Tuesday, 30 September 2014

                                                   अगर ये होते तो क्या होता?
मान लीजिए केंद्र में यूपीए-3 लौट आता। अपने नाम के आगे डॉ. लगाने वाले मशहूर अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह की शानदार तीसरी पारी होती। वे अमेरिका गए होते। टीवी चैनल वाले ऐसे ही पागलों की तरह कैमरे लिए न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में उनका पीछा कर रहे होते। मौन रहने वाले मनमोहन क्या कह रहे होते? उन्हें कौन सुन रहा होता? चैनलों की टीआरपी कितनी आती?

 अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनते तो अमेरिका में उनका स्वागत कैसा हुआ होता? वे भारत के बारे में अपना कौन सा विजन पेश कर रहे होते? उनकी टीम में कौन होता? अगर तीसरे या चौथे मोर्चे की खिचड़ी पक गई होती और मुलायमसिंह यादव वहां गए होते तो उनके मुखारविंद से कौन से बोल फूट रहे होते? नामी कंपनियों के सीईओ टाइप बैठक में उनका एजेंडा क्या होता? दिल्ली की गद्दी पर बैठने का ख्वाब मायावती और जयललिता भी अपनी आंखों में काजल की तरह संजोए थीं। सोचिए, अमेरिका जाकर मोहतरमाएं क्या गजब ढा रही होतीं?
 थोड़ी देर के लिए यह ख्याल करने का भी खतरा मोल लीजिए कि दिग्विजय सिंह प्रधानमंत्री बनकर वहां गए होते तो अपनी पिछली उपलब्धियों के रूप में मध्यप्रदेश के दस सालों के राज की कौन सी चमकदार चीजें याद कर रहे होते? अगर भाजपा को एकमुश्त बहुमत न मिला होता और वह खजूर पर अटकी होती तो ऐसी हालत में अपने नाम का मंसूबा बांधे बैठे रहे राजनाथ सिंह की शपथ हो जाती तो मंजर क्या होता? या लालकृष्ण आडवाणी की लॉटरी लग गई होती तो अमेरिका की यात्रा में उनकी प्रस्तुति का अंदाज क्या होता?
 और कम समय में दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाले अति महात्वाकांक्षी अरविंद केजरीवाल वाराणसी में मोदी को हराकर सौ-डेढ़ सौ सीटें ले आते और प्रधानमंत्री बनकर अमेरिका गए होते तो क्या कमाल कर रहे होते? मुमकिन है लोकपाल बिल के महत्व पर वे ओबामा को कुछ तरकीबें बता रहे होते!
 ऐसा हुआ नहीं। नरेंद्र मोदी ने सही ही कहा कि किसी भी भारतीय नेता को जनता का इतना प्यार नहीं मिला, जितना उन्हें मिला। वे भारत की जड़ व्यवस्था और मुश्किलों से भरे जनजीवन में क्या चमत्कार ला पाएंगे, यह देखना बाकी है मगर उनके इरादों पर शायद ही किसी को शक हो। उनके सितारे वाकई बुलंद हैं, इसमें भी अब ऊपर वणर््िात महानुभावों को कोई शक बाकी नहीं होगा। कोई शक नहीं कि मोदी ने राजनीति की रंगत जरूर बदल दी है।

Wednesday, 24 September 2014

                                                           बाला साहेब ठाकरे के बाद
तीन दिन से मुंबई में हूं। बाला साहेब ठाकरे के देहांत के बाद राज ठाकरे उनकी विरासत के असली हकदार की तरह आक्रामक रहे। सुर्खियों में भी। अब असली मुकाबले के वक्त वे एकदम अकेले हैं। घर और दफ्तर में सन्नाटा है। मातोश्री में उद्धव के आसपास ऐसा जश्न है, जैसे वे मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं। उद्धव के बेटे आदित्य ने मिशन-150 तय किया है।
 दृश्य-1
मातोश्री। शिवसेना की शक्तिपीठ। बांद्रा ईस्ट के कलानगर में ठाकरे के आवास पर कड़ा पहरा है। मेन रोड पर बड़े से दरवाजे के सामने मजमा जुटने लगा है। अंदर जाने की इजाजत सिर्फ उन्हें है, जिन्होंने ‘उद्धव साहेब’ से पहले से समय ले रखा है। गांवों से सफेद टोपियां लगाए वारकरी संप्रदाय के सैकड़ों अनुयायी आने लगे। इन्हें फौरन अंदर बुलाया गया।
  दोपहर दो बजे। अंदर से आए एक संदेश ने बाहर खड़े टीवी पत्रकारों में हलचल बढ़ा दी। उद्धव ने बुलाया है। मातोश्री के ठीक बाहर और ज्यादा भीड़ है। उत्साह के उबाल में पुलिस बल जैसे बेअसर है। बंगले के बाहरी हिस्से में एक हॉल है। दीवार पर सपत्नीक बालासाहेब की आदमकद तस्वीर। बगल में उनकी सिंहासननुमा खाली कुर्सी। हॉल वारकरी संप्रदाय के नुमाइंदों से भरा है। उद्धव के आते ही संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ और नामदेव की पंथ परंपरा के ये प्रतिनिधि ऊंचे स्वरों में संस्कृत में मंत्रोच्चारण आरंभ कर देते हैं।
 एक सफेद पगड़ी उद्धव को बांधी जाती है। उद्धव असहज हैं। मुस्कराते हुए अपना चश्मा संभाल रहे हैं। अब बारी-बारी से संत प्रतिनिधियों के मराठी में उपदेश होते हैं। वक्ता हिंदू ह्दय सम्राट का संबोधन सिर्फ बाला साहेब के नाम पर करते है। राज्याभिषेक जैसी इस रस्म में उद्धव बोलने के लिए खड़े हुए, ‘बिना संस्कृति के प्रगति का कोई मूल्य नहीं है। अगर कांग्रेस और एनसीपी के पास सत्ता और पैसा है तो हमारे पास वारकरी का आशीर्वाद है।’ ऊंचे स्वरों में मंत्रोच्चारण के साथ ही पौन घंटे का यह सत्र संपन्न होता है। उद्धव मीडिया से बात नहीं करते। कैमरों को आमंत्रण सिर्फ वारकरियों के आशीर्वाद का साक्षी बनने के लिए था।


बाहर दरवाजे पर भीड़ का भारी दबाव है। सीटों को लेकर भाजपा के साथ चली खींचातानी शिवसैनिकों को रास नहीं आई। वे खुलकर कह रहे हैं, ‘यह रिश्ता बाला साहेब ने जोड़ा था। चंद सीटों के लिए तनातनी नहीं होनी चाहिए थी। उद्धव को उदार होना चाहिए था।’ वहीं उद्धव समर्थक हर्षल प्रधान दलील देते हैं, ‘यह तय करने का अधिकार शिवसेना का है कि वह किसे कितनी सीटें दे। देने वाली शिवसेना है। लेने वाले की भूमिका सहयोगी दलों की है। विवाद कुछ भी नहीं।’
 उद्धव के बड़े बेटे आदित्य का लक्ष्य मिशन-150  है। दिल्ली का मौसम मोदी ने बदला। मुंबई में उद्धव अपने उदय की तैयारी में हैं। इसीलिए सामना में उन्होंने साफ कहा, भाजपा राष्ट्र में राज करे, महाराष्ट्र पर हमें करने दे। दृश्य-2
शिवाजी पार्क। दादर। सफेद रंग से पुता राज ठाकरे का बंगला। पूरी सडक़ पर ही सन्नाटा पसरा है। बंगले के बाहर मौजूद पुलिस वाले बोरियत के शिकार हैं। हावभाव से जाहिर है कि उनका समय बमुश्किल कट रहा है। बाला साहेब के निधन के बाद जमकर सुर्खियों में रहे महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के नायक राज ठाकरे इस समय किले के भीतर हैं। उनकी सेना भी कहीं बैरकों में है।
 हर तरफ भीड़भाड़ से भरी मुंबई में इस इकलौती वीरान सडक़ को पारकर मैं माटुंगा वेस्ट स्थित मातोश्री टॉवर की तरफ कूच करता हूं, जहां राज ठाकरे की पार्टी का मुख्यालय है। मुझे लगता है कि शायद वहां मनसे के जोशीले कार्यकर्ताओं का भारी जमावड़ा होगा। लेकिन कार्यालय के सामने ही मुझे पूछना पड़ गया कि मातोश्री टावर कहां है?
 मुस्कराकर एक कारोबारी ने ऊपर इशारा किया। वहां एक भगवा साइन बोर्ड पर लिखा था-महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना। पहली मंजिल पर दफ्तर है। किसी कंपनी या बैंक की तरह एक छोटा सा रिसेप्शन। एक रजिस्टर और दो फोन के साथ राज ठाकरे की तस्वीरों वाला एक कैलेंडर। सामने कुछ सोफे। एक सभागार। कुछ केबिन। रिसेप्शन पर मौजूद सज्जन हर फोन कॉल पर रटारटाया वाक्य बोलते, ‘जय महाराष्ट्र...मनसे।’ मगर लग रहा है कि वह बिल्कुल बेमन से ड्यूटी पर है। सोफों पर छह-सात कार्यकर्ता बैठे हैं। दो अपने स्मार्ट फोन पर फेसबुक पर चेट कर रहे हैं। कुछ बातचीत में व्यस्त हैं। बातचीत का विषय चुनाव नहीं है।
 सचिन मोरे एक केबिन में मिले। उनसे मेरा पहला सवाल मुंबई में मनसे के मायूसी भरे माहौल पर ही है। उन्होंने कहा, ‘राज साहेब अपने पत्ते 25 सितंबर को खोलेंगे। हम एक बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं, जहां राज साहेब का जबर्दस्त प्रजेंटेशन होने वाला है। आप भी आइएगा। षण्मुखानंद हॉल में।’
 खूबसूरत आमंत्रण राज ठाकरे की ओर से ही है। किसी और नेता या पदाधिकारी का कहीं नाम नहीं है। वे महाराष्ट्र के विकास पर अपना ब्लू प्रिंट रखेंगे। आमंत्रण के पीछे मनसे का चुनाव चिन्ह छपा है-‘भाप से चलने वाला रेल का इंजन।’ देश की रेल पटरियों पर दशकों से चलन से बाहर। यह नरेंद्र मोदी की बुलेट ट्रेन के आने का समय है, जिसकी शानदार सवारी के लिए उद्धव का टिकट कन्फर्म हो चुका है। राज ठाकरे की पैनी नजर शिवसेना-भाजपा के टूटते गठबंधन की हर ताजा सूचना पर रही। एक मनसे कार्यकर्ता ने कहा कि अगर यह गठबंधन टूटता तो मनसे की रणनीति ही अलग होती। तब शायद स्टीम इंजन पर राज साहेब ही आगे होते।

Sunday, 21 September 2014

                                                 वृंदावन का एक उदास और उजाड़ पन्ना
 हेमा मालिनी ने वृंदावन में रहने वाली निराश्रित महिलाओं को लेकर बयान दिया। उनकी बात बेबुनियाद नहीं है। मैं कई दफा वहां गया हूं। कृष्ण के नाम की चमक-दमक के पीछे ब्रज में सब कुछ इतना ही आसान और आध्यात्मिक नहीं है। रोशनी के नीचे कुछ अंधेरे भी पसरे हैं।

 गलियों में सफेद साड़ी में लिपटी औरतें आपका ध्यान बरबस खींच लेंगी। वे भी कृष्ण की इसी दुनिया में सालों से हैं और आखिरी सांस तक यहीं रहने वाली हैं। मगर उनके चेहरों पर कोई रंग और कोई रस नजर नहीं आएगा। उपेक्षा और उदासी से भरा यह एक अलग अध्याय है। पति के देहांत के बाद वृंदावन आईं बेसहारा औरतों की तादाद करीब 20 हजार से ज्यादा है। स्थानीय बैंकों में इनके हजारों खाते ऐसे हैं, जिनमें डिपॉजिट पैसा लेने कभी कोई नहीं आया। एक अनुमान के मुताबिक यह रकम 50 करोड़ रुपए से ज्यादा थी।

 एक गली में दो ऐसी ही महिलाओं से मैं मिला। मध्यप्रदेश के बालाघाट की जयंती 12 साल से और पश्चिम बंगाल की वीरन 20 साल से यहां थीं। हर दिन चार घंटे मंदिरों में भजन के बदले इन्हें मिलने वाले तीन रुपए कुछ दिन पहले ही बढक़र चार हुए थे। वृद्धावस्था पेंशन के लिए बैंक में एकाउंट थे। जिस मंदिर-आश्रम में गए वहां भोजन हो ही जाते इसलिए इसका कोई खर्च नहीं। श्रद्धालुओं से मिलने वाली खैरात अलग से।

‘कैसा लगता है?’ मैं जानता था कि यह एक अजीब सा सवाल था मगर उस समय मेरी समझ में नहीं आया कि मैं इनसे क्या बात करूं।
दोनों ने कहा, ‘हम यहां खुश है। अब बंशी वाला ही हमारा रखवाला है।’
 बाहर से आए लोग इन्हें कुछ पैसे, कपड़े या खाने-पीने की चीजें देकर जीवन में दान की महानता महसूस करते हैं। मथुरा वालों के पास इनके थोड़े और सम्मान के साथ जीवनयापन की कोई योजना नहीं थी। सरकार और समाज के लिए जैसे यह भगवान और उनकी भक्तों के बीच का मामला था, जिनके बीच में पडऩे की किसी को कोई जरूरत नहीं थी। अंतत: वे आपस में ही हिलमिलकर अपने हिस्से के भयावह सूनेपन को दूर करने की कोशिश में दिन काट देती थीं।

 जयंती और वीरन से बात करते हुए मुझे नहीं लगा कि बंशीवाले ने उनकी इज्जत के साथ रखवाली की थोड़ी भी जहमत उठाई थी। ठाकुरजी ब्रज छोडक़र द्वारिका चले गए थे। मुझे लगा कि जैसे सूती सफेद धोती में लिपटी इन परछाइयों के लिए वे कभी ब्रज आए ही नहीं और आए भी हों तो उनके एजेंडे में वे नहीं थीं! जिंदगी को बोझ की तरह ढो रही ये औरतें इससे बेहतर और इससे ज्यादा इज्जतदार जिंदगी की हकदार थीं, जिसमें वे अपने ठाकुरजी का स्मरण चंद सिक्कों की खातिर बेजान मशीनों की तरह न करके आत्मा की गहराई के साथ कर सकती थीं। वह स्तर मीरा की मस्ती का होता और भक्ति की यह भाव दशा बाहर से आए लोगों के दिल की गहराइयों में कुछ और असर छोड़ती। इससे कृष्ण की हैसियत में इजाफा ही होता।
 मैं भी कृष्ण और उनके बीच का मामला वहीं छोडक़र भारी मन से आगे बढ़ गया था। वीरन और जयंती के उदास चेहरे बहुत बाद तक यादों में मेरा पीछा करते रहे।



                                              टॉय ट्रेन: चार साल के ब्रेक के बाद
 चार सालों से बंद दार्जिलिंग की वल्र्ड हेरिटेज टॉय ट्रेन दिसंबर में फिर से अपने पूरे 80 किलोमीटर के रूट  पर शुरू होने वाली है। 134 साल पहले दुर्गम पहाड़ी रास्ते पर इस ट्रेन की योजना बनाने से लेकर शुरू करने में सिर्फ दो साल का वक्त लगा था। लेकिन 2010 में भूस्खलन के कारण टूटी सवा किलोमीटर लंबे ट्रेक की मरम्मत करने में लगे हैं पूरे चार साल।




 सिर्फ दो फुट गेज की यह ट्रेन भारत में इकलौती इतनी छोटी ट्रेन है। यह देश भर के पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र रही। 1880 में इसके शुरू होने के बाद से लेकर अब तक कुछ भी नया नहीं जुड़ा। आजादी के बाद स्टीम इंजनों के साथ कुछ डीजल इंजन भी आए मगर वो भी 2003 में। इस अनूठी और खूबसूरत रेल सेवा में कुल 16 कोच हैं। 10 स्टीम इंजन और दो डीजल इंजन।

 आप चाहें तो एक पूरा कोच अपने दोस्तों और परिवार वालों के लिए बुक कर सकते हैं। एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन के बीच इसका किराया होगा सिर्फ 22 हजार रुपए। नीलगिरि माउंटेन रेलवे और कालका-शिमला रेल का गेज इससे बड़ा है। 1999 में दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे को यूनेस्को ने वल्र्ड हेरिटेज में शामिल किया।
 दार्जिलिंग यात्रा के दौरान यह सवाल उठा कि आखिर 6500 फुट ऊंचाई के पहाड़ों पर अंग्रेजों को जरूरत क्या थी यह सब करने की?


 इस मशक्कत के मूल में था कारोबार। दरअसल 1878 में अंगे्रज कोलकाता से सिलिगुड़ी तक रेल पटरियां ले जाने में कामयाब हो चुके थे। यहीं से दार्जिलिंग की पहाड़ी चढ़ाई शुरू होती है। उस दौर में दार्जिलिंग में चाय के बागान लग चुके थे। जो चावल नीचे सिलिगुड़ी में 98 रुपए टन बिकता था, वही चावल ऊपर दार्जिलिंग में 238 रुपए टन।

 चाय, चावल और जरूरी माल की सस्ती ढुलाई के लिए ही ईस्टर्न बंगाल रेलवे के एजेंट फ्रेंकलिन प्रस्टेज ने वहां के लेफ्टिनेंट गवर्नर एशले ईडन को इस ट्रेन का प्रस्ताव रखा था। जानकर हैरानी होती है कि फाइल फौरन चली। काम शुरू हुआ। सितंबर 1880 में 37 किलोमीटर के ट्रेक पर ट्रेन को हरी झंडी दिखा दी गई।
 ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग को भारत का स्विटजरलैंड बनाने की बात कही। पूरे बंगाल की आज की हालत को देखते हुए ममता के मुखारविंद से निकले यह वचन शेखचिल्ली और मुंगेरीलाल की कहानियां याद दिलाते हैं। आधुनिक साधनों और तकनीक के आज के जमाने में उन्हें सवा किलोमीटर का टूटा रास्ता ठीक करने में चार साल से ज्यादा लग गए।

Friday, 19 September 2014

                                      बंगले में भटकती चौधरी की आत्मा
 अजितसिंह को सरकारी बंगला खाली करने की नौबत क्या आई, अचानक जाटों में जागृति आ गई। चौधरी चरणसिंह याद आ गए। उन्हें यह भी याद आ गया कि बंगले से चौधरी की आत्मा जुड़ी हुई है। क्या बकवास है। 36 सालों से महाशय बंगले पर कब्जा किए हुए थे। अगर पिछले 25 सालों में पूर्ण बहुमत की सरकारें होती तो दो-चार सीटों की दम पर राष्ट्रीय नेता बने फिरते रहे अजितसिंह की दुकान पर कब के ताले पड़े होते। वे सिर्फ सौदेबाजी की राजनीति के दौर में अपने हिस्से का राजसुख भोगते रहे।

 भारत में राजनीति मुफ्तखोरी की जबर्दस्त खदान है, जिसके जरिए बेचारी जनता की जेब की खुदाई कभी बंद नहीं होती। बंगले की खातिर अजितसिंह के भाड़े के समर्थकों की प्रायोजित हरकत इसी का एक नमूना है। मुझे नहीं लगता कि अपने चंद महीनों के कार्यकाल में प्रधानमंत्री बनने मात्र से चौधरी चरणसिंह ने इस महान् देश की विरासत में कोई चमकदार पन्ना जोड़ा। जाटों की जातिवादी राजनीति के झंडाबरदार के रूप में ही उनकी पहचान होती रही है।

 जोड़तोड़ के जरिए प्रधानमंत्री पद की शपथ का क्षणिक सुख भोगने वाले एक नेता। संयोग के शासक। वे स्वाभाविक शासक नहीं थे। वैसे देखा जाए तो केंद्र और राज्यों में ज्यादातर संयोग के शासक ही हुए हैं। पति जेल गया तो पत्नी को कुर्सी पर बिठा गया। बाप मरा तो बेटे की ताजपोशी कर गया। दो लड़ रहे हैं तीसरे को ले आइए। एक को हटाया तो किसी दूसरे की लॉटरी लग गई।

 अब इनके मरने के बाद इनके स्मारकों का बोझ उठाइए। उंगलियों पर गिन लिए जाएं इतने ही नेता होंगे, जो अपनी काबिलियत और दम से कहीं पहुंचे और काम के जरिए कोई मिसाल पेश की हो। भले ही कम हों मगर ऐसे नेता आज भी जनता के दिलों में राज करते हैं। जनता के पैसे से बने स्मारकों या सरकारी योजनाओं और संस्थाओं के नामकरण से नहीं। ज्यादातर नेता तो सिर्फ एक शपथ लेकर लोकतंत्र पर लदते रहे हैं।

 अगर अजितसिंह की घरेलू पार्टी आरएलडी और पश्चिम उत्तरप्रदेश की जाट बिरादरी को लगता है कि चौधरी चरणसिंह की महानता को याद किया जाना चाहिए तो उन्हें अपनी जमापूंजी से दिल्ली क्या चंद्रमा पर जाकर स्मारक बनवाना चाहिए। वे चाहें तो मंगल ग्रह पर भी चौधरी का नाम चमका सकते हैं। रोका किसने है?
 देश में अरबों रुपयों की सरकारी इमारतों में पहले से ही गांधी और नेहरू खानदानों के अनगिनत स्मारक खड़े हैं। तस्वीरों, पत्रों, किताबों और स्मृति चिन्हों के कबाडख़ाने। यह जनता की मेहनत की कमाई की बरबादी है। यह एक गंभीर अपराध है। अपने नेता के स्मारक बनाने का काम पार्टियों को करना चाहिए, न कि सरकारों को। महान नेता के प्रति आस्था होगी तो जागरूक जनता घरों से निकलकर अपना योगदान उन्हें ही देगी।

 हम इतनी ही शिद्दत से अपने महान् साहित्यकारों, संगीतज्ञों, गायकों और समाजसेवियों को याद नहीं करते। उनके जन्मस्थान और कर्मभूमि को कभी यादगार नहीं बनाते। क्यों? सरकारों में बैठे नेताओंको बहुत आसान है कि वे चाहे जिसे महान मान लें और जनता के पैसे से अरबों रुपए स्वाहा करके कहीं कोई घाट बनवा दें, कहीं स्मारक या संग्रहालय खड़े कर दें।

 यही चलता रहा तो दिल्ली के लुटियंस इलाके में अगले पचास साल में हर बंगला और हर ऑफिस एक स्मारक की शक्ल में खड़ा होगा। परजीवियों की आने वाली पीढिय़ां अपने बाप-दादाओं की तस्वीरें लेकर वहां बैठी होंगी। अजितसिंह ने कहा कि चौधरी चरणसिंह की आत्मा इस बंगले से जुड़ी है। अगर ऐसा है तो बंगले पर कब्जा इस समस्या का हल नहीं है। उन्हें हरिद्वार जाकर पुरोहितों की शरण लेना चाहिए। विधि-विधान से तर्पण करना चाहिए। ताकि आत्मा अपने महान् लक्ष्य मोक्ष की तरफ अग्रसर हो। ओम शांति!

Wednesday, 17 September 2014

पहली पोस्ट... 
पिछले कई महीनों से कई मित्र कह रहे थे कि मुझे अपना ब्लॉग शुरू करना चाहिए। मुझे लगता था कि जब तक आप नियमित न हों, तब तक ऐसे किसी पचड़े में पडऩे का कोई मतलब नहीं है। इसके लिए समय चाहिए। शांति से कुछ कहने की स्वतंत्रता चाहिए।

 चार साल से ज्यादा हो गए। मैं लगातार यात्राओं पर हूं। मई 2010 में मुझे दैनिक भास्कर समूह के नेशनल न्यूजरूम में काम करने का मौका मिला था। बीट और ब्यूरो के तकलीफदेह रास्तों पर लंबा समय गुजारने के बाद यह एक अलग तरह की जिम्मेदारी थी। इसमें सफल होने की संभावनाएं उतनी ही कम थीं, जितनी ज्यादा नाकाम होने की गारंटी थी। दावे से कहता हूं कि किसी की निजी सफलता के कोई मायने नहीं हैं। एक शानदार टीम वर्क ही सर्वाेपरि है। श्रेय किसी के भी खाते में जाए मगर टीम का काम ही उस नतीजे को सामने लाता है, जिसे देखकर लोग कह उठते हैं-वाह!

 अमिताभ बच्चन की सारी हिट फिल्मों को देख लीजिए। प्रकाश मेहरा, मनमोहन देसाई, यश चोपड़ा, सलीम-जावेद, किशोर कुमार, आरडी बर्मन, कल्याणजी-आनंदजी को हटा दीजिए और फिर देखिए कि अमिताभ का काम कितना है? मीडिया में भी ऐसा ही है। कोई भी जर्नलिस्ट अपनी किसी भी कामयाबी के लिए अकेले श्रेय का हकदार कभी नहीं है। परदे के पीछे कई लोग उससे बड़ी भूमिका में होते हैं। उसे आकार देते हैं। यह और बात है कि बिकता वही है, जो दिखता है।

 आज के दिन अपना ब्लॉग इस उम्मीद से शुरू करना चाहता हूं कि कुछ न कुछ आए दिन जोड़ता रहूंगा। कुछ नहीं तो अपनी यात्राओं के अनुभव ही। आज बात करता हूं मीडिया पर केंद्रित एक पत्रिका के ताजे अंक पर, जो संयोग से आज ही मिला है। ‘हिंदी मीडिया के हीरो’ इस विषय पर त्रैमासिक पत्रिका मीडिया-विमर्श के दूसरे विशेषांक में देश के 50 पत्रकारों के प्रोफाइल छपे हैं। अखबारों के धुरंधर संपादकों और टीवी के नामचीन एंकरों के बीच चयन समिति ने पता नहीं क्यों मेरा नाम भी चुन लिया। मैं नहीं मानता कि हममें से कोई किसी का नायक हो सकता है। हम सब अपने हिस्से में आए हुए काम को पूरा कर रहे हैं। मन से। बेमन से। हर किसी को अपना सफर खुद तय करना है। कोई किसी के लिए नजीर नहीं हो सकता। बहरहाल इस पहल के लिए संपादक संजय द्विवेदी को धन्यवाद..


Sunday, 14 September 2014

पद्मनाभ स्वामी मंदिर: खजाने की खोज के तीन साल पूरे

तीन साल से करीब ढाई सौ पुलिस बल और साठ कैमरों की सख्त निगरानी में आठ लोगों की टीम हर दिन पांच घंटे काम करती रही। केरल में सबसे कड़ी सुरक्षा प्राप्त पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले खजाने का ब्यौरा दस्तावेजों पर दर्ज किया गया।

यह काम अब पूरा हो चुका है। छह में से पांच लॉकरों में मिली हर चीज अब रिकॉर्ड पर है। सिर्फ एक ही लॉकर ‘ए’ में पाई गई सर्वाधिक 20 हजार बेशकीमती चीजों को दर्ज करने में दो साल से ज्यादा का वक्त लगा। इनमें सोने के मर्तबानों में चावल के आकार के सोने के दानों से लेकर आभूषण, सिक्के और बर्तन शामिल हैं। इन्हें पुन: पैक करने का काम अगले महीने शुरू होगा। अनुमान है कि इसमें एक साल और लगेगा।



 खजाने को लेकर अदालत की शरण लेने वाले पूर्व आईपीएस अफसर टी.पी. सुंदरराजन की मृत्यु खजाने खुलने के एक महीने के भीतर जुलाई 2011 में ही हो गई थी। उनके बाद सुप्रीम कोर्ट में उनके भतीजे अनंत पद्मनाभ इस केस को लड़ रहे हैं।

वे कहते हैं कि तीन साल पहले तक कोई नहीं जानता था कि मंदिर में क्या है? कम से कम इस केस ने दुनिया को इस छुपी हुई असलियत के बारे में बताया। अब जो कुछ भी सामने आएगा, उसकी सुरक्षा सरकार की जिम्मेदारी होगी। प्रिंस आदित्य वर्मा भी मानते हैं कि पूजा और अनुष्ठान में इस्तेमाल होने वाली भगवान की नियमित उपयोग की सामग्री के अलावा लॉकर ए तो 1930 के बाद कभी खुला ही नहीं। तब से दो पीढिय़ां गुजर गईं।

 प्रिंस आदित्य की मां गौरी लक्ष्मी बाई को खजाना शब्द पर ही आपत्ति है। उनका मानना है कि खुदाइयों में मिले अज्ञात खजानों पर सरकारों का हक लाजमी है मगर यह खजाना नहीं है। यह पद्मनाभ स्वामी की संपत्ति है। हमारे पूर्वजों ने खुद को यहां का राजा नहीं बल्कि पद्मनाभ स्वामी का दास घोषित किया था।

एक सेवक को यह अधिकार होता है कि वह सेवा से मुक्त हो जाए मगर स्वामी और दास का संबंध ऐसा नहीं है। दास हमेशा के लिए है। राजपरिवार ने जो कुछ भी अमूल्य था, वह अपने स्वामी के सुपुर्द किया। यह उनकी संपत्ति है, कहीं खुदाई में मिली लावारिस दौलत नहीं जिसे खजाना कहा जाए।



मंदिर में अगस्त्य मुनि की समाधि!

सबकी निगाहें ‘बी’ लॉकर पर हैं, जिसे खोलने के आदेश नहीं हैं। राजपरिवार की मान्यताओं के अनुसार यह वही जगह है, जहां अगस्त मुनि की समाधि है। यह देश के 52 समाधि मंदिरों में से एक है। प्राचीन तमिल और केरल परंपराओं में अगस्त मुनि का महत्वपूर्ण स्थान रहा है।

त्रावणकोर राजघराना भी इस पक्ष में नहीं है कि सिर्फ सरकार या जनता की जिज्ञासा भर के लिए इसके रहस्य को खोला जाए। राज परिवार के सबसे युवा सदस्य प्रिंस आदित्य वर्मा कहते हैं, इस रहस्य को रहस्य ही रहने देना चाहिए। यह सबकी आस्था का विषय है।

चीन और अरब के सिक्के

  • कुल छह लॉकर हैं। लॉकर ‘ए’ लगभग सवा सौ साल बाद खुला। ‘बी’ को खोलने के आदेश नहीं हैं। ‘सी’ और ‘डी’ हर तीन महीने में खुलते रहे हैं। ‘ई’ और ‘एफ’ में रखा सामान रोज पूजा के दौरान इस्तेमाल होता है।
  • ए लॉकर में 1340 के सिक्के मिले हैं। चीन और अरब के सिक्के भी इनमें शामिल हैं। तब केरल के समुद्री तटों से चीन-अरब तक कारोबार होता था।
  • त्रावणकोर रियासत देश की उन गिनी-चुनी रियासतों में से एक है, जो विदेशी हमलावरों से बिल्कुल अछूती रही। मुस्लिम हमलावर यहां आए नहीं। 31 जुलाई 1741 में पुर्तगालियों की सेना को राजा मार्तण्ड वर्मा ने हराया।
  • इन्हीं राजा मार्तण्ड वर्मा ने 3 जनवरी 1750 को अपना राज्य पद्मनाभ स्वामी को समर्पित किया। राजवंश को उनका दास घोषित किया। इस परंपरा का पालन अब तक जारी है।



कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...