Saturday 11 October 2014

                                              बेचैनी का बयान
 डूबकर नहीं डूबा हरसूद। प्रोफेसर प्रेमशंकर रघुवंशी की लंबी कविता एक ऐसे समय आई है, जब देश भर की हमारी सरकारें अपने राज्यों में पूंजी निवेश की खातिर दुनिया भर के धनपतियों के स्वागत में दरवाजे पर वंदनवार सजाकर सिर पर मंगल कलश लिए खड़ी हैं। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और नए राज्य तेलंगाना के केसीआर एक साथ सिंगापुर में निवेश की संभावनाओं के लिए कटोरे लिए घूम रहे हैं। मध्यप्रदेश में आठ बार इन्वेस्टर्स का मेला लग चुका है। लाखों करोड़ रुपए के प्रोजेक्ट कतार में हैं। सरकारी तंत्र के लिए यह दिवाली है।
 सरकारों की चिंता वाजिब है। पांच साल के लिए चुनकर आने वाले नेता भारी दबाव में हैं। अब कोरे वादों और भावुक भाषणों के जमाने लद रहे हैं। जनता नतीजे चाहती है। वह भी फौरन। कुछ चमत्कार होना चाहिए। और वह क्या है? उसे अच्छी सडक़ें चाहिए, स्कूल-अस्पताल-कारखाने चाहिए, टेक्नॉलॉजी चाहिए, उन्नत खेती चाहिए, इनके लिए हर समय बिजली चाहिए, रोजगार चाहिए। यह सब करने में परंपरागत रूप से भ्रष्ट सरकारों की सामथ्र्य कितनी है? उनके नेताओं की अपनी ट्रेनिंग क्या है? वे अकेले के दम पर क्या कर सकती हैं? इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घरानों के लिए पलक पांवड़ें बिछ रहे हैं। यही सबसे आसान है।



 मध्यप्रदेश में एक हजार मेगावॉट बिजली की इंदिरा सागर परियोजना में डूबे ढाई सौ गांवों में हरसूद एक प्रतीक बनकर अमर है। उसे डूबे हुए दस साल हो गए। मगर वह जेहन में ताजा है और रहेगा। वर्ना यह कविता कहां से आई? मुझे 2004 में जून की चिलचिलाती गर्मी और देर से आए मानसून के वे दिन याद हैं, जब इस बांध के कारण हुआ विस्थापन अपने आखिरी दौर में था। भारी अफरातफरी और जल्दबाजी में लोगों को उनके घरों से निकाला गया था। उनके पुनर्वास के इंतजाम सरकारें नहीं कर पाई थीं। दुनिया भर के सामाजिक कार्यकर्ता और मीडिया की टीमें वहां हमारी हर तरह की नाकामियों को नजदीक से देख रही थीं।
 दिग्विजयसिंह के दस साल के राज में लालटेन युग की तरफ सरक रहे मध्यप्रदेश को बिजली चाहिए थी। बांध उनके समय बना। विस्थापन की पीड़ा के ठीकरे भाजपा की नई नवेली सरकार के सिर फूटे। विजन न उनके पास था, इनके पास समय भी नहीं था कि पता चले कि विजन है कि नहीं। सरकारों में वैसे भी पांच साल से आगे देखने की सामथ्र्य वाले माई के लाल कम ही हैं।
 प्रो. रघुवंशी की कविता में भी हरसूद सिर्फ एक प्रतीक है। एक भावुक प्रतीक, जो विकास की अंधी दौड़ में हाशिए पर छोड़े गए कुछ जरूरी सवालों को सामने रखती है। ये सवाल मानवीय विस्थापन और पुनर्वास से ही जुड़े नहीं हैं। इनमें प्रकृति के विनाश की ज्यादा जरूरी चिंताएं हैं। लेखक के दिल के तार न सिर्फ हरसूद बल्कि उस पूरे इलाके से गहरे जुड़े हैं, जिसे बांध की सख्त दीवार से टकराकर पीछे पसरे नर्मदा नदी के बेक वॉटर ने लील लिया।
 सत्तर के दशक में उन्होंने कई साल यहां बिताए हैं। स्कूलों में पढ़ाया। गांवों में रहे। घाटों पर बैठे। रचे-बसे। नैसर्गिक रूप से समृद्ध नर्मदा की हरी-भरी घाटी का करीब 900 वर्ग किलोमीटर का इलाका जलमग्न है। डेढ़ लाख आबादी को बिखरे हुए दस साल हो गए। यह एक अलग कहानी है। संयुक्त परिवारों के बिखरने की। खेतीबाड़ी के मालिकों के सडक़ों पर आने की। सरकारी तंत्र की बेरहमी और संवेदनहीनता की। भ्रष्टाचार की। आम आदमी की बेबसी की। इस कविता में वही दर्द और आंखों में भर आए आंसू शब्दों में ढलकर जैसे बह निकले हैं। यह कविता कोरा भावुक बयान नहीं है।

 इस कविता में एक वृद्ध आचार्य अपने अतीत की स्मृतियों में झांक रहा है। वर्तमान की करतूतों को देख रहा है। और तब भविष्य के कुछ सवाल उसका पीछा करने लगते हैं। उस भविष्य के सवाल, जिसमें वह नहीं होगा। समय के इन तीन सिरों में अचानक आया एक बांध है। राजधानियों से उठते विकास के उजले नारे हैं। दूर देहातों में हकीकत में पसरा अंधेरा है। धोखा है। चालबाजियां हैं। तब एक बेचैनी है, जो अमानवीय और निष्ठुर तंत्र की उपज है। यह बेचैनी कहां जाएगी? वह कविता में उतरेगी।
 कभी सोचता हूं कि अगर इंदिरा सागर बांध परियोजना के विस्थापित बहुत आदर्श ढंग से कहीं बसाए गए होते, उन्हें उनके हिस्से के वाजिब मुआवजे मिले होते, वन संपदा को बचाने की कुछ और अधिक ईमानदार कोशिशें की गई होंती, पशु-पक्षियों और वन्य प्राणियों की कुछ बेहतर देखभाल की गई होती, सरकारें कुछ और मानवीय ढंग से पेश आई होतीं तो क्या होता? तब प्रो. रघुवंशी की कविता किस रूप में सामने आती? मगर हुआ इसके बिल्कुल उलट। इसीलिए यह दर्द है। यह आंसू हैं। सुनहरी यादें हैं। यह कविता है।
इस कविता ने निजी तौर पर मुझे उसी सन्नाटे में ला खड़ा किया है, जो मैंने 2004 में हरसूद को कवर करते हुए अपने भीतर गहरे तक पाया था। वे सारे किरदार मेरी आंखों में ताजा हो उठे हैं, जिन्हें हमने मजबूर हालातों में अपनी जमीन से उखडक़र बिखरते देखा। उस हाल में भी अपनी जेबें भर रहे सरकारी अफसर और उनके दलाल आसमान में उड़ते चील-गिद्धों की तरह थे, जो जमीन पर मांस नोचने के लिए झपटते हैं। मगर बांध के पीछे की इस डूबती जमीन पर मुर्दे नहीं पड़े थे। जिंदा लोग अपने अधिकारों के लिए आस लगाए थे, जो उखडऩे के सालों बाद अदालतों के चक्कर लगाते रहे।
 हरसूद का विस्थापन 2004 में हुआ। हजारों लोग अपने नए ठिकाने की तलाश में दूर-दूर तक बिखर गए। स्कूलों से बेदखल मासूम बच्चों की धुंधली यादों में हरसूद उनके जिंदा रहने तक पीछा नहीं छोड़ेगा। टूटकर बिखरी हुई नौजवान पीढ़ी खुद को संभालने में अपनी उम्र के बाकी साल बिताएगी। बूढ़े पुराने गली-मोहल्लों, खेत-खलिहानों और दुकान-बाजारों की तकलीफदेह यादों को लिए अपने अंतिम सफर पर जाएंगे।
 प्रो. रघुवंशी की कविता विशाल भारत के नर्मदा घाटी के एक छोटे से कोने में पली-बढ़ीं तीन पीढिय़ों का बयान है। यह मनुष्य के जिंदा रहने का सबूत है। यह एक दस्तावेज है। एक गवाही है कि जब विकास की योजनाओं को विनाश लीला की तरह अमल में लाया गया तो सब खामोश नहीं बैठे थे। कुछ बेचैन भी थे।
 बेचैनी जिंदा लोगों में होती है। मुर्दों में नहीं।

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