जहां पलकें झपकना भूल जाएं..
दृश्य ही इतना अद्भुत था। अपार ऊर्जा से भरे पल। भारत के गौरवशाली अतीत से साक्षात्कार जैसा अनुभव। कर्नाटक के मैसूर शहर का दशहरा। जंबू सवारी के साथ ही दस दिन के दशहरा उत्सव का समापन हो गया। आंखों में ठहर गए चंद ऐसे फ्रेम जो ताजिंदगी याद रहने वाले हैं। करीब पांच लाख लोगों ने चार किलोमीटर लंबे रास्ते के दोनों तरफ जी-भरकर निहारा। सजे-धजे अर्जुन नाम के हाथी पर 750 किलो सोने के चमकते हौदे पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा के दर्शन किए।
अनगिनत पुरानी परंपराओं वाला है हमारा देश। मगर दशहरे जितना जीवंत और अटूट रिश्ता शायद ही कहीं और हो। मैसूर में इस समारोह को चार सौ साल हो चुके हैं। यह जलसा मैसूर के पहले श्रीरंगपट्टन में मनाया जाता था और उसके भी सौ साल पहले से विजयनगरम् में। वही विजयनगरम् जिसके बारे में भारत का बच्चा-बच्चा कृष्णदेव राय और तेनालीरामन् के नाम से जानता है। पंद्रहवीं सदी के भारत की गोल्डन सिटी। 1567 में तालिकोट की लड़ाई में जिसे पांच बहमनी सुलतानों की संयुक्त सेना ने ध्वस्त कर दिया था। उसे लूटने में छह महीने लगे थे। फिर छह महीने तक उसे जलाकर राख करने की कोशिश की गई। मैसूर का दशहरा कश्मीरी ब्राह्मण शायर अल्लामा इकबाल की याद दिलाता है, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।
आज बेल्लारी शहर के पास तुंगभद्रा नदी के किनारे 25 वर्ग किलोमीटर में फैले पुरातात्विक स्मारक उस अंतिम हिंदू साम्राज्य और उसकी समृद्धि की लाश की तरह पड़े हैं। यहीं एक विशाल मंच है, जिसे स्थानीय गाइड मायूस होकर महानवमी दिव्वा के नाम से रूबरू कराते हैं। कृष्णदेव राय के पहले से यहीं विजय का पर्व मनाया जाता था। ईरान से उस समय भारत आए अब्दुल रज्जाक ने वह समारोह अपनी आंखों से देखा। मगर विजयनगर के खत्म होते ही मैसूर के वाडियार राजाओं ने दशहरे के उस उत्सव को अपना लिया। आजादी के बाद कर्नाटक सरकार ने मैसूर की इस पहचान को कायम रखा।
अब्दुल रज्जाक की आंखों देखी वही है, जो आज मैसूर में दिखाई दी। दस दिन तक शहर के सारे थिएटरों और स्कूल-कॉलेज के मैदानों में भारी चहलपहल रही। होटलों में खाली कमरे नहीं थे। बाजारों की रौनक चरम पर थी। महलों और मंदिरों की सजावट मन को मोहने वाली थी। प्राचीन भारत की एक परंपरा की एक झलक पाने के लिए लाखों लोग जुटते हैं हर साल। हो सकता है अगली बार आप भी वहां हों!
दृश्य ही इतना अद्भुत था। अपार ऊर्जा से भरे पल। भारत के गौरवशाली अतीत से साक्षात्कार जैसा अनुभव। कर्नाटक के मैसूर शहर का दशहरा। जंबू सवारी के साथ ही दस दिन के दशहरा उत्सव का समापन हो गया। आंखों में ठहर गए चंद ऐसे फ्रेम जो ताजिंदगी याद रहने वाले हैं। करीब पांच लाख लोगों ने चार किलोमीटर लंबे रास्ते के दोनों तरफ जी-भरकर निहारा। सजे-धजे अर्जुन नाम के हाथी पर 750 किलो सोने के चमकते हौदे पर चामुंडेश्वरी देवी की प्रतिमा के दर्शन किए।
अनगिनत पुरानी परंपराओं वाला है हमारा देश। मगर दशहरे जितना जीवंत और अटूट रिश्ता शायद ही कहीं और हो। मैसूर में इस समारोह को चार सौ साल हो चुके हैं। यह जलसा मैसूर के पहले श्रीरंगपट्टन में मनाया जाता था और उसके भी सौ साल पहले से विजयनगरम् में। वही विजयनगरम् जिसके बारे में भारत का बच्चा-बच्चा कृष्णदेव राय और तेनालीरामन् के नाम से जानता है। पंद्रहवीं सदी के भारत की गोल्डन सिटी। 1567 में तालिकोट की लड़ाई में जिसे पांच बहमनी सुलतानों की संयुक्त सेना ने ध्वस्त कर दिया था। उसे लूटने में छह महीने लगे थे। फिर छह महीने तक उसे जलाकर राख करने की कोशिश की गई। मैसूर का दशहरा कश्मीरी ब्राह्मण शायर अल्लामा इकबाल की याद दिलाता है, कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।
आज बेल्लारी शहर के पास तुंगभद्रा नदी के किनारे 25 वर्ग किलोमीटर में फैले पुरातात्विक स्मारक उस अंतिम हिंदू साम्राज्य और उसकी समृद्धि की लाश की तरह पड़े हैं। यहीं एक विशाल मंच है, जिसे स्थानीय गाइड मायूस होकर महानवमी दिव्वा के नाम से रूबरू कराते हैं। कृष्णदेव राय के पहले से यहीं विजय का पर्व मनाया जाता था। ईरान से उस समय भारत आए अब्दुल रज्जाक ने वह समारोह अपनी आंखों से देखा। मगर विजयनगर के खत्म होते ही मैसूर के वाडियार राजाओं ने दशहरे के उस उत्सव को अपना लिया। आजादी के बाद कर्नाटक सरकार ने मैसूर की इस पहचान को कायम रखा।
अब्दुल रज्जाक की आंखों देखी वही है, जो आज मैसूर में दिखाई दी। दस दिन तक शहर के सारे थिएटरों और स्कूल-कॉलेज के मैदानों में भारी चहलपहल रही। होटलों में खाली कमरे नहीं थे। बाजारों की रौनक चरम पर थी। महलों और मंदिरों की सजावट मन को मोहने वाली थी। प्राचीन भारत की एक परंपरा की एक झलक पाने के लिए लाखों लोग जुटते हैं हर साल। हो सकता है अगली बार आप भी वहां हों!
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