Sunday 21 September 2014



                                              टॉय ट्रेन: चार साल के ब्रेक के बाद
 चार सालों से बंद दार्जिलिंग की वल्र्ड हेरिटेज टॉय ट्रेन दिसंबर में फिर से अपने पूरे 80 किलोमीटर के रूट  पर शुरू होने वाली है। 134 साल पहले दुर्गम पहाड़ी रास्ते पर इस ट्रेन की योजना बनाने से लेकर शुरू करने में सिर्फ दो साल का वक्त लगा था। लेकिन 2010 में भूस्खलन के कारण टूटी सवा किलोमीटर लंबे ट्रेक की मरम्मत करने में लगे हैं पूरे चार साल।




 सिर्फ दो फुट गेज की यह ट्रेन भारत में इकलौती इतनी छोटी ट्रेन है। यह देश भर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही। 1880 में इसके शुरू होने के बाद से लेकर अब तक कुछ भी नया नहीं जुड़ा। आजादी के बाद स्टीम इंजनों के साथ कुछ डीजल इंजन भी आए मगर वो भी 2003 में। इस अनूठी और खूबसूरत रेल सेवा में कुल 16 कोच हैं। 10 स्टीम इंजन और दो डीजल इंजन।

 आप चाहें तो एक पूरा कोच अपने दोस्तों और परिवार वालों के लिए बुक कर सकते हैं। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच इसका किराया होगा सिर्फ 22 हजार रुपए। नीलगिरि माउंटेन रेलवे और कालका-शिमला रेल का गेज इससे बड़ा है। 1999 में दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे को यूनेस्को ने वल्र्ड हेरिटेज में शामिल किया।
 दार्जिलिंग यात्रा के दौरान यह सवाल उठा कि आखिर 6500 फुट ऊंचाई के पहाड़ों पर अंग्रेजों को जरूरत क्या थी यह सब करने की?


 इस मशक्कत के मूल में था कारोबार। दरअसल 1878 में अंगे्रज कोलकाता से सिलिगुड़ी तक रेल पटरियां ले जाने में कामयाब हो चुके थे। यहीं से दार्जिलिंग की पहाड़ी चढ़ाई शुरू होती है। उस दौर में दार्जिलिंग में चाय के बागान लग चुके थे। जो चावल नीचे सिलिगुड़ी में 98 रुपए टन बिकता था, वही चावल ऊपर दार्जिलिंग में 238 रुपए टन।

 चाय, चावल और जरूरी माल की सस्ती ढुलाई के लिए ही ईस्टर्न बंगाल रेलवे के एजेंट फ्रेंकलिन प्रस्टेज ने वहां के लेफ्टिनेंट गवर्नर एशले ईडन को इस ट्रेन का प्रस्ताव रखा था। जानकर हैरानी होती है कि फाइल फौरन चली। काम शुरू हुआ। सितंबर 1880 में 37 किलोमीटर के ट्रेक पर ट्रेन को हरी झंडी दिखा दी गई।
 ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग को भारत का स्विटजरलैंड बनाने की बात कही। पूरे बंगाल की आज की हालत को देखते हुए ममता के मुखारविंद से निकले यह वचन शेखचिल्ली और मुंगेरीलाल की कहानियां याद दिलाते हैं। आधुनिक साधनों और तकनीक के आज के जमाने में उन्हें सवा किलोमीटर का टूटा रास्ता ठीक करने में चार साल से ज्यादा लग गए।

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