Tuesday 16 December 2014

अफसोस है, हैरत बिल्कुल नहीं


 पाकिस्तान में तालिबान की दरिंदगी पर अखबार आलोचनाओं से भरे हैं। टीवी पर बहसें गरमागरम हुई हैं। सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा उबल रहा है। मगर पेशावर के आर्मी स्कूल की तस्वीरें देखकर मुझे बिल्कुल हैरत नहीं है। अफसोस जरूर है।  जिन्हें अपनी उम्र पूरी करनी थी, उन मासूम बच्चों के खौफ से झुके हुए सिरों में गोली पड़ते देखकर कलेेजा छलनी है मगर आश्चर्य नहीं है। इम्तहान देने आए बच्चों से किस चीज का इंतकाम लिया गया? वे अपने घरों से बस्ते-बोतल लेकर निकले थे। ताबूतों में लौटे। तहरीके तालिबान पाकिस्तान के प्रवक्ता मोहम्मद खुरासानी ने कहा कि हमलावरों को साफ हुक्म था कि बड़े बच्चों को मारंे। छोटे बच्चों को नहीं।

 इराक में इस्लामिक स्टेट (आईएस) को हमने पिछले कुछ ही महीनों में हैवानियत की सारी हदें पार करते देखा। उन्हाेंने सरेआम सैकड़ों की तादाद में जिंदा लोगों के सिर कलम किए। बच्चों के हाथों में हथियार थमाए। यजीदी औरतों को गुलाम बनाकर बेचा। ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब नाइजीरिया में बोको हरम ने स्क्ूली बच्चियों को बंधक बनाया और उनके साथ शैतानी तरीके से पेश आए। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबान के अलावा अल-कायदा, लश्करे-तैयबा जैसे अनगिनत नामों से दुनिया के कई हिस्से खून से लगातार तरबतर हैं। इस्लाम के अमन की दुनिया में हर दिन करीब 170 बेकसूर लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। 
 मुझे हैरत इसलिए नहीं है क्योंकि दिल दहला देने वाले इस नरसंहार में मुझे नया कुछ भी नजर नहीं आया। आज की दुनिया का इतिहास हर दिन के अखबारों में छप रहा है। हैवानियत से भरे हमलों का अतीत न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेंड सेंटर से शुरू हुआ है। मुंंबई के ताज होटल पर खत्म। बात बहुत पहले से निकली है और बहुत दूर तक चली गई है।
 आपको अरब का इतिहास पढ़ने की जरूरत नहीं है। आपको यह जानने की भी जरूरत नहीं है कि छठवीं-सातवीं सदी में अरब में क्या घट रहा था? आप सिर्फ भारत का इतिहास ढंग से पढ़ लीजिए। आप सिंध से शुरू कीजिए। मोहम्मद बिन कासिम के साथ चलिए। फिर मेहमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी पर आइए। सिलसिलेवार इनके हमलों पर गौर कीजिए। उन शहरों के किस्से किताबों में बड़ी तादाद में हैं, जिन्हें लगातार लूटा और बरबाद किया गया। फिर कुतुबुदीन ऐबक के साथ शुरू हुई दिल्ली की सल्तनत की हर हरकत पर निगाह रखते चलिए। अब सात सौ साल तक इनके चेहरे बदलते जाएंगे। कहानी एक जैसी चलती रहेगी।
 बीच-बीच में तैमूर, नादिर और अब्दालियों के अंधड़ खून की प्यासी मधुमख्खियों की तरह त्वचा पर हमले बोलेंगे और आत्मा तक को उधेड़कर छोड़ेंगे। दूसरे मजहबों को मानने वालों को थोक में नृशंसता के साथ मौत के घाट उतारना, उनके बीवी-बच्चों को गुलाम बनाना, उन्हें सामूहिक चिताओं में जलने के लिए विवश करना, उनके देवताओं को बेइज्जत करना और उनकी इबादतगाहों को उन्हीं की आंखों के सामने धूल में मिला देना, आखिर में ऐसी जलालत में मजबूर लाखों लोगों की बल्दियतंंे बदल देना और ऐसा देश के कोने-कोने में सदियों तक होते रहना। यही भारत का असल इतिहास है।

 जिन्होंने इस असलियत को इतिहास के एक उबाऊ विषय की तरह नहीं बल्कि अपने जख्मी इतिहास की तरह अपनी याददाश्त में टांगकर रखा है, पेशावर की घटना उनकी तकलीफ को बढ़ाएगी अवश्य मगर हैरत में बिल्कुल नहीं डालेगी। हमें थोथी बहस में पड़ने या भावुक होने की बजाए दिल पर हाथ रखकर उनके अगले कारनामे का इंतजार करना चाहिए। कोई नहीं जानता कि हैवानियत की अगली खबर दुनिया के किस कोने से आएगी?

1 comment:

  1. सत्य वचन। थोथी बहस में पड़ने या भावुक होने की बजाए दिल पर हाथ रखकर उनके अगले कारनामे का इंतजार करना चाहिए। कोई नहीं जानता कि हैवानियत की अगली खबर दुनिया के किस कोने से आएगी?

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