ही कुछ पंक्ति है, जब भगवान से यह मनुहार की जा रही है कि वे गलतियों पर ध्यान न दें। उदारतापूर्वक अपनी कृपा बना रखें। सच्चे भक्त का यह अधिकार है। मोदी की मौजूदगी शिवराज के लिए आने वाले कल की बीमा पॉलिसी है। शर्तेें लागू।
 कौन जाने आडवाणी प्रधानमंत्री बने होते तो निवेशकों की गारंटी कौन लेता? मोदी की शपथ के पहले गुजरात के एक पत्रकार ने निजी बातचीत में कहीं मध्यप्रदेश को बागियों का अड्डा कहा था। लोकसभा चुनाव में गांधीनगर से प्रस्थान की स्थिति में भोपाल का कन्फर्म टिकट आडवाणी को आसान था। सुषमा यहां पहले से हैं, जो केबिनेट में नंबर दो पोजीशन को लेकर रूठकर विदिशा चली आईं थीं। खुद शिवराज मोदी के नाम पर मुस्लिम वोटों के बिदकने का डर दिखा चुके थे। बहरहाल उन मित्र की नजर में मध्यप्रदेश के मायने थे मोदी के मुखालिफों को खाद-पानी, इज्जत, हिफाजत और पुख्ता ठिकाना।
 मैं मानता हूं कि दिमागी तौर पर अति सक्रिय पत्रकार कई पेंच खुद पैदा कर लेते हैं। मजे लेते हैं। पुडिय़ा बांटते हैं। हर नेता किसी न किसी बड़े नेता की टीम में शामिल होता ही है। किसी और समय किसी और की टीम होती है। शिवराज आडवाणी से जुड़े थे। आडवाणी का भी अखंड आशीर्वाद अपने सीधे सहज सरल शिष्य शिवराज पर रहा। शिवराज ने भी मुख्यमंत्री बनने के बाद हर बड़े मौके पर उन्हें बराबर याद रखा। शिवराज को कम करके आंकने वाले किसी भी उत्पाती की हिम्मत नहीं थी कि वह शिवराज की शिकायत लेकर दिल्ली जाता। तय था कि आडवाणी उसके ही कान उमेठ कर इंदौर-भोपाल लौटा देते।
 प्रगाढ़ रिश्ते एक दिन में नहीं बनते। आडवाणी के आंगन में यह शिवराज की सालों की कमाई थी। प्रमोद महाजन ने भी इस समीकरण को मजबूत करने में सक्रिय भूमिका निभाई थी। नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री अलग हालात में बने। मध्यप्रदेश में शिवराज का आना अलग संयोग से हुआ। तब दोनों पर आडवाणी की कृपा समान थी। आजादी के बाद देश में मोदी अकेले मुख्यमंत्री हैं, जो अपनी तूफानी एकल प्रस्तुति के जरिए सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे। उन्होंने सिद्ध किया कि गुजरात उनके लिए एक शानदार लांच पैड था। शिवराज के खाते में ऐसा कोई करिश्मा याद करना होगा। दिग्विजयसिंह के दस वर्षीय प्रयासों के फलस्वरूप गर्त में गिरे एक राज्य को उठाने के लिए सिर्फ उनकी नेकनीयत ही काफी नहीं थी। रही-सही कसर उनके घरवालों और करीबियों ने पूरी कर दी। दिल्ली का शायद ही कोई प्रभावशाली कार्यालय बचा हो, जहां जून महीने में व्यापमं घोटाले की विस्तृत फाइल न पहुंची हो।
 दिग्विजयसिंह के जमाने के ग्राम संपर्क अभियान की तरह इन्वेस्टर्स मीट का सिलसिला शिवराज ने शुरू से ही चलाया हुआ है। इवेंट मैनेजरों की एक टीम तंबू यहां से उखाडक़र अगले शो के लिए अगली जगह पर चली जाती है। इसमें नेता, अफसर और उनके सलाहकारों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भोपाल का कोई भी राजनीतिक संवाददाता इस बात के आंकड़े देगा कि इन जलसों पर कितना पैसा खर्च हुआ और बीते वर्षों में जमीन पर काम कितना हुआ?
 रामकृष्ण कुसमरिया नाम के एक उदासीन प्रवृत्ति के सज्जन पुरुष लगने वाले नेता कृषि मंत्री थे, जब खेती को फायदे का धंधा बनाने का नारा लगा था। नारे का मतलब बड़े शहरों में दर्शनीय चंद बड़े होर्डिंग। हरे-भरे खेत की तस्वीर। मुख्यमंत्री का मुस्कराता हुआ चेहरा। मैं खुद गांव से हूं। किसान कुछ अपने कर्मों से और कुछ सरकारी सिस्टम के कारण आज भी उतने ही परेशान और तंग हैं, जितना पहले थे। तहसील स्तर पर भ्रष्टाचार भयावह है। बेकाबू। एक नया विधायक शिक्षा विभाग के तहसील स्तर पर तैनात कर्मचारियों से भी कुछ नियमित दक्षिणा की प्रार्थना कर सकता है। एक से लेकर तीन सौ करोड़ की दौलत के मालिक चपरासी, क्लर्क, डॉक्टर, आईपीएस और आईएएस पति-पत्नी की श्रृंखला देश भर के अखबारों के पहले पन्ने पर जगह बनाती रही है।
 अब ग्राउंड पर आइए। लंबे वनवास को भोगने के बाद उमा भारती दिल्ली में हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेदखल होने के घाव गहरे हैं। प्रभात झा राज्यसभा में विराजमान हैं, जो दूसरी बार मध्यप्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष बनने से वंचित कर दिए गए थे। उनके अत्यधिक परिश्रम को उनकी जरूरत से ज्यादा तेज रफ्तार माना गया। शांत रहते तो संगठन भले ही अपनी गति को प्राप्त होता मगर उनकी सुरक्षा की गारंटी तय होती। कप्तानसिंह सोलंकी को राजनाथ ने हरियाणा में तोपों की सलामी लेने के लिए नियुक्त कर दिया। मगर सबसे महत्वपूर्ण और सबसे मौन अनिल माधव दवे भी दिल्ली में हैं, जिन पर मोदी का भरोसा दूसरों से ज्यादा है। मैं नहीं जानता कि शिवराज यह चित्र देखकर बेचैन होते होंगे या नहीं, जिनके एक मंत्री, कई अफसर और परीक्षाएं देने वाले अनगिनत बेटे-बेटियां अपने पूज्य पिता सहित जेलों में बंद हैं।
 नरेंद्र दामोदरदास मोदी प्रधानमंत्री के रूप में मध्यप्रदेश में हैं। शिवराज उसी माइक पर मोदी के गुण गाएंगे, जो अब तक आडवाणी की स्तुति सुनता आया है। उस बेजान का काम सुरों को लाउड स्पीकर तक पहुंचाना है ताकि जमाना सुन ले। वे पहले वाले सुर हों या बदले हुए। उसे क्या फर्क पड़ता है? मोदी की मुद्रा भी यह जाहिर करेगी कि आदमी को अपनी ताकत का अहसास होना चाहिए। उसे अपनी कमजोरियों का पता सबसे पहले होना चाहिए। दूसरे की दम पर इतराना नहीं चाहिए। हर हाल में हिसाब-किताब में रहना चाहिए।

                                                              हुनर की रोशनी
श्रवणबेलगोला। मैसूर से 90 किलोमीटर दूर है। एक ही चट्टान पर रचा वास्तु और स्थापत्य का चमत्कार। सबसे ऊपर 57 फुट ऊंची भगवान बाहुबली की आकर्षक प्रतिमा। नौंवी सदी में गंग राजाओं के एक सेनापति चामुंडराय ने इसे बनवाया था। चामुंडराय की मां उन्हें प्यार से गोम्मट कहती थीं यानी पराक्रमी और शूरवीर। इन्हीं गोम्मट के कारण भगवान बाहुबली को गोम्मटेश कहा गया। गोम्मट का ईश्वर।

    सन् 981 ईस्वी में यह प्रोजेक्ट पूरा हुआ था। मुझे याद है कि 1981 में इसके एक हजार साल पूरे होने पर महामस्तकाभिषेक हुआ था। तब मैं स्कूल में पढ़ता था। बचपन में कुछ पत्रिकाएं घर आती थीं, जिनमें उस जलसे की तस्वीरें छपी थीं। अवचेतन में वे ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरें और भीड़भाड़ अब तक ताजा थी। साक्षात् दर्शन तो शब्दों के परे हैं। उस जमाने में कन्नड़ कवि बोप्पण ने गोम्मटेश की स्तुति लिखी थी। सात फुट ऊंचे शिलालेख पर 67 पंक्तियों की वह पुरातन स्तुति मंदिर परिसर में ही दर्शनीय है। इससे भी बड़ा एक ऐसा ही शिलालेख मैंने मैसूर विश्वविद्यालय के भाषाई अध्ययन विभाग में देखा।
 तालकड नाम की एक जगह है कावेरी नदी के किनारे। मैसूर से दूसरी दिशा में करीब 50 किलोमीटर के फासले पर। यहां कई सदियों तक कई राजवंशों ने बेहिसाब निर्माण कराए थे। स्थापत्य कला के हैरतअंगेज नमूने। राजपरिवार की एक महिला के अभिशाप की कहानियां हैं, जिसके तहत तालकड रेत में समाने वाला था और मैसूर के वाडियार राजाओं को निस्संतान रहना था। तालकड का बड़ा हिस्सा आज भी रेत में दफन है। करीब 40 साल पहले कुछ मंदिरों को रेत के बाहर निकाला गया। यहां गंग, होयसला और चोल राजाओं के बनवाए अनगिनत मंदिर हैं। कारीगरी के ऐसे बेहतरीन प्रयोग कि आपको अपनी आंखों पर भरोसा ही न हो।
 होयसला राजाओं की राजधानी हलेबीड भी मैसूर से सौ-सवा सौ किलोमीटर ही है। दिल्ली के निर्दयी सुलतानों में अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक कफूर यहां तक पहुंचा। इसलिए हलेबीड के आसपास के मंदिर खंडित कर दिए गए। उसकी लूट के भयंकर वृत्तांत हैं। मगर तालकड का इलाका बच गया। सुलतानों के समय के लेखक इस इलाके को द्वार समुद्र कहते हैं। कफूर ने ही बाद में अलाउद्दीन के बच्चों को बहुत बुरी मौत मारा। जब दिल्ली में नई ताकतें ऐसे खूनखराबे से अपने जड़ों को सींच रही थीं, तब दक्षिण के लोग इतिहास को अपने हुनर की रोशनी से चमकाने में लगे थे।
 श्रवणबेलगोला हो या तालकड। हमारे महान् पूर्वजों की चमत्कारी प्रतिभा के ये प्रमाण भारत से गुजरे हजार साल के झंझावातों से बचे रह गए। यह भी एक चमत्कार ही है..

Sunday 5 October 2014

                                                              आतिश और हैदर
 सलमान तासीर का नाम आपको याद होगा। कभी जुल्फिकार अली भुट्टो के भरोसेमंद रहे पाकिस्तान के एक मंत्री। पाकिस्तान के बाहर उनकी ज्यादा चर्चा तब हुई जब उनके ही एक कट्टरपंथी सुरक्षा गार्ड ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। सलमान ईशनिंदा कानून के खिलाफ थे, जो ज्यादातर गैर मुस्लिमों को निपटाने के लिए इस्तेमाल होता रहा। कठमुल्लों को लगा कि सलमान काफिरों के हक में हैं।
 24 साल के आतिश तासीर उनके ही बेटे हैं। हाल ही में उनकी एक किताब पढ़ी-स्ट्रेंजर टू हिस्ट्री। आतिश की मां जानी-मानी भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह हैं। आतिश की परवरिश उन्होंने ही की। सलमान ने उन्हें तब छोड़ा जब आतिश सिर्फ 18 महीने के थे। पहले से शादीशुदा और तीन बच्चों के बाप सलमान और तवलीन के अचानक बने रिश्ते। एक बच्चे की पैदाइश। फिर उनसे अलग होने के बाद पाकिस्तान में अधेड़ सलमान की एक खूबसूरत युवती से तीसरी शादी और बच्चे।

 आतिश तमिलनाडु के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। ऊंची तालीम के लिए अमेरिका गए। टाइम मेगजीन में रिपोर्टर बने। एक मुस्लिम बाप का बेटा अपनी सिख मां के साथ ननिहाल में पला-बढ़ा। पिता के मजहब को समझने की तलाश उन्हें एक लंबी यात्रा पर टर्की, सीरिया और ईरान होकर पाकिस्तान ले गई। 21 साल की उम्र में पिता से सामना हुआ। पिता से मिलने की बैचेनी तब खत्म हो जाती है, जब सलमान बड़ी ही बेरुखी से आतिश से मिलते हैं।
 फरेबी बाप के बहाने इस्लामी दुनिया को समझने की ईमानदार कोशिश है आतिश की किताब। इन सब मुल्कों में इस्लाम अलग-अलग रंग-रूपों में फला-फूला। मगर आपसी खूनखराबा, हिंसा और हताशा ने सदियों बाद भी उसका दामन कहीं नहीं छोड़ा। टर्की में सेकुलर सिस्टम के भीतर आतिश ने कट्टरता की चिंगारियां देखीं। एक लेखक के रूप में वे इस्लाम में हमेशा से कायम अशांति और संघर्ष की वजहों की तलाश करते हैं।
 एक दूसरे से बिल्कुल उलट दो संस्कृतियों, दो मजहबों और दो मुल्कों के बीच बटी अपनी पहचान के साथ आतिश रिश्तों की नाजुक परतों से होकर गुजरते हैं। एक मुल्क के रूप में पाकिस्तान की गहरी नाकामी और हर तरफ से हताश पीढ़ी को करीब से देखते हैं। पश्चिम में पैदा हुए पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं में बढ़ती कट्टरता उन्हें चौंकाती है, जो इस्लाम के लिए अपनी जान देने को तत्पर हैं। वे ईरान में ऐसे मुस्लिम घरों में जाते हैं, जिनके लोग इस्कॉन के हरे रामा हरे कृष्णा आंदोलन के अनुयायी हैं। वे पाकिस्तान में ऐसे किरदारों से मिले, जो भारत से गए और जिन्हें सदियों पहले के अपने धर्मांतरण के बावजूद अपने मूल हिंदू जाति राजपूत होने का गर्व अब तक है।

 आतिश के साथ इस्लामी मुल्कों की ढाई सौ पेज की इस यात्रा का समापन इंदौर के मित्र डॉ. प्रवीण नाहर के साथ ताजा फिल्म हैदर पर हुआ। विशाल भारद्वाज की रचना, जो काश्मीर की पृष्ठभूमि पर है।कुलभूषण खरबंदा का एक संवाद अब तक कानों में गूंज रहा है- जब तक हम अपने भीतर के इंतकाम से आजाद नहीं हो जाते तब तक कोई भी आजादी हमें आजाद नहीं कर सकती..। यही सवाल आतिश की किताब का निचोड़ है, इस्लामी दुनिया में सदा से सुलगती एक आग। न कश्मीर में चैन है, न सीरिया में, न मिस्त्र में, न अफगानिस्तान में, न पाकिस्तान में, न इराक में, न ईरान में। हर कहीं आग, धमाके, बम, गोला-बारूद दम घोंट रहे हैं।
 आखिर करोड़ों लोगों की यह दुनिया किससे इंतकाम की आग में झुलस रही है? इंतकाम किससे? और क्यों? और हर जगह क्यों? यह किस जिद का नतीजा है और कहां लेकर जा रहा है? सदियों में कितना खून बह चुका है? कितना और बहेगा? इससे आखिर क्या मिलने वाला है? एक इस्लामी राज? बस? बाकी संस्कृतियों को अपने जिंदा रहने का भी हक नहीं है? उनका मिट जाना अल्लाह की मर्जी से है तो उन्हें पैदा करने वाला कौन है? वह उन्हें पैदा ही क्यों कर रहा है, जबकि उन्हें मिटाने के लिए उसे अपने ही बंदों का लहू पानी की तरह बहाना पड़ रहा है? वह भी सदियों से!
आतिश को पढऩा और हैदर को देखना, अपने आसपास सुलगते सवालों से साक्षात्कार है।

Saturday 4 October 2014

                                                             जहां पलकें झपकना भूल जाएं..
 दृश्य ही इतना अद्भुत था। अपार ऊर्जा से भरे पल। भारत के गौरवशाली अतीत से साक्षात्कार जैसा अनुभव। कर्नाटक के मैसूर शहर का दशहरा। जंबू सवारी के साथ ही दस दिन के दशहरा उत्सव का समापन हो गया। आंखों में ठहर गए चंद ऐसे फ्रेम जो ताजिंदगी याद रहने वाले हैं। करीब पांच लाख लोगों ने चार किलोमीटर लंबे रास्ते के दोनों तरफ जी-भरकर निहारा। सजे-धजे अर्जुन नाम के हाथी पर 750 किलो सोने के चमकते हौदे पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा के दर्शन किए।


अनगिनत पुरानी परंपराओं वाला है हमारा देश। मगर दशहरे जितना जीवंत और अटूट रिश्ता शायद ही कहीं और हो। मैसूर में इस समारोह को चार सौ साल हो चुके हैं। यह जलसा मैसूर के पहले श्रीरंगपट्टन में मनाया जाता था और उसके भी सौ साल पहले से विजयनगरम् में। वही विजयनगरम् जिसके बारे में भारत का बच्चा-बच्चा कृष्णदेव राय और तेनालीरामन् के नाम से जानता है। पंद्रहवीं सदी के भारत की गोल्डन सिटी। 1567 में तालिकोट की लड़ाई में जिसे पांच बहमनी सुलतानों की संयुक्त सेना ने ध्वस्त कर दिया था। उसे लूटने में छह महीने लगे थे। फिर छह महीने तक उसे जलाकर राख करने की कोशिश की गई। मैसूर का दशहरा कश्मीरी ब्राह्मण शायर अल्लामा इकबाल की याद दिलाता है, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।

 आज बेल्लारी शहर के पास तुंगभद्रा नदी के किनारे 25 वर्ग किलोमीटर में फैले पुरातात्विक स्मारक उस अंतिम हिंदू साम्राज्य और उसकी समृद्धि की लाश की तरह पड़े हैं। यहीं एक विशाल मंच है, जिसे स्थानीय गाइड मायूस होकर महानवमी दिव्वा के नाम से रूबरू कराते हैं। कृष्णदेव राय के पहले से यहीं विजय का पर्व मनाया जाता था। ईरान से उस समय भारत आए अब्दुल रज्जाक ने वह समारोह अपनी आंखों से देखा। मगर विजयनगर के खत्म होते ही मैसूर के वाडियार राजाओं ने दशहरे के उस उत्सव को अपना लिया। आजादी के बाद कर्नाटक सरकार ने मैसूर की इस पहचान को कायम रखा।

 अब्दुल रज्जाक की आंखों देखी वही है, जो आज मैसूर में दिखाई दी। दस दिन तक शहर के सारे थिएटरों और स्कूल-कॉलेज के मैदानों में भारी चहलपहल रही। होटलों में खाली कमरे नहीं थे। बाजारों की रौनक चरम पर थी। महलों और मंदिरों की सजावट मन को मोहने वाली थी। प्राचीन भारत की एक परंपरा की एक झलक पाने के लिए लाखों लोग जुटते हैं हर साल। हो सकता है अगली बार आप भी वहां हों!

कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...