Sunday 21 September 2014

                                                 वृंदावन का एक उदास और उजाड़ पन्ना
 हेमा मालिनी ने वृंदावन में रहने वाली निराश्रित महिलाओं को लेकर बयान दिया। उनकी बात बेबुनियाद नहीं है। मैं कई दफा वहां गया हूं। कृष्ण के नाम की चमक-दमक के पीछे ब्रज में सब कुछ इतना ही आसान और आध्यात्मिक नहीं है। रोशनी के नीचे कुछ अंधेरे भी पसरे हैं।

 गलियों में सफेद साड़ी में लिपटी औरतें आपका ध्यान बरबस खींच लेंगी। वे भी कृष्ण की इसी दुनिया में सालों से हैं और आखिरी सांस तक यहीं रहने वाली हैं। मगर उनके चेहरों पर कोई रंग और कोई रस नजर नहीं आएगा। उपेक्षा और उदासी से भरा यह एक अलग अध्याय है। पति के देहांत के बाद वृंदावन आईं बेसहारा औरतों की तादाद करीब 20 हजार से ज्यादा है। स्थानीय बैंकों में इनके हजारों खाते ऐसे हैं, जिनमें डिपॉजिट पैसा लेने कभी कोई नहीं आया। एक अनुमान के मुताबिक यह रकम 50 करोड़ रुपए से ज्यादा थी।

 एक गली में दो ऐसी ही महिलाओं से मैं मिला। मध्यप्रदेश के बालाघाट की जयंती 12 साल से और पश्चिम बंगाल की वीरन 20 साल से यहां थीं। हर दिन चार घंटे मंदिरों में भजन के बदले इन्हें मिलने वाले तीन रुपए कुछ दिन पहले ही बढक़र चार हुए थे। वृद्धावस्था पेंशन के लिए बैंक में एकाउंट थे। जिस मंदिर-आश्रम में गए वहां भोजन हो ही जाते इसलिए इसका कोई खर्च नहीं। श्रद्धालुओं से मिलने वाली खैरात अलग से।

‘कैसा लगता है?’ मैं जानता था कि यह एक अजीब सा सवाल था मगर उस समय मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इनसे क्या बात करूं।
दोनों ने कहा, ‘हम यहां खुश है। अब बंशी वाला ही हमारा रखवाला है।’
 बाहर से आए लोग इन्हें कुछ पैसे, कपड़े या खाने-पीने की चीजें देकर जीवन में दान की महानता महसूस करते हैं। मथुरा वालों के पास इनके थोड़े और सम्मान के साथ जीवनयापन की कोई योजना नहीं थी। सरकार और समाज के लिए जैसे यह भगवान और उनकी भक्तों के बीच का मामला था, जिनके बीच में पडऩे की किसी को कोई जरूरत नहीं थी। अंतत: वे आपस में ही हिलमिलकर अपने हिस्से के भयावह सूनेपन को दूर करने की कोशिश में दिन काट देती थीं।

 जयंती और वीरन से बात करते हुए मुझे नहीं लगा कि बंशीवाले ने उनकी इज्जत के साथ रखवाली की थोड़ी भी जहमत उठाई थी। ठाकुरजी ब्रज छोडक़र द्वारिका चले गए थे। मुझे लगा कि जैसे सूती सफेद धोती में लिपटी इन परछाइयों के लिए वे कभी ब्रज आए ही नहीं और आए भी हों तो उनके एजेंडे में वे नहीं थीं! जिंदगी को बोझ की तरह ढो रही ये औरतें इससे बेहतर और इससे ज्यादा इज्जतदार जिंदगी की हकदार थीं, जिसमें वे अपने ठाकुरजी का स्मरण चंद सिक्कों की खातिर बेजान मशीनों की तरह न करके आत्मा की गहराई के साथ कर सकती थीं। वह स्तर मीरा की मस्ती का होता और भक्ति की यह भाव दशा बाहर से आए लोगों के दिल की गहराइयों में कुछ और असर छोड़ती। इससे कृष्ण की हैसियत में इजाफा ही होता।
 मैं भी कृष्ण और उनके बीच का मामला वहीं छोडक़र भारी मन से आगे बढ़ गया था। वीरन और जयंती के उदास चेहरे बहुत बाद तक यादों में मेरा पीछा करते रहे।

1 comment:

  1. जब देवों की नगरी उत्तराखंड में भक्तों पर प्रलय आती है.....जब तीर्थ यात्रा पर जा-आ रहे भक्तों दुर्घटना में प्रतिवर्ष हज़ारों भक्त काल के गाल में समा जाते हैं......जब नन्हीं कन्याएं दरिंदों के सामने अपनी कोमलांग को तहस-नहस होने से बचाने विलाप करतीं हैं....जब वृंदावन की गलियों में उदर की आंच बुझाने के लिए ये वृद्धात्माएं भटकती हैं...तड़पती हैं...तब एक बारगी लगता तो हैं कि शायद मीरा के प्रभु शायद पापी दुनिया को पापियों के हवाले करके कहीं न कहीं चले गए हैं.....

    ...खै़र सर, आपने बहुत ही नेक मसले को उठाया है....आपको साधुवाद

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