Friday 10 October 2014

                       विदिशा में किले अंदर
 विदिशा में पुरानी बस्ती को कहते किले अंदर हैं। मगर किले जैसा कुछ नहीं है। कुछ ढूंढने निकलेंगे तो पुरानी दीवारों के पत्थर कहीं-कहीं झांकते नजर आ जाएंगे। किले अंदर की गलियों से गुजरेंगे तो इतिहास आपके कानों में कुछ कहता हुआ महसूस होगा। सदियों पुराने मंदिरों के अवशेष किसी दीवार में दिखेंगे। कहीं काले पहाड़ नाम का पुराने पत्थरों का टीला बचा है। एक के ऊपर एक रखे तराशे हुए पत्थरों को उघाडि़ए। शानदार सदियों के सबूत तह करके रखे हैं। मुगलों का नामोनिशान मुल्क से मिट गया। मगर मुगलटोला विदिशा में मौजूद है। नोबेल विजेता कैलाश सत्यार्थी यहीं पले-बढ़े।
 मेरे लिए कॉलेज के दिनों की यादों का शहर है विदिशा। गणित में एमएस-सी के बाद यहीं के एसएसएल जैन पीजी कॉलेज में एक साल पढ़ाकर निकला हूं। छह साल गुजारे। मेरा ननिहाल इसी इलाके में है। ऐतिहासिक रूप से यह इतना समृद्ध रहा है कि रोमांच होता है। 23 सौ साल पहले मगध में मौर्य साम्राज्य था। चंद्रगुप्त मौर्य के पौते थे अशोक, जो अपने पिता बिंदुसार के समय उज्जैन के गवर्नर रहे। तब विदिशा की कन्या से विवाह किया। जब खुद सम्राट बने और बौद्ध धर्म की शरण में आए तो महान् स्तूपों के निर्माण के लिए सांची की पहाड़ी को चुना। उनके बेटे महेंद्र और बेटी संघमित्रा श्रीलंका गए थे धर्म के प्रचार के लिए। अपनी मां से मिलने वे यहां आए।



 जिन पुष्यमित्र शुंग ने मौर्य राजवंश के अंतिम दुर्बल शासक ब्रहद्रथ को एक सैनिक परेड में खत्म किया, वे विदिशा मूल के ही थे। कालिदास का नाटक मालविकाग्निमित्रम् विदर्भ की राजकन्या मालविका और अग्निमित्र की प्रेम कहानी है। पुष्यमित्र के बेटे थे अग्निमित्र। यह शहर उत्तर से दक्षिण को जोडऩे वाले प्राचीन राजमार्ग पर था। जब भारत की गुलामी का दौर शुरू हुआ तो यहां भी ग्रहण लगा। बीजामंडल के खंडहर उन बर्बर हमलों की याद दिलाते हैं, जो सात सौ सालों तक हमारी सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करते रहे। अलाउद्दीन खिलजी ने विदिशा को लूटा तो यहीं के किसी आदमी ने उसे देवगिरि की अथाह दौलत के किस्से सुनाए थे।
 देवराज बिरदी जब कलेक्टर थे एक किताब पर काम किया था उन्होंने-विदिशा थ्रो द एज। मुझे स्टुडेंट लीडर रहे स्वर्गीय अनिल सक्सेना टप्पू ने वह किताब पढऩे को दी थी। विदिशा के रहने वाले पूर्व सांसद निरंजन वर्मा ने भोपाल रियासत के संस्थापक दोस्त मोहम्मद खान के कारनामों पर एक उपन्यास लिखा था-बाणगंगा से हलाली।

 अटलबिहारी वाजपेयी यहां से सांसद चुने जाते थे। उन दिनों हम कॉलेज में थे, जब कलेक्टोरेट में वे परचा भरने आते थे। फिर शिवराजसिंह चौहान यहीं से चुने गए और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक गए। यह एक सुरक्षित सीट मानी गई इसीलिए लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष रहीं सुषमा स्वराज को यहां आना आरामदायक लगा। यह और बात है कि इन हस्तियों के राजनीतिक करिअर में एक खामोश भूमिका निभाने वाले विदिशा शहर के हिस्से में उल्लेखनीय कुछ नहीं आया।
 कैलाश सत्यार्थी को नोबेल न भी मिलता तो उन्होंने जो काम किया है, वह उतना ही महत्वपूर्ण और प्रेरक होता। यह और बात है कि नोबेल में नाम आने से मुख्यधारा के मीडिया में उनका गुणगान हो गया वर्ना यतीम और मजदूर बच्चों जैसे रूखे और बेरौनक विषय पर किस चैनल के पास समय था और कौन अखबार अपने कीमती डेढ़ पेज खराब करता? आदतन हर जरूरी काम को कल और दूसरों पर टालने वाले भारतीयों के बीच कैलाश सत्यार्थी जैसे व्यक्तित्व बड़े-बड़े ऊंटों को उनकी ऊंचाई का असली अहसास कराते हैं। सत्यार्थीजी ने विदिशा का मान बढ़ाया। ये ऐसा काम है, जो यहां से चुन-चुनाकर गए मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री या नेता प्रतिपक्ष के लिए भी समाज के अंधेरे कोनों को रोशन करने की प्रेरणा दे सकता है। वैसे इंसान अपना असली कद खुद बनाता है। उसके लिए किसी पद की जरूरत नहीं पड़ती।

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