Wednesday 9 May 2018

जिन्ना अब भी जिंदा है

#VIJAYMANOHARTIWARI
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर सिर्फ दीवार पर टंगी एक बेजान तस्वीर का मामला नहीं है। जिन्ना भारत के दस हजार साल के ज्ञात इतिहास के भीषण मोड़ पर पैदा हुए। वे इस मुल्क के टुकड़े करने के गुनाह से कयामत तक बरी नहीं हो सकते। जिन्ना की तस्वीर पर भले ही देर से ध्यान गया हो, यह विवाद का नहीं, भूल सुधार का विषय था। जिन्ना अब एक व्यक्ति नहीं, सोच है। बटवारे की सोच। विध्वंस की सोच। सियासत की आड़ में आतंक की सोच। देश को बटवारे का दंश झेलने के बाद भी इस वैचारिक विष से छुटकारा नहीं मिला है। यह भारत विरोधी सोच जिन्ना की शक्ल में अब भी जिंदा है।
1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम से लेकर 1947 में मुल्क के बटवारे के साथ आजादी मिलने तक के 90 साल का अंतराल आश्चर्यजनक रूप से भारत की तकदीर बदलने वाला कालखंड है। घटनाओं से भरे इन नाै दशकों में अनगिनत रतन भारत की कोख से पैदा हुए। आजादी हासिल करने की बेचैनी से भरा यह सिर्फ एक लंबा संघर्ष ही नहीं था। यह एक ऐसा महायज्ञ था, जिसमें देश के काेने-कोने में लोगों ने अपने प्राणों की आहुतियां दीं। मुझे लगता है कि आजादी के ये सेनानी पुरातत्व के कोई जानकार थे। वे जानते थे कि एक हजार साल की गुलामी राख और धूल की बेहिसाब परतों के नीचे कुछ है। कुछ जिंदा है। कुछ बचा हुआ है। वे 90 साल तक लगातार खुदाई करते रहे। खोदते रहे। मरते रहे। खोदते रहे। मरते रहे। 15 अगस्त 1947 की सुबह यह उत्खनन पूरा हुआ और वे भारत माता की भूली बिसरी सी एक महान प्रतिमा निकाल पाने में सफल हुए, जो बदहवास, धूल धूसरित, पीड़ित, अपमानित किंतु जीवित थी।
भारत में लादी हुई गुलामी बहुत भारी पड़ी थी। दमन और जोर-जबर्दस्ती के दिल दहला देने वाले दौर भारत ने देखे और भुगते थे। देश के कोने-कोने में भयावह कहानियां मौजूद थीं। धर्म, कला, साहित्य, संस्कृति और स्थापत्य के हमारे प्राचीन मान बिंदुओं को जगह-जगह तहस-नहस किया गया था। ताकत के जोर पर हमारी पहचानें बदलकर रख दी थीं। समय की धूल सिर्फ तोड़फोड़कर छोड़ दिए गए भव्य स्मारकों के खंडित पत्थरों पर ही नहीं पड़ी थी, वह हमारी याददाश्त पर भी जम चुकी थी। देश के आजादी की दहलीज पर आते-आते मोहम्मद अली जिन्ना ने भटकी हुई याददाश्त को और गुमराह करने का गुनाह किया। मजहब के नाम पर एक अलग मुल्क का ख्याल उन बेरहम सुलतानों, बादशाहों, निजाम और नवाबों के क्रूर सिलसिले में भारत की आत्मा पर सबसे बड़ा घाव था, जो अब तक रिस रहा है।

वीरेंद्र कुमार बरनवाल की किताब जिन्ना एक पुनर्दृष्टि में जिन्ना के हिंदू पुरखों की बढ़िया पड़ताल है। सिर्फ दो पीढ़ी पहले जिन्ना के पूर्वज पुंजाभाई वालजी ठक्कर थे। काठियावाड़ का यह परिवार श्रीनाथजी का भक्त था। राजकोट में पंुजाभाई ने इस्मायली धर्मगुरू आगा खां के अनुयायी बनकर इस्लाम कुबूल किया तो घर में हंगामा मच गया था। जिन्ना की मां मिट्‌ठूबाई और बुआ का नाम मानबाई यही जाहिर करते हैं कि वे अरब या अफगानिस्तान से नहीं आए थे अौर न ही यहां कोई दस-बीस पीढ़ी पहले अपनी बल्दियत बदली थी। अपने मूल मजहब की यादें दिमाग में बहुत ताजा होंगी। पूरी तरह पश्चिम के रंग में रंगे जिन्ना एक काबिल और कामयाब बेरिस्टर थे। निजी तौर पर उनका अपने मजहब से कोई लेना-देना नहीं था। इस्लाम में वर्जित लगभग हर चीज के वे बेइंतहा शौकीन थे।
पाकिस्तान का भूत दिमाग में उतरते ही उनका रंग बदला। वे टाई-सूट से सीधे शेरवानी और मखमली टोपी के स्तर पर उतर आए। हालांकि इस नए कलेवर में उनके कई किस्से भी मशहूर हैं। जैसे- एक बार वे किसी मस्जिद में ले जाए गए। वहां सीधे जूते पहने दाखिल होने लगे तो शेरवानी-टोपी की तजुर्बेकार लीगी जमात वाले किसी साहब ने उन्हें टोका था-जिन्ना साहब यहां जूते पहनकर नहीं जाते। मुस्लिम लीग रईस सामंतों की एक सियासी जमात थी और जिन्ना के लिए यह एक हिट फिल्म के सेट जैसी थी, जिसमें वे साइन कर लिए गए थे। अब वे एक ऐसे हिंदुस्तानी नहीं रहे थे, जो आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों से भिड़ रहा है। वे पाकिस्तान की स्क्रिप्ट लेकर लीग के सेट पर आए। यहां उन्हें उन 93 फीसदी मुसलमानों के मजहबी रहनुमा का रोल अदा करना था, जो मुसलमानों की उस श्रेणी में थे, जिनके पुरखे कहीं बाहर से हिंदुस्तान नहीं आए थे बल्कि वे यहीं के थे और धर्मांतरित हुए थे।
इस्लामिक यूनिवर्सिटी बहावलपुर के विद्वान डॉ. मुहम्मद सलीम अहमद ने आम मुसलमानों की इस श्रेणी को अरबी टाइटल दिया था-अज्लाफ। इसका मतलब है-नीच और कमीना। पहली श्रेणी के मुसलमानों को उन्होंने अशराफ कहा। मतलब कुलीन, खानदानी यानी हमलावर विजेताओं के वंशज। उस समय इनकी तादाद सिर्फ 40 लाख आंकी गई थी। जिन्ना चाहते तो इस मजहबी सेट से बहुत बेहतर रोल प्ले कर सकते थे। अगर उन्हें वाकई हिंदुस्तान की न सही, हिंदुस्तान के मुसलमानों की ही बेहतरी की फिक्र होती तो भी ऐसा नहीं करते, जो उन्होंने किया। मगर उनके लिए अपनी जिद और साख किसी भी कौम और मुल्क से बड़ी थी। कांग्रेस की सियासत में अगर वे खुद को दरकिनार मानते थे तो यह इतनी बड़ी बात तो नहीं ही हो सकती थी कि मुल्क के बटवारे के भयानक नतीजे तक जाती।

तुर्की में कमाल मुस्तफा पाशा उनके ही समय मंे हुकूमत में आए थे। तुर्की एक मुस्लिम देश है और इस्लाम के चरण कमल भारत से पहले वहां की जमीन पर ही पड़े। एक हजार साल बाद तुर्की अपनी मूल पहचान खो चुका था। पाशा ने तुर्की भाषा, सभ्यता और संस्कृति की फिक्र की। वे तुर्की के पहले सर्वमान्य नेता थे, जिन्होंने खलीफा के पद को खत्म कर अपने देश को मूल पहचान की तरफ लौटाया। 1923 में तुर्की की सत्ता संभालने के बाद एक के बाद एक कई सुधार किए। इस्लामी मुल्कों की बदहाली और बरबादी से फिक्रमंद हर दानिशमंद को इस पर गौर करने की जरूरत है। पाशा ने इस्लामिक की जगह तुर्की को सेकुलर स्टेट बनाया। इसके लिए कॉमन सिविल कोड लागू किया। इस्लामिक कैलेंडर, मजहबी तालीम, मदरसों और परदा प्रथा पर बंदिश लगाई।
सबसे बड़ा काम तुर्की भाषा के शुद्धिकरण का किया। सिर्फ सात महीने में तुर्की भाषा से अरबी और फारसी के शब्द छांट-छांटकर हटाए गए। अरबी लिपि के इस्तेमाल पर रोक लगाई। यहां तक कि कुरान को भी तुर्की में ट्रांसलेट कराया और 1932 में पहली बार मस्जिदों में तुर्की में नमाज शुरू हुई। अल्लाह शब्द का भी तुर्की अनुवाद किया-तानरी। शरिया अदालतें हमेशा के लिए बंद कर दी गईं। निकाह की जगह सिविल मैरिज को मान्यता दी। साप्ताहिक अवकाश शुक्रवार की जगह रविवार तय किया। नई मस्जिदों के निर्माण पर रोक लगाई और मौजूदा 70 हजार मस्जिदें सरकारी निगरानी में लेकर आए। मजहबी मामले शिक्षा विभाग का विषय बनाए गए। कट्‌टरपंथी मुस्लिमों अौर मुल्ला-मौलवियों ने उनका विरोध किया मगर जनता के जबर्दस्त समर्थन से ही वे यह कमाल कर पाए। 1938 में आखिरी सांस लेने के पहले सिर्फ 15 साल में तुर्की एक आधुनिक देश के रूप में दुनिया के सामने आया। जनता ने कमाल को प्यार से अपना अतातुर्क कहा, तुर्की में इसका अर्थ है-राष्ट्रपिता। ध्यान रहे, इन क्रांतिकारी प्रयोगों में पाशा ने इस्लाम को नहीं छोेड़ा। उन्होंने कहा-इस्लाम हमारा मजहब रहेगा मगर हम यह न भूलें कि हम तुर्की भाषी और तुर्की संस्कृति के लोग हैं।
जब पाशा तुर्की में एक राष्ट्र का कायाकल्प इस ढंग से कर रहे थे तब भारत के मुसलमानों की बेहतरी के लिए हमारे अतातुर्क महात्मा गांधी के दिमाग में खिलाफत आंदाेलन का ख्याल आया और पूरे भारत में मुस्लिमों को खुश करने के लिए तुर्की में खत्म हुए खलीफा के पद की वकालत यहां करने बैठ गए। जिन्ना ने ठीक इसी दौर में अपनी साम्प्रदायिक सियासत को चमकाने के लिए नारा दिया-इस्लाम खतरे में है। बेपढ़े-लिखे मजहबी मुसलमानों में यह जंगल में आग की तरह फैल गया।
कोई ताज्जुब नहीं कि आजादी के बाद ज्यादा समय तक हुकूमत में रहीं कांग्रेस और सभी सेकुलर सरकारों ने वोट बैंक पुख्ता करने के लिए ऐसे ही सस्ते अौर घटिया उपाय अपनाए। इनसे किसी का भला नहीं हुआ। गजब देखिए कि जिन्ना जैसे पढ़े-लिखे और दुनिया देख चुके मुसलमान को भी अपनी कौम और अपने मुल्क की भलाई के लिए क्या सूझा? वे चूड़ीदार पाजामी, शेरवानी और मखमली टोपी लगाकर पाकिस्तान का खतरनाक आइडिया लेकर आए। 1946 में बंगाल में डायरेक्ट एक्शन का हुक्म उनके माथे पर लगा एक और कलंक है, जब अनगिनत हिंदुओं का कत्लेआम किया गया। यह सियासत नहीं थी। यह गुंडागर्दी थी। यह आतंक था। और यह कराने वाला एक काबिल बेरिस्टर अपनी कौम का रहनुमा बन बैठा था।
 हिंदी के प्रति जिन्ना की नफरत हैरत में डालने वाली थी। 1937 में कांग्रेस सरकारें आठ प्रांतों में बनी थीं। उन्होंने स्कूलों में हिंदी की पढ़ाई अनिवार्य की थी। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने वायसराय को मुस्लिमों के प्रति ज्यादती की एक फेहरिस्त सौंपी। इसमें मुसलमानों को हिंदी पढ़ाने का मुद्दा भी शामिल था। जिन्ना की संकरी दृष्टि में हिंदी को हिंदुओं और ऊर्दू को मुसलमानों की भाषा नजर आती थी। जबकि वे खुद ऊर्दू नहीं जानते थे। इस तरह जिन्ना एक धर्मद्रोही, राष्ट्रद्रोही और भाषाद्रोही का घृणित घालमेल थे, जिन्होंने स्वतंत्र भारत की चेतना में सांप्रदायिकता का जहर घोला। बदकिस्मती से बचा-खुचा भारत भी उस अभिशाप से खुद को मुक्त नहीं कर पाया।
सिर्फ भारत के टुकड़े करने का ही गुनाह उनके माथे पर नहीं है, अपनी ही कौम को गलत रास्ते पर गाफिल करने के और बड़े गुनहगार वे हैं। जेएनयू में भारत के टुकड़े करने के नारे जिन्ना के ही विष बीज हैं। हालांकि टीबी से मरने के पहले उन्हें अपनी जिंदगी की सबसे भयानक भूल का अहसास भी हो गया था। अपने डॉक्टर से उन्होंने कहा था-पाकिस्तान मेरी सबसे बड़ी भूल थी। मगर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अलग मुल्क बनने के बाद पाकिस्तान में बचे करीब 20 फीसदी हिंदुओं का 70 साल में सर्वनाश ही हो गया। वे बांग्लादेश में भी विलुप्त होेने की कगार पर हैं और बचे-खुचे भारत के अलीगढ़ नाम के शहर में एक यूनिवर्सिटी जिन्ना की तस्वीर को छाती से लगाए बैठी है। यह शहर मुस्लिम लीग की गतिविधियों का सबसे सक्रिय केंद्र था। 1914 में लीग का मुख्यालय अलीगढ़ से लखनऊ रुखसत हो गया था।





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