Friday 19 September 2014

                                      बंगले में भटकती चौधरी की आत्मा
 अजितसिंह को सरकारी बंगला खाली करने की नौबत क्या आई, अचानक जाटों में जागृति आ गई। चौधरी चरणसिंह याद आ गए। उन्हें यह भी याद आ गया कि बंगले से चौधरी की आत्मा जुड़ी हुई है। क्या बकवास है। 36 सालों से महाशय बंगले पर कब्जा किए हुए थे। अगर पिछले 25 सालों में पूर्ण बहुमत की सरकारें होती तो दो-चार सीटों की दम पर राष्ट्रीय नेता बने फिरते रहे अजितसिंह की दुकान पर कब के ताले पड़े होते। वे सिर्फ सौदेबाजी की राजनीति के दौर में अपने हिस्से का राजसुख भोगते रहे।

 भारत में राजनीति मुफ्तखोरी की जबर्दस्त खदान है, जिसके जरिए बेचारी जनता की जेब की खुदाई कभी बंद नहीं होती। बंगले की खातिर अजितसिंह के भाड़े के समर्थकों की प्रायोजित हरकत इसी का एक नमूना है। मुझे नहीं लगता कि अपने चंद महीनों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री बनने मात्र से चौधरी चरणसिंह ने इस महान् देश की विरासत में कोई चमकदार पन्ना जोड़ा। जाटों की जातिवादी राजनीति के झंडाबरदार के रूप में ही उनकी पहचान होती रही है।

 जोड़तोड़ के जरिए प्रधानमंत्री पद की शपथ का क्षणिक सुख भोगने वाले एक नेता। संयोग के शासक। वे स्वाभाविक शासक नहीं थे। वैसे देखा जाए तो केंद्र और राज्यों में ज्यादातर संयोग के शासक ही हुए हैं। पति जेल गया तो पत्नी को कुर्सी पर बिठा गया। बाप मरा तो बेटे की ताजपोशी कर गया। दो लड़ रहे हैं तीसरे को ले आइए। एक को हटाया तो किसी दूसरे की लॉटरी लग गई।

 अब इनके मरने के बाद इनके स्मारकों का बोझ उठाइए। उंगलियों पर गिन लिए जाएं इतने ही नेता होंगे, जो अपनी काबिलियत और दम से कहीं पहुंचे और काम के जरिए कोई मिसाल पेश की हो। भले ही कम हों मगर ऐसे नेता आज भी जनता के दिलों में राज करते हैं। जनता के पैसे से बने स्मारकों या सरकारी योजनाओं और संस्थाओं के नामकरण से नहीं। ज्यादातर नेता तो सिर्फ एक शपथ लेकर लोकतंत्र पर लदते रहे हैं।

 अगर अजितसिंह की घरेलू पार्टी आरएलडी और पश्चिम उत्तरप्रदेश की जाट बिरादरी को लगता है कि चौधरी चरणसिंह की महानता को याद किया जाना चाहिए तो उन्हें अपनी जमापूंजी से दिल्ली क्या चंद्रमा पर जाकर स्मारक बनवाना चाहिए। वे चाहें तो मंगल ग्रह पर भी चौधरी का नाम चमका सकते हैं। रोका किसने है?
 देश में अरबों रुपयों की सरकारी इमारतों में पहले से ही गांधी और नेहरू खानदानों के अनगिनत स्मारक खड़े हैं। तस्वीरों, पत्रों, किताबों और स्मृति चिन्हों के कबाडख़ाने। यह जनता की मेहनत की कमाई की बरबादी है। यह एक गंभीर अपराध है। अपने नेता के स्मारक बनाने का काम पार्टियों को करना चाहिए, न कि सरकारों को। महान नेता के प्रति आस्था होगी तो जागरूक जनता घरों से निकलकर अपना योगदान उन्हें ही देगी।

 हम इतनी ही शिद्दत से अपने महान् साहित्यकारों, संगीतज्ञों, गायकों और समाजसेवियों को याद नहीं करते। उनके जन्मस्थान और कर्मभूमि को कभी यादगार नहीं बनाते। क्यों? सरकारों में बैठे नेताओंको बहुत आसान है कि वे चाहे जिसे महान मान लें और जनता के पैसे से अरबों रुपए स्वाहा करके कहीं कोई घाट बनवा दें, कहीं स्मारक या संग्रहालय खड़े कर दें।

 यही चलता रहा तो दिल्ली के लुटियंस इलाके में अगले पचास साल में हर बंगला और हर ऑफिस एक स्मारक की शक्ल में खड़ा होगा। परजीवियों की आने वाली पीढिय़ां अपने बाप-दादाओं की तस्वीरें लेकर वहां बैठी होंगी। अजितसिंह ने कहा कि चौधरी चरणसिंह की आत्मा इस बंगले से जुड़ी है। अगर ऐसा है तो बंगले पर कब्जा इस समस्या का हल नहीं है। उन्हें हरिद्वार जाकर पुरोहितों की शरण लेना चाहिए। विधि-विधान से तर्पण करना चाहिए। ताकि आत्मा अपने महान् लक्ष्य मोक्ष की तरफ अग्रसर हो। ओम शांति!

1 comment:

  1. आप की लेखनी का दिल से स्वागत है.. आगे और पढने के इंतज़ार में..

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