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पिछले कई महीनों से कई मित्र कह रहे थे कि मुझे अपना ब्लॉग शुरू करना चाहिए। मुझे लगता था कि जब तक आप नियमित न हों, तब तक ऐसे किसी पचड़े में पडऩे का कोई मतलब नहीं है। इसके लिए समय चाहिए। शांति से कुछ कहने की स्वतंत्रता चाहिए।
चार साल से ज्यादा हो गए। मैं लगातार यात्राओं पर हूं। मई 2010 में मुझे दैनिक भास्कर समूह के नेशनल न्यूजरूम में काम करने का मौका मिला था। बीट और ब्यूरो के तकलीफदेह रास्तों पर लंबा समय गुजारने के बाद यह एक अलग तरह की जिम्मेदारी थी। इसमें सफल होने की संभावनाएं उतनी ही कम थीं, जितनी ज्यादा नाकाम होने की गारंटी थी। दावे से कहता हूं कि किसी की निजी सफलता के कोई मायने नहीं हैं। एक शानदार टीम वर्क ही सर्वाेपरि है। श्रेय किसी के भी खाते में जाए मगर टीम का काम ही उस नतीजे को सामने लाता है, जिसे देखकर लोग कह उठते हैं-वाह!
अमिताभ बच्चन की सारी हिट फिल्मों को देख लीजिए। प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा, सलीम-जावेद, किशोर कुमार, आरडी बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी को हटा दीजिए और फिर देखिए कि अमिताभ का काम कितना है? मीडिया में भी ऐसा ही है। कोई भी जर्नलिस्ट अपनी किसी भी कामयाबी के लिए अकेले श्रेय का हकदार कभी नहीं है। परदे के पीछे कई लोग उससे बड़ी भूमिका में होते हैं। उसे आकार देते हैं। यह और बात है कि बिकता वही है, जो दिखता है।
आज के दिन अपना ब्लॉग इस उम्मीद से शुरू करना चाहता हूं कि कुछ न कुछ आए दिन जोड़ता रहूंगा। कुछ नहीं तो अपनी यात्राओं के अनुभव ही। आज बात करता हूं मीडिया पर केंद्रित एक पत्रिका के ताजे अंक पर, जो संयोग से आज ही मिला है। ‘हिंदी मीडिया के हीरो’ इस विषय पर त्रैमासिक पत्रिका मीडिया-विमर्श के दूसरे विशेषांक में देश के 50 पत्रकारों के प्रोफाइल छपे हैं। अखबारों के धुरंधर संपादकों और टीवी के नामचीन एंकरों के बीच चयन समिति ने पता नहीं क्यों मेरा नाम भी चुन लिया। मैं नहीं मानता कि हममें से कोई किसी का नायक हो सकता है। हम सब अपने हिस्से में आए हुए काम को पूरा कर रहे हैं। मन से। बेमन से। हर किसी को अपना सफर खुद तय करना है। कोई किसी के लिए नजीर नहीं हो सकता। बहरहाल इस पहल के लिए संपादक संजय द्विवेदी को धन्यवाद..
पिछले कई महीनों से कई मित्र कह रहे थे कि मुझे अपना ब्लॉग शुरू करना चाहिए। मुझे लगता था कि जब तक आप नियमित न हों, तब तक ऐसे किसी पचड़े में पडऩे का कोई मतलब नहीं है। इसके लिए समय चाहिए। शांति से कुछ कहने की स्वतंत्रता चाहिए।
चार साल से ज्यादा हो गए। मैं लगातार यात्राओं पर हूं। मई 2010 में मुझे दैनिक भास्कर समूह के नेशनल न्यूजरूम में काम करने का मौका मिला था। बीट और ब्यूरो के तकलीफदेह रास्तों पर लंबा समय गुजारने के बाद यह एक अलग तरह की जिम्मेदारी थी। इसमें सफल होने की संभावनाएं उतनी ही कम थीं, जितनी ज्यादा नाकाम होने की गारंटी थी। दावे से कहता हूं कि किसी की निजी सफलता के कोई मायने नहीं हैं। एक शानदार टीम वर्क ही सर्वाेपरि है। श्रेय किसी के भी खाते में जाए मगर टीम का काम ही उस नतीजे को सामने लाता है, जिसे देखकर लोग कह उठते हैं-वाह!
अमिताभ बच्चन की सारी हिट फिल्मों को देख लीजिए। प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा, सलीम-जावेद, किशोर कुमार, आरडी बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी को हटा दीजिए और फिर देखिए कि अमिताभ का काम कितना है? मीडिया में भी ऐसा ही है। कोई भी जर्नलिस्ट अपनी किसी भी कामयाबी के लिए अकेले श्रेय का हकदार कभी नहीं है। परदे के पीछे कई लोग उससे बड़ी भूमिका में होते हैं। उसे आकार देते हैं। यह और बात है कि बिकता वही है, जो दिखता है।
आज के दिन अपना ब्लॉग इस उम्मीद से शुरू करना चाहता हूं कि कुछ न कुछ आए दिन जोड़ता रहूंगा। कुछ नहीं तो अपनी यात्राओं के अनुभव ही। आज बात करता हूं मीडिया पर केंद्रित एक पत्रिका के ताजे अंक पर, जो संयोग से आज ही मिला है। ‘हिंदी मीडिया के हीरो’ इस विषय पर त्रैमासिक पत्रिका मीडिया-विमर्श के दूसरे विशेषांक में देश के 50 पत्रकारों के प्रोफाइल छपे हैं। अखबारों के धुरंधर संपादकों और टीवी के नामचीन एंकरों के बीच चयन समिति ने पता नहीं क्यों मेरा नाम भी चुन लिया। मैं नहीं मानता कि हममें से कोई किसी का नायक हो सकता है। हम सब अपने हिस्से में आए हुए काम को पूरा कर रहे हैं। मन से। बेमन से। हर किसी को अपना सफर खुद तय करना है। कोई किसी के लिए नजीर नहीं हो सकता। बहरहाल इस पहल के लिए संपादक संजय द्विवेदी को धन्यवाद..
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