Saturday, 20 December 2014

हिंसा और असली धर्म

 कोई भी विचार कब धर्म का रूप ले सकता है? क्या धर्म ऐसी चीज है, जो हाड़मांस का बना कोई इंसान अपने जीवन में ही बनाकर खड़ा दे और वो भी ऐसा कि फिर उसमें किसी तरह के रद्दोबदल की कोई गुंजाइश ही न हो? एकदम परफेक्ट प्रोडक्शन! और जिसे मानने के लिए संसार को मजबूर भी किया जाए। न मानने पर मौत की सजा मुकर्रर कर दी जाए। अगर मानते हो तो महान् वर्ना दोयम दर्जे के इंसान, जिसके लिए नृशंस तरीके से दी गई मृत्यु ही एकमात्र विकल्प। आपकी सारी मान्यताएं फिजूल। आपकी इबादगाहें दो कौड़ी की। आपके देवता धूल में मिलाने योग्य। आपकी संस्कृति उजडऩे के ही काबिल!

  भारत भूमि पर विकसित सनातन धर्म दस हजार साल पुरानी संस्कृति की उपज है। कोई एक इसका ठेकेदार नहीं है, जिसके नाम ऊपर वाले ने टेंडर जारी किया हो। इसमें हजारों कारीगर हैं, जिनकी अनगिनत पीढिय़ों की तप-साधना लगी है। रंगबिरंगी कलाएं पनपीं, जिनसे मनुष्य की जिंदगी में खूबसूरती के रंग भरे। वेदों की ऋचाएं अनेक ऋषियों के नाम से हैं मगर कई ऋचाएं ऐसी हैं, जिनके ऋषि अज्ञात हैं। वे कोई दस-पचास साल में किसी एक इंसान के सीमित दिमाग की उपज नहीं हैं। हजारों सालों तक पैदा हुई सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं की जीवन भर की साधना और अनुभवों का निचोड़ है भारतीय संस्कृति।
 वैदिक युग में ख्ेातीबाड़ी पर आधारित हुए समुदायों ने जंगली जीवन से छुटकारा पाया था। वे हर तरह की पाशविकता से मुक्ति के मार्ग पर चल पड़े थे। भोजन के लिए शिकार पर निर्भर लोगों ने कृषि की खोज कर ली थी। गाय-बैल उनके सहयोगी बने थे। पशुओं के बीच पशुओं की तरह रहकर जीते रहे उस समुदाय ने पहले-पहल अपने जीवन में कुछ शांति और समय पाया होगा, जब वे फसलें उगाने लगे होंगे। इसी अवकाश में गीत-संगीत और सृजन के लिए जगह बनी होगी। भाषाएं और लिपियां खोजी गई होंगी। शास्त्र उपजे होंगे। सभ्यता के विकास में वे मोहनजोदड़ों-हड़प्पा के व्यवस्थित शहरी जीवन तक चले आए होंगे, जिसकी मिसालें आज तक दी जाती हैं। लेखन, गायन, अभिनय, नाटक, गीत, संगीत, तर्क, गणित, वास्तु, योग और ध्यान के हर चरम को छूते हुए अनगिनत रीति-रिवाजों ने जड़ें फैलाईं। मगर कुछ बुराइयां भी पनपीं। लोग जातियों के बदशक्ल दायरों में भी बटे।
 कुलमिलाकर एक विशाल और सम्द्ध संस्कृति ने भारत की धरती पर आकार लिया। यह हजारों साल के परिश्रम और प्रतिभाओं के सर्वश्रेष्ठ योगदान का फल था। इसमें कई युगों के कई अवतार पुरुषों ने भी अपने हिस्से का काम पूरा किया था। हर कोई एक बड़ी इमारत में एक ईंट की तरह योगदान दे रहा था। जो सहमत था, वह भी स्वीकार। जो असहमत है, वह भी स्वीकार। भौतिक जीवन को संसार की सब खुशियों से भरने और आध्यात्मिक जीवन को मोक्ष का सर्वोच्च स्वप्न देने वाली महान् संस्कृति, जिसने किसी को कभी कोई मामूली सी चोट भी नहीं पहुंचाई। वे हर तरह की हिंसा से मुक्ति के पक्षधर थे। वे ऐसे लोग थे, जो किसी जल्दबाजी में नहीं थे। वे जानते थे कि एक बीज को वृक्ष बनने में कई वर्ष लगते हैं। उन्होंने कई वृक्षों से हरा-भरा एक उपवन तैयार किया था। सोने की चिडिय़ा नाम मिला।
 ठीक ढाई हजार साल पहले इस धारा में गौतम बुद्ध और महावीर एक ही समय में ऐसी दो विभूतियां हुईं, जिनके नाम से दो अलग धर्म विकसित हुए। अलग धर्म के रूप में होने के बावजूद बौद्ध और जैन इसी उपवन के दो ताजे फूल की तरह महकते रहे। नानक के साथ सिख अस्तित्व में आए, जो गुरू गोविंदसिंह पर आकर साधना के साथ साहसपूर्ण ढंग से अन्याय के विरुद्ध खड़े होकर अपने समय की एक सबसे बड़ी जरूरत पूरी कर रहे थे। मगर कोई गुरुद्वारा किसी स्तूप के मलबे पर खड़ा नहीं हुआ। यह असली सरदारों को शोभा नहीं देता था। कोई स्तूप किसी मंदिर को तोडक़र नहीं बनाया गया। यह बुद्ध के अनुयायियों के लिए अकल्पनीय था। तीर्थंकरों के मंदिर बुद्ध के स्मारकों पर स्थापित नहीं किए गए। यह महावीर के मत को मानने वाले सपने में नहीं सोच सकते थे। एक उपवन में अपने ढंग से विकसित होने की गुंजाइश सबको थी। यह एक ऐसा आसमान था, जिसमें कोई भी गरुड़ अपनी सबसे आकर्षक उड़ान भर सकता था। दूसरे के पंख कतरने या गला रेतने की उल्टी सोच ही नहीं थी।
 आज हिंसा की दिल दहलाने वाली घटनाओं से दुनिया भरी है। पता नहीं लोगों को यह क्यों कहना पड़ रहा है कि आंतक का कोई धर्म नहीं होता? इसमें कहने की बात क्या है? यह क्या बात हुई कि एक ईमानदार इंसान का बेईमानी से कोई संबंध नहीं होता। यह तो उसके ईमानदार होने में ही निहित है कि किसी तरह की बेईमानी का उससे कोई लेना-देना नहीं है। क्यों हमारी पीढिय़ां बेशकीमती जिंदगी को खूनखराबे में तबाह करने में लगी हैं? तो गड़बड़ कहां हुई है। मैं अपने मूल प्रश्न पर लौटता हूं-आखिर कोई विचार धर्म का रूप कब ले सकता है?

1 comment:

  1. तिवारी जी बहुत ही अच्छी जानकारी हे।

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