आतिश और हैदर
सलमान तासीर का नाम आपको याद होगा। कभी जुल्फिकार अली भुट्टो के भरोसेमंद रहे पाकिस्तान के एक मंत्री। पाकिस्तान के बाहर उनकी ज्यादा चर्चा तब हुई जब उनके ही एक कट्टरपंथी सुरक्षा गार्ड ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। सलमान ईशनिंदा कानून के खिलाफ थे, जो ज्यादातर गैर मुस्लिमों को निपटाने के लिए इस्तेमाल होता रहा। कठमुल्लों को लगा कि सलमान काफिरों के हक में हैं।
24 साल के आतिश तासीर उनके ही बेटे हैं। हाल ही में उनकी एक किताब पढ़ी-स्ट्रेंजर टू हिस्ट्री। आतिश की मां जानी-मानी भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह हैं। आतिश की परवरिश उन्होंने ही की। सलमान ने उन्हें तब छोड़ा जब आतिश सिर्फ 18 महीने के थे। पहले से शादीशुदा और तीन बच्चों के बाप सलमान और तवलीन के अचानक बने रिश्ते। एक बच्चे की पैदाइश। फिर उनसे अलग होने के बाद पाकिस्तान में अधेड़ सलमान की एक खूबसूरत युवती से तीसरी शादी और बच्चे।
आतिश तमिलनाडु के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। ऊंची तालीम के लिए अमेरिका गए। टाइम मेगजीन में रिपोर्टर बने। एक मुस्लिम बाप का बेटा अपनी सिख मां के साथ ननिहाल में पला-बढ़ा। पिता के मजहब को समझने की तलाश उन्हें एक लंबी यात्रा पर टर्की, सीरिया और ईरान होकर पाकिस्तान ले गई। 21 साल की उम्र में पिता से सामना हुआ। पिता से मिलने की बैचेनी तब खत्म हो जाती है, जब सलमान बड़ी ही बेरुखी से आतिश से मिलते हैं।
फरेबी बाप के बहाने इस्लामी दुनिया को समझने की ईमानदार कोशिश है आतिश की किताब। इन सब मुल्कों में इस्लाम अलग-अलग रंग-रूपों में फला-फूला। मगर आपसी खूनखराबा, हिंसा और हताशा ने सदियों बाद भी उसका दामन कहीं नहीं छोड़ा। टर्की में सेकुलर सिस्टम के भीतर आतिश ने कट्टरता की चिंगारियां देखीं। एक लेखक के रूप में वे इस्लाम में हमेशा से कायम अशांति और संघर्ष की वजहों की तलाश करते हैं।
एक दूसरे से बिल्कुल उलट दो संस्कृतियों, दो मजहबों और दो मुल्कों के बीच बटी अपनी पहचान के साथ आतिश रिश्तों की नाजुक परतों से होकर गुजरते हैं। एक मुल्क के रूप में पाकिस्तान की गहरी नाकामी और हर तरफ से हताश पीढ़ी को करीब से देखते हैं। पश्चिम में पैदा हुए पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं में बढ़ती कट्टरता उन्हें चौंकाती है, जो इस्लाम के लिए अपनी जान देने को तत्पर हैं। वे ईरान में ऐसे मुस्लिम घरों में जाते हैं, जिनके लोग इस्कॉन के हरे रामा हरे कृष्णा आंदोलन के अनुयायी हैं। वे पाकिस्तान में ऐसे किरदारों से मिले, जो भारत से गए और जिन्हें सदियों पहले के अपने धर्मांतरण के बावजूद अपने मूल हिंदू जाति राजपूत होने का गर्व अब तक है।
आतिश के साथ इस्लामी मुल्कों की ढाई सौ पेज की इस यात्रा का समापन इंदौर के मित्र डॉ. प्रवीण नाहर के साथ ताजा फिल्म हैदर पर हुआ। विशाल भारद्वाज की रचना, जो काश्मीर की पृष्ठभूमि पर है।कुलभूषण खरबंदा का एक संवाद अब तक कानों में गूंज रहा है- जब तक हम अपने भीतर के इंतकाम से आजाद नहीं हो जाते तब तक कोई भी आजादी हमें आजाद नहीं कर सकती..। यही सवाल आतिश की किताब का निचोड़ है, इस्लामी दुनिया में सदा से सुलगती एक आग। न कश्मीर में चैन है, न सीरिया में, न मिस्त्र में, न अफगानिस्तान में, न पाकिस्तान में, न इराक में, न ईरान में। हर कहीं आग, धमाके, बम, गोला-बारूद दम घोंट रहे हैं।
आखिर करोड़ों लोगों की यह दुनिया किससे इंतकाम की आग में झुलस रही है? इंतकाम किससे? और क्यों? और हर जगह क्यों? यह किस जिद का नतीजा है और कहां लेकर जा रहा है? सदियों में कितना खून बह चुका है? कितना और बहेगा? इससे आखिर क्या मिलने वाला है? एक इस्लामी राज? बस? बाकी संस्कृतियों को अपने जिंदा रहने का भी हक नहीं है? उनका मिट जाना अल्लाह की मर्जी से है तो उन्हें पैदा करने वाला कौन है? वह उन्हें पैदा ही क्यों कर रहा है, जबकि उन्हें मिटाने के लिए उसे अपने ही बंदों का लहू पानी की तरह बहाना पड़ रहा है? वह भी सदियों से!
आतिश को पढऩा और हैदर को देखना, अपने आसपास सुलगते सवालों से साक्षात्कार है।
सलमान तासीर का नाम आपको याद होगा। कभी जुल्फिकार अली भुट्टो के भरोसेमंद रहे पाकिस्तान के एक मंत्री। पाकिस्तान के बाहर उनकी ज्यादा चर्चा तब हुई जब उनके ही एक कट्टरपंथी सुरक्षा गार्ड ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। सलमान ईशनिंदा कानून के खिलाफ थे, जो ज्यादातर गैर मुस्लिमों को निपटाने के लिए इस्तेमाल होता रहा। कठमुल्लों को लगा कि सलमान काफिरों के हक में हैं।
24 साल के आतिश तासीर उनके ही बेटे हैं। हाल ही में उनकी एक किताब पढ़ी-स्ट्रेंजर टू हिस्ट्री। आतिश की मां जानी-मानी भारतीय पत्रकार तवलीन सिंह हैं। आतिश की परवरिश उन्होंने ही की। सलमान ने उन्हें तब छोड़ा जब आतिश सिर्फ 18 महीने के थे। पहले से शादीशुदा और तीन बच्चों के बाप सलमान और तवलीन के अचानक बने रिश्ते। एक बच्चे की पैदाइश। फिर उनसे अलग होने के बाद पाकिस्तान में अधेड़ सलमान की एक खूबसूरत युवती से तीसरी शादी और बच्चे।
आतिश तमिलनाडु के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़े। ऊंची तालीम के लिए अमेरिका गए। टाइम मेगजीन में रिपोर्टर बने। एक मुस्लिम बाप का बेटा अपनी सिख मां के साथ ननिहाल में पला-बढ़ा। पिता के मजहब को समझने की तलाश उन्हें एक लंबी यात्रा पर टर्की, सीरिया और ईरान होकर पाकिस्तान ले गई। 21 साल की उम्र में पिता से सामना हुआ। पिता से मिलने की बैचेनी तब खत्म हो जाती है, जब सलमान बड़ी ही बेरुखी से आतिश से मिलते हैं।
फरेबी बाप के बहाने इस्लामी दुनिया को समझने की ईमानदार कोशिश है आतिश की किताब। इन सब मुल्कों में इस्लाम अलग-अलग रंग-रूपों में फला-फूला। मगर आपसी खूनखराबा, हिंसा और हताशा ने सदियों बाद भी उसका दामन कहीं नहीं छोड़ा। टर्की में सेकुलर सिस्टम के भीतर आतिश ने कट्टरता की चिंगारियां देखीं। एक लेखक के रूप में वे इस्लाम में हमेशा से कायम अशांति और संघर्ष की वजहों की तलाश करते हैं।
एक दूसरे से बिल्कुल उलट दो संस्कृतियों, दो मजहबों और दो मुल्कों के बीच बटी अपनी पहचान के साथ आतिश रिश्तों की नाजुक परतों से होकर गुजरते हैं। एक मुल्क के रूप में पाकिस्तान की गहरी नाकामी और हर तरफ से हताश पीढ़ी को करीब से देखते हैं। पश्चिम में पैदा हुए पढ़े-लिखे मुस्लिम युवाओं में बढ़ती कट्टरता उन्हें चौंकाती है, जो इस्लाम के लिए अपनी जान देने को तत्पर हैं। वे ईरान में ऐसे मुस्लिम घरों में जाते हैं, जिनके लोग इस्कॉन के हरे रामा हरे कृष्णा आंदोलन के अनुयायी हैं। वे पाकिस्तान में ऐसे किरदारों से मिले, जो भारत से गए और जिन्हें सदियों पहले के अपने धर्मांतरण के बावजूद अपने मूल हिंदू जाति राजपूत होने का गर्व अब तक है।
आतिश के साथ इस्लामी मुल्कों की ढाई सौ पेज की इस यात्रा का समापन इंदौर के मित्र डॉ. प्रवीण नाहर के साथ ताजा फिल्म हैदर पर हुआ। विशाल भारद्वाज की रचना, जो काश्मीर की पृष्ठभूमि पर है।कुलभूषण खरबंदा का एक संवाद अब तक कानों में गूंज रहा है- जब तक हम अपने भीतर के इंतकाम से आजाद नहीं हो जाते तब तक कोई भी आजादी हमें आजाद नहीं कर सकती..। यही सवाल आतिश की किताब का निचोड़ है, इस्लामी दुनिया में सदा से सुलगती एक आग। न कश्मीर में चैन है, न सीरिया में, न मिस्त्र में, न अफगानिस्तान में, न पाकिस्तान में, न इराक में, न ईरान में। हर कहीं आग, धमाके, बम, गोला-बारूद दम घोंट रहे हैं।
आखिर करोड़ों लोगों की यह दुनिया किससे इंतकाम की आग में झुलस रही है? इंतकाम किससे? और क्यों? और हर जगह क्यों? यह किस जिद का नतीजा है और कहां लेकर जा रहा है? सदियों में कितना खून बह चुका है? कितना और बहेगा? इससे आखिर क्या मिलने वाला है? एक इस्लामी राज? बस? बाकी संस्कृतियों को अपने जिंदा रहने का भी हक नहीं है? उनका मिट जाना अल्लाह की मर्जी से है तो उन्हें पैदा करने वाला कौन है? वह उन्हें पैदा ही क्यों कर रहा है, जबकि उन्हें मिटाने के लिए उसे अपने ही बंदों का लहू पानी की तरह बहाना पड़ रहा है? वह भी सदियों से!
आतिश को पढऩा और हैदर को देखना, अपने आसपास सुलगते सवालों से साक्षात्कार है।
बेहद ज्ललंत सवालों से रूबरू कराने वाला लेख है विजय जी !
ReplyDelete