पांच साल का वह वक्त मेरे जीवन में ईश्वर योग से ही आया था। यह अफसोस हमेशा ही बना रहा था कि मुझे भारत को देखने-घूमने का मौका नहीं मिला। अखबार या टीवी के काम में कभी छुटि्टयां नहीं, कभी पैसा नहीं। कभी दोनों का ही अकाल। ऐसे ही करीब 15 साल गुजर गए थे। 2009 का साल मुझे याद है, जब दीपावली के आसपास मुझे अचानक ही भारत को निकट से देखने और जानने का भाव प्रबल हुआ था। मैं नहीं जानता था कि यह अवसर आएगा कैसे?
तब मैं दैनिक भास्कर के पॉलिटकल ब्यूरो में था। तीन साल हो गए थे। राजेश उपाध्याय एडिटर थे और अभिलाष खांडेकर स्टेट एडिटर। ब्यूरो के दुर्गम हालातों में एडिशन के यही दो किनारे थे, जिनके बीच मेरी नैया चलती रही। उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में दिव्य मराठी शुरू होने को हुआ। अभिलाषजी उस नए मोर्चे पर जाने के पहले मेरे आने वाले कल को लेकर फिक्रमंद थे। राजेश उपाध्याय दिल्ली चले गए और आनंद पांडे एडिटर के रूप में भोपाल अवतरित हुए। मैंने ब्यूरो में रहते आखिरी के कवरेज में फरवरी 2010 में इंदौर की ओमेगा सिटी में हुए बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक को कवर किया। इसके ठीक पहले सुषमा स्वराज का लंबा इंटरव्यू किया।
ऊपर के इन बदलावों के बीच उन्हीं दिनों विपुल गुप्ता का कॉल आया। वे नेशनल न्यूज रूम में डिप्टी एडिटर थे और नेशनल एडिटर कल्पेश याज्ञनिक का कामकाज संभालते थे। नियति कैसे रास्ते बनाती है, अब पलटकर सोचता हूं तो समझ में आता है। विपुल दफ्तर के बाहर चाय की चुस्कियों के साथ सिगरेट के कश के लिए आया करते थे। ऐसे ही एक मौके पर उन्होंने मुझसे नई भूमिका के लिए तैयार होने का इशारा किया। थोड़े ही दिनों में कल्पेशजी का संदेश मिला। मेरे लिए नेशनल न्यूजरूम में आने की भूमिका का प्रस्ताव था, जिसमें मुझे देश के कोने-कोने में जाकर कुछ ऐसे विषयों और मुद्दों पर स्टोरी करनी थीं, जो सब जगह पढ़ी जाएं।
कुछ अनमने ढंग से मैंने अपने जीवन में आने वाले इस सबसे बड़े बदलाव काे स्वीकार किया था। पहली कवरेज अफजल गुरू की फाइल पर थी, जो दिल्ली सरकार के सचिवालय में जाकर करनी थी। यह एक ऐसी शुरुआत थी, जिसमें मुझे अपनी हर खबर के लिए ग्राउंड जीरो से शुरू करना था। अलग-अलग भाषा, अलग-अलग विषय, नए-नए इलाके। हर हफ्ते। कभी इस कोने में। कभी उस कोने में। जल्दी ही लगा कि कुछ तयशुदा ढंग से नियति मुझे कुछ देखने-समझने का निमित्त बना रही है।
मैंने औसत हर महीने 20 दिन आउडोर स्टोरी पर काम किया। लगातार पांच साल यही दिनचर्या रही। इस दौरान करीब 170 स्टोरी कवर कीं। 2015 में इस भूमिका से बाहर आने के पहले देश भर की औसत आठ परिक्रमाएं हुईं। ऐसा कोई विषय नहीं बचा, जिसमें मैंने देश के किसी न किसी कोने से कोई बड़ी खबर न की हो। राजनीति, धर्म, समाज, पर्यावरण से जुड़ी अनगिनत कहानियां। मैंने भारत के गांव, शहर, राजधानियां, तीर्थ, नदी, पहाड़, समंदर, खंडहर, जलसे और वीराने सब कुछ देखे। जहां भी गया, वहां के विश्वविद्यालय, म्युजियम और सबसे अच्छी किताबों की दुकान में जाने का एक नियम बनाया। मैं हर शहर से हर बार कुछ न कुछ किताबें लेकर आया, जिनका बेशकीमती संग्रह बन गया। यह मेरा भाग्य था कि ये कहानियां दैनिक भास्कर के सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक पेज संडे जैकेट पर तीन भाषाओं में लगातार छपीं। मेरी हर यात्रा लाखों पाठकों से मुझे जोड़ती रही।
एक शानदार टीम जैकेट पर काम कर रही थी। मेरी प्रकाशित कहानियों और उनके आइडियाज का श्रेय मैं अकेला कभी नहीं ले सकता। कल्पेशजी के अलावा एक्जीक्यूटिव एडिटर शरद गुप्ता, डिप्टी एडिटर विपुल गुप्ता, न्यूज एडिटर आनंद देशमुख और धीरेंद्र राय, डिजाइनर प्रदीप कुशवाह और उनके पहले दीपक बुढ़ाना भी इस ताकतवर टीम का हिस्सा थे। इंदौर से फोटो एडिटर ओपी सोनी कई यादगार यात्राओं में एक शानदार क्लिक के लिए साथ में थे। आर्टिस्ट गौतम चक्रवर्ती भी, जो अयोध्या के फैसले वाले कवरेज में हाईकोर्ट का नजारा लाइन आर्ट से उतारने के लिए भेजे गए थे। अगर कुछ भी बेहतर हो पाया तो उसमें बड़ी भागीदारी इन सबकी है। मुझे इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी ही चाहिए।
मेरे जीवन के सबसे स्मरणीय, ऊर्जा से भरे ये पांच साल जैसे पलक झपकते ही गुजर गए। इस दौरान तीन साल तक मेरी मां डायलिसिस पर रहीं। धीरे-धीरे संडे जैकेट की हमारी टीम भी बिखर गई। विपुल एडिटर बनकर सागर चले गए। दीपक बुढ़ाना अच्छे पैकेज के ऑफर पर बड़ी दबंगई से सबको अलविदा कह गए। शरद गुप्ता को दिल्ली रवाना किया गया, जहां से वे एक नए रास्ते के लिए अलग हो गए। धीरेंद्र राय को भी न चाहते हुए इंदौर को नमस्कार कहना पड़ा। वे इंडिया टुडे ग्रुप में हैं। पांच साल हुए तो मुझे भी लगने लगा कि पूरा भारत ही मेरे लिए एक बीट बन गया है, जिसमें मैं बार-बार घूम रहा हूं। 2015 में मैंने भी ढेर सारी सुनहरी यादों के साथ अपनी यात्राओं को विराम दिया।
खबरें तो अपनी जगह हैं, जो एक दिन घिस जाने वाली याददाश्त में शायद ही बची रहतीं। मगर इन्हीं यात्राओं के दौरान मैंने इस विलक्षण अनुभव को किताब की शक्ल देना शुरू किया। ट्रेनों के लंबे सफर में, दूसरे शहरों के होटलों में, एयरपोर्ट पर, मां के डायलिसिस के दौरान अस्पतालों के बाहर और यहां तक कि रेलवे के वेटिंग रूम में। जहां, जितना वक्त मिला मैंने यात्रा के अनुभवों को लिखना शुरू किया। जब इस भूमिका से बाहर आया तो एक अच्छा-खासा दस्तावेज हर यात्रा के तरोताजा विवरणों के साथ तैयार था, जिसे मैंने कई प्रकाशकों के पास भेजा। मैं इसे जल्द से जल्द छपा हुआ देखना चाहता था इसलिए कुछ बड़े और नामी प्रकाशकों के यहां मंजूर होने के बावजूद लंबी वेटिंग में जाना मैंने मंजूर नहीं किया। इसे बेंतेन बुक्स के तहत इरा पब्लिकेशन ने छापा। बेंतेन से मेरी एक और किताब 2010 में छप चुकी थी, जो भोपाल गैस हादसे पर थी।
अप्रैल 2016 में मेरी नई किताब अपने शानदार कलेवर में छपकर आई। मैने इसका शीर्षक तय किया था-सदियों के सफर में पांच साल। मगर कुछ मित्रों ने सुझाया कि इसमें भारत जुड़ना चाहिए। अंतत: नया शीर्षक तय हुआ-भारत की खोज में मेरे पांच साल। इसके कवर फोटो के लिए इलाहाबाद के महाकुंभ की एक सुबह की तस्वीर राज पाटीदार से मिली, जो 55 दिन तक किराए की साइकल से कुंभ घूमते रहे थे और करीब 17 हजार फोटो लिए थे। वे रॉयटर्स के लिए काम करते हैं। उन्होंने करीब 15 फ्रेम मुझे दिए। इनमें से गंगा की रेत पर कोहरे में कल्पवासियों की चहलकदमी वाली शानदार तस्वीर सबसे ज्यादा पसंद की गई। वही कवर पर छपी। सीनियर जर्नलिस्ट प्रकाश हिंदुस्तानी ने सुझाया कि बात यात्राओं की है इसलिए कुछ तस्वीरें भी होना चाहिए। आखिरकार 25 चमकदार पेजों पर करीब 70 रंगीन तस्वीरें भी जुड़ गईं।
उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान किताब की कुछ कॉपियां मिलीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत सिंहस्थ में हुए वैचारिक महाकुंभ में आए थे, जिसमें मुझे भी जाने का मौका मिला। मैंने संघ कार्यालय में अपनी किताब उनके लिए छोड़कर आया। अगस्त में वे इंदौर आए। मुझे संदेश मिला। मैं वहां जाकर उनसे मिला। किताब पर ही बात हुई। एक मौखिक निवेदन छोड़कर आया था कि दिल्ली, भोपाल या इंदौर में कभी समय हो और स्थिति अनुकूल हो तो प्रवास के दौरान इस पुस्तक के लिए आधा घंटा दें। यह मेरी छठी किताब थी और मैंने तय किया था कि कभी विमोचन, लोकार्पण, चर्चा और गोष्ठी की औपचारिकता में नहीं जाऊंगा। एक पत्रकार के रूप में मैंने अपनी बात किताब में कह दी है। अलग से किसी आयोजन की आवश्यकता कभी नहीं समझी। मैंने लोकार्पण के लिए पहला निवेदन न जाने क्या सोचकर माननीय भागवतजी से किया। वे मुस्करा दिए थे। उन्होंने कहा था-कोई वादा नहीं है। सुनिश्चित बिल्कुल नहीं है। मगर मैं स्मरण रखूंगा। मैंने कहा था-कोई बात नहीं। आप नहीं करेंगे तो मैं भी करता ही नहीं हूं। ऐसा नहीं है कि आप नहीं आएंगे तो मैं किसी और से लोकार्पण करा लूंगा। उस दिन बात वहीं खत्म हो गई।
इस बीच किताब की कुछ समीक्षाएं छपती रहीं। इंडिया टुडे में शरद गुप्ता, लोकमत समाचार में एडिटर विकास मिश्र, वेब दुनिया के एडिटर जयदीप कर्णिक, चौथा संसार की एडिटर जयश्री पिंगले और प्रकाश हिंदुस्तानी ने समीक्षाएं लिखीं, जो दिसंबर 2016 तक छपती रहीं। दिसंबर में इंदौर के लिटरेचर फेस्टीवल के कल्पनाकार और हैलो हिंदुस्तान के संपादक प्रवीण शर्मा ने तीन दिन के जलसे में एक सेशन ही इस किताब पर रख दिया, जिसमें जयदीप, जयश्री और प्रकाशजी ने किताब पर चर्चा की। अमेजन पर यह किताब ऑनलाइन आ चुकी थी और देश भर के मेरे मित्रों ने घर बैठे मंगाई थी। शुरुआती प्रतिक्रियाएं मेरा उत्साह बढ़ाने वालीं थीं।
जनवरी अंंत में मुझे माननीय भागवतजी का संदेश मिला। वे 10-11 फरवरी को भोपाल आ रहे थे। यह करीब एक हफ्ते का लंबा मध्यप्रदेश प्रवास था। मुझे पुस्तक के लोकार्पण के लिए समय तय करने को कहा गया। मैं हैरान था। उन्होंने मेरे मौखिक निवेदन को स्मरण रखा था। ताबड़तोड़ सब कुछ करना नामुमकिन था। रवींद्र भवन आैर समन्वय भवन जैसे ऑडिटोरियम दो महीने पहले से भरे हुए थे। अचानक भारत भवन का सुझाव मिला। अपने 35 वें स्थापना दिवस की तैयारियों के सिलसिले में वह 11 फरवरी की सुबह खाली मिल गया। सिर्फ छह दिनों के भीतर सारी तैयारियां हो गईं। गौतम चक्रवर्ती ने एक डिजिटल पेंटिंग बनाई, जो अपने हाथों से उन्हें भेंट की। राज पाटीदार भी वहां आए। संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव और अच्छे कवि-लेखक मनोज श्रीवास्तव, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, बेंतेन बुक्स के डॉ. विजय अग्रवाल भी मंच पर मौजूद थे। कार्यक्रम के सूत्रधार विनय उपाध्याय ने तो जैसे चार चांद ही लगा दिए।
पहले तो मैं घबराया हुआ था। कभी लोकार्पण जैसी रस्मों में गया नहीं था। अंतत: 11 फरवरी 2017, शनिवार की सुबह 10.30 बजे भारत भवन में रौनक हुई। माननीय भागवतजी सवा घंटा रहे। 23 मिनट बोले। खचाखच भरे अंतरंग सभागार में पिछले तीस साल में भोपाल में हिंदी अंग्रेजी के शिखर संपादक मौजूद थे। इनमें महेश श्रीवास्तव, रमेश शर्मा, विजयदत्त श्रीधर, एनके सिंह, गिरीश उपाध्याय और अवनीश जैन शामिल थे। मेरी उम्र के अनगिनत मित्र पत्रकार आए। टीवी कैमरों ने हर पल को कैद किया। मेरे बचपन के कई दोस्त, गांव के लोग, परिवारजन इन पलों में मेरे साथ थे। मंत्री-सांसद भी सरसंघचालकजी को सुनने के लिए आए, जिनका 23 मिनट का उदबोधन हुआ और देशभक्ति पर कुछ ऐसा बोले कि शाम को ही देश भर के नेशनल न्यूज चैनलों पर सुर्खी बन गई। उन्होंने कहा-किसी की देशभक्ति को नापने का अधिकार किसी को भी नहीं है। बंसल न्यूज चैनल हेड शरद द्विवेदी ने उसी दिन शाम को किताब पर एक स्पेशल शो रखा।
यह मेरे यात्रा यज्ञ की पूर्णाहुति थी। और इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत से श्रेष्ठ आचार्य और कौन होता?
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भारत भवन में हुए भाषणों के यू टयूब के लिंक-
https://www.youtube.com/watch?v=uX3JlvJ1lMo
https://www.youtube.com/watch?v=Sx0kKScSH7Q&t=1s
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तब मैं दैनिक भास्कर के पॉलिटकल ब्यूरो में था। तीन साल हो गए थे। राजेश उपाध्याय एडिटर थे और अभिलाष खांडेकर स्टेट एडिटर। ब्यूरो के दुर्गम हालातों में एडिशन के यही दो किनारे थे, जिनके बीच मेरी नैया चलती रही। उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में दिव्य मराठी शुरू होने को हुआ। अभिलाषजी उस नए मोर्चे पर जाने के पहले मेरे आने वाले कल को लेकर फिक्रमंद थे। राजेश उपाध्याय दिल्ली चले गए और आनंद पांडे एडिटर के रूप में भोपाल अवतरित हुए। मैंने ब्यूरो में रहते आखिरी के कवरेज में फरवरी 2010 में इंदौर की ओमेगा सिटी में हुए बीजेपी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक को कवर किया। इसके ठीक पहले सुषमा स्वराज का लंबा इंटरव्यू किया।
ऊपर के इन बदलावों के बीच उन्हीं दिनों विपुल गुप्ता का कॉल आया। वे नेशनल न्यूज रूम में डिप्टी एडिटर थे और नेशनल एडिटर कल्पेश याज्ञनिक का कामकाज संभालते थे। नियति कैसे रास्ते बनाती है, अब पलटकर सोचता हूं तो समझ में आता है। विपुल दफ्तर के बाहर चाय की चुस्कियों के साथ सिगरेट के कश के लिए आया करते थे। ऐसे ही एक मौके पर उन्होंने मुझसे नई भूमिका के लिए तैयार होने का इशारा किया। थोड़े ही दिनों में कल्पेशजी का संदेश मिला। मेरे लिए नेशनल न्यूजरूम में आने की भूमिका का प्रस्ताव था, जिसमें मुझे देश के कोने-कोने में जाकर कुछ ऐसे विषयों और मुद्दों पर स्टोरी करनी थीं, जो सब जगह पढ़ी जाएं।
कुछ अनमने ढंग से मैंने अपने जीवन में आने वाले इस सबसे बड़े बदलाव काे स्वीकार किया था। पहली कवरेज अफजल गुरू की फाइल पर थी, जो दिल्ली सरकार के सचिवालय में जाकर करनी थी। यह एक ऐसी शुरुआत थी, जिसमें मुझे अपनी हर खबर के लिए ग्राउंड जीरो से शुरू करना था। अलग-अलग भाषा, अलग-अलग विषय, नए-नए इलाके। हर हफ्ते। कभी इस कोने में। कभी उस कोने में। जल्दी ही लगा कि कुछ तयशुदा ढंग से नियति मुझे कुछ देखने-समझने का निमित्त बना रही है।
मैंने औसत हर महीने 20 दिन आउडोर स्टोरी पर काम किया। लगातार पांच साल यही दिनचर्या रही। इस दौरान करीब 170 स्टोरी कवर कीं। 2015 में इस भूमिका से बाहर आने के पहले देश भर की औसत आठ परिक्रमाएं हुईं। ऐसा कोई विषय नहीं बचा, जिसमें मैंने देश के किसी न किसी कोने से कोई बड़ी खबर न की हो। राजनीति, धर्म, समाज, पर्यावरण से जुड़ी अनगिनत कहानियां। मैंने भारत के गांव, शहर, राजधानियां, तीर्थ, नदी, पहाड़, समंदर, खंडहर, जलसे और वीराने सब कुछ देखे। जहां भी गया, वहां के विश्वविद्यालय, म्युजियम और सबसे अच्छी किताबों की दुकान में जाने का एक नियम बनाया। मैं हर शहर से हर बार कुछ न कुछ किताबें लेकर आया, जिनका बेशकीमती संग्रह बन गया। यह मेरा भाग्य था कि ये कहानियां दैनिक भास्कर के सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक पेज संडे जैकेट पर तीन भाषाओं में लगातार छपीं। मेरी हर यात्रा लाखों पाठकों से मुझे जोड़ती रही।
एक शानदार टीम जैकेट पर काम कर रही थी। मेरी प्रकाशित कहानियों और उनके आइडियाज का श्रेय मैं अकेला कभी नहीं ले सकता। कल्पेशजी के अलावा एक्जीक्यूटिव एडिटर शरद गुप्ता, डिप्टी एडिटर विपुल गुप्ता, न्यूज एडिटर आनंद देशमुख और धीरेंद्र राय, डिजाइनर प्रदीप कुशवाह और उनके पहले दीपक बुढ़ाना भी इस ताकतवर टीम का हिस्सा थे। इंदौर से फोटो एडिटर ओपी सोनी कई यादगार यात्राओं में एक शानदार क्लिक के लिए साथ में थे। आर्टिस्ट गौतम चक्रवर्ती भी, जो अयोध्या के फैसले वाले कवरेज में हाईकोर्ट का नजारा लाइन आर्ट से उतारने के लिए भेजे गए थे। अगर कुछ भी बेहतर हो पाया तो उसमें बड़ी भागीदारी इन सबकी है। मुझे इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी ही चाहिए।
मेरे जीवन के सबसे स्मरणीय, ऊर्जा से भरे ये पांच साल जैसे पलक झपकते ही गुजर गए। इस दौरान तीन साल तक मेरी मां डायलिसिस पर रहीं। धीरे-धीरे संडे जैकेट की हमारी टीम भी बिखर गई। विपुल एडिटर बनकर सागर चले गए। दीपक बुढ़ाना अच्छे पैकेज के ऑफर पर बड़ी दबंगई से सबको अलविदा कह गए। शरद गुप्ता को दिल्ली रवाना किया गया, जहां से वे एक नए रास्ते के लिए अलग हो गए। धीरेंद्र राय को भी न चाहते हुए इंदौर को नमस्कार कहना पड़ा। वे इंडिया टुडे ग्रुप में हैं। पांच साल हुए तो मुझे भी लगने लगा कि पूरा भारत ही मेरे लिए एक बीट बन गया है, जिसमें मैं बार-बार घूम रहा हूं। 2015 में मैंने भी ढेर सारी सुनहरी यादों के साथ अपनी यात्राओं को विराम दिया।
खबरें तो अपनी जगह हैं, जो एक दिन घिस जाने वाली याददाश्त में शायद ही बची रहतीं। मगर इन्हीं यात्राओं के दौरान मैंने इस विलक्षण अनुभव को किताब की शक्ल देना शुरू किया। ट्रेनों के लंबे सफर में, दूसरे शहरों के होटलों में, एयरपोर्ट पर, मां के डायलिसिस के दौरान अस्पतालों के बाहर और यहां तक कि रेलवे के वेटिंग रूम में। जहां, जितना वक्त मिला मैंने यात्रा के अनुभवों को लिखना शुरू किया। जब इस भूमिका से बाहर आया तो एक अच्छा-खासा दस्तावेज हर यात्रा के तरोताजा विवरणों के साथ तैयार था, जिसे मैंने कई प्रकाशकों के पास भेजा। मैं इसे जल्द से जल्द छपा हुआ देखना चाहता था इसलिए कुछ बड़े और नामी प्रकाशकों के यहां मंजूर होने के बावजूद लंबी वेटिंग में जाना मैंने मंजूर नहीं किया। इसे बेंतेन बुक्स के तहत इरा पब्लिकेशन ने छापा। बेंतेन से मेरी एक और किताब 2010 में छप चुकी थी, जो भोपाल गैस हादसे पर थी।
अप्रैल 2016 में मेरी नई किताब अपने शानदार कलेवर में छपकर आई। मैने इसका शीर्षक तय किया था-सदियों के सफर में पांच साल। मगर कुछ मित्रों ने सुझाया कि इसमें भारत जुड़ना चाहिए। अंतत: नया शीर्षक तय हुआ-भारत की खोज में मेरे पांच साल। इसके कवर फोटो के लिए इलाहाबाद के महाकुंभ की एक सुबह की तस्वीर राज पाटीदार से मिली, जो 55 दिन तक किराए की साइकल से कुंभ घूमते रहे थे और करीब 17 हजार फोटो लिए थे। वे रॉयटर्स के लिए काम करते हैं। उन्होंने करीब 15 फ्रेम मुझे दिए। इनमें से गंगा की रेत पर कोहरे में कल्पवासियों की चहलकदमी वाली शानदार तस्वीर सबसे ज्यादा पसंद की गई। वही कवर पर छपी। सीनियर जर्नलिस्ट प्रकाश हिंदुस्तानी ने सुझाया कि बात यात्राओं की है इसलिए कुछ तस्वीरें भी होना चाहिए। आखिरकार 25 चमकदार पेजों पर करीब 70 रंगीन तस्वीरें भी जुड़ गईं।
उज्जैन में सिंहस्थ के दौरान किताब की कुछ कॉपियां मिलीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत सिंहस्थ में हुए वैचारिक महाकुंभ में आए थे, जिसमें मुझे भी जाने का मौका मिला। मैंने संघ कार्यालय में अपनी किताब उनके लिए छोड़कर आया। अगस्त में वे इंदौर आए। मुझे संदेश मिला। मैं वहां जाकर उनसे मिला। किताब पर ही बात हुई। एक मौखिक निवेदन छोड़कर आया था कि दिल्ली, भोपाल या इंदौर में कभी समय हो और स्थिति अनुकूल हो तो प्रवास के दौरान इस पुस्तक के लिए आधा घंटा दें। यह मेरी छठी किताब थी और मैंने तय किया था कि कभी विमोचन, लोकार्पण, चर्चा और गोष्ठी की औपचारिकता में नहीं जाऊंगा। एक पत्रकार के रूप में मैंने अपनी बात किताब में कह दी है। अलग से किसी आयोजन की आवश्यकता कभी नहीं समझी। मैंने लोकार्पण के लिए पहला निवेदन न जाने क्या सोचकर माननीय भागवतजी से किया। वे मुस्करा दिए थे। उन्होंने कहा था-कोई वादा नहीं है। सुनिश्चित बिल्कुल नहीं है। मगर मैं स्मरण रखूंगा। मैंने कहा था-कोई बात नहीं। आप नहीं करेंगे तो मैं भी करता ही नहीं हूं। ऐसा नहीं है कि आप नहीं आएंगे तो मैं किसी और से लोकार्पण करा लूंगा। उस दिन बात वहीं खत्म हो गई।
इस बीच किताब की कुछ समीक्षाएं छपती रहीं। इंडिया टुडे में शरद गुप्ता, लोकमत समाचार में एडिटर विकास मिश्र, वेब दुनिया के एडिटर जयदीप कर्णिक, चौथा संसार की एडिटर जयश्री पिंगले और प्रकाश हिंदुस्तानी ने समीक्षाएं लिखीं, जो दिसंबर 2016 तक छपती रहीं। दिसंबर में इंदौर के लिटरेचर फेस्टीवल के कल्पनाकार और हैलो हिंदुस्तान के संपादक प्रवीण शर्मा ने तीन दिन के जलसे में एक सेशन ही इस किताब पर रख दिया, जिसमें जयदीप, जयश्री और प्रकाशजी ने किताब पर चर्चा की। अमेजन पर यह किताब ऑनलाइन आ चुकी थी और देश भर के मेरे मित्रों ने घर बैठे मंगाई थी। शुरुआती प्रतिक्रियाएं मेरा उत्साह बढ़ाने वालीं थीं।
जनवरी अंंत में मुझे माननीय भागवतजी का संदेश मिला। वे 10-11 फरवरी को भोपाल आ रहे थे। यह करीब एक हफ्ते का लंबा मध्यप्रदेश प्रवास था। मुझे पुस्तक के लोकार्पण के लिए समय तय करने को कहा गया। मैं हैरान था। उन्होंने मेरे मौखिक निवेदन को स्मरण रखा था। ताबड़तोड़ सब कुछ करना नामुमकिन था। रवींद्र भवन आैर समन्वय भवन जैसे ऑडिटोरियम दो महीने पहले से भरे हुए थे। अचानक भारत भवन का सुझाव मिला। अपने 35 वें स्थापना दिवस की तैयारियों के सिलसिले में वह 11 फरवरी की सुबह खाली मिल गया। सिर्फ छह दिनों के भीतर सारी तैयारियां हो गईं। गौतम चक्रवर्ती ने एक डिजिटल पेंटिंग बनाई, जो अपने हाथों से उन्हें भेंट की। राज पाटीदार भी वहां आए। संस्कृति विभाग के प्रमुख सचिव और अच्छे कवि-लेखक मनोज श्रीवास्तव, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, बेंतेन बुक्स के डॉ. विजय अग्रवाल भी मंच पर मौजूद थे। कार्यक्रम के सूत्रधार विनय उपाध्याय ने तो जैसे चार चांद ही लगा दिए।
पहले तो मैं घबराया हुआ था। कभी लोकार्पण जैसी रस्मों में गया नहीं था। अंतत: 11 फरवरी 2017, शनिवार की सुबह 10.30 बजे भारत भवन में रौनक हुई। माननीय भागवतजी सवा घंटा रहे। 23 मिनट बोले। खचाखच भरे अंतरंग सभागार में पिछले तीस साल में भोपाल में हिंदी अंग्रेजी के शिखर संपादक मौजूद थे। इनमें महेश श्रीवास्तव, रमेश शर्मा, विजयदत्त श्रीधर, एनके सिंह, गिरीश उपाध्याय और अवनीश जैन शामिल थे। मेरी उम्र के अनगिनत मित्र पत्रकार आए। टीवी कैमरों ने हर पल को कैद किया। मेरे बचपन के कई दोस्त, गांव के लोग, परिवारजन इन पलों में मेरे साथ थे। मंत्री-सांसद भी सरसंघचालकजी को सुनने के लिए आए, जिनका 23 मिनट का उदबोधन हुआ और देशभक्ति पर कुछ ऐसा बोले कि शाम को ही देश भर के नेशनल न्यूज चैनलों पर सुर्खी बन गई। उन्होंने कहा-किसी की देशभक्ति को नापने का अधिकार किसी को भी नहीं है। बंसल न्यूज चैनल हेड शरद द्विवेदी ने उसी दिन शाम को किताब पर एक स्पेशल शो रखा।
यह मेरे यात्रा यज्ञ की पूर्णाहुति थी। और इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक के सरसंघचालक डॉ. मोहनराव भागवत से श्रेष्ठ आचार्य और कौन होता?
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भारत भवन में हुए भाषणों के यू टयूब के लिंक-
https://www.youtube.com/watch?v=uX3JlvJ1lMo
https://www.youtube.com/watch?v=Sx0kKScSH7Q&t=1s
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सचमुच दुरलभ सौभाग्य।
ReplyDeleteNishchit hi sir ye aapki mehnat ka natija hai. Itni viprit paristhitiya mataji ki bimari ke baad bhi aapne ye uplabdhi hasil ki. Bahut shubhkamnaye sir.
ReplyDelete👌👌👍
ReplyDelete😍😍😍😚
सच्ची अदभुत "भारत एक खोज" के लिये ह्रदय की गहराइयों से शुभकामनाएँ
ReplyDeleteBadhaiii..
ReplyDeleteuncle jee..... adbhut ������������������������������������
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