Monday 30 May 2016

आहत आत्मा की पवित्र गहराइयां



प्रिय विजयजी,

आपकी किताब के छह अध्याय तसल्ली से पढ़कर उस पर अपना मनोगत भेजा है। आपका लेखन गजब का है। उसमें इतिहास, वर्तमान तो है ही भविष्य की दिशा का संकेत भी है। लेखन ऐसा है जैसे आप ट्रेन के डिब्बे में बैठकर खिड़की के बाहर देख रहे हों। दृश्य लगातार बदलते चले जाते हैं। आप की स्मरण शक्ति की दाद देनी पड़ेगी। एक बार पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही चला गया। पूरी करने के बाद फाइनल कट अवश्य भेजना चाहूंगा।

इस नायाब तोहफे के लिए आपको दिल से धन्यवाद व शुभकामनाएं।

आपका 
आनंद
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वरिष्ठ पत्रकार आनंद देशमुख की समीक्षा-

‘इजराइल आज अपने ही खंडहरों पर खड़ा एक चमत्कार है। क्या भारत भी कभी अपने अवशेषों पर ऐसा ही कोई करिश्मा रच पाएगा? या सदियों की उथल-पुथल के बाद टूट-फूटकर सिर्फ बचे रहना ही इसके हिस्से की सबसे बड़ी उपलब्धि है?.... विजय मनोहर तिवारी का यात्रा दस्तावेज ‘भारत की खोज में मेरे पांच साल’ इसी सवाल का जवाब तलाशता लगता है। इस तलाश की खासियत यह है कि इसमें कोई निष्कर्ष नहीं है। एक कैमरा चालू करके छोड़ दिया गया है। जो इस देश की अपार विविधता के फलक पर घूमता रहता है अौर दृश्य दर्ज करता जाता है। हां, दृष्टिकोण देने के लिए साथ-साथ में ऐतिहासिक तथ्यों का पुट जरूर है। भारत की विविधता, आम आदमी की वु्द्धिमत्ता, उसके रहस्य, ‘कोई नृप होई हमें का?’ की प्रवृत्ति और गज़ब के स्वीकार भाव को यह कैमरा जस-के-तस पकड़ता चलता है। निष्कर्ष अपने आप निकल आता है।

 मसलन, अयोध्या विवाद पर फैसले के दिन की रिपोर्टिंग ‘हे राम’’ पढ़िए- ‘अयोध्या के लोगों के लिए यह एक पुराना हिसाब चुकता करने जैसा जरूरी मामला था, जिससे अब राहत महसूस की जानी चाहिए थी...दंगों पर उनकी बहुत आसान-सी दलील थी कि भारत के लिए यह कोई  नई बात नहीं थी। इस वजह से नहीं तो उस वजह से दंगे तो होते ही रहे थे। इस संघर्ष में नया कुछ नहीं है। लोग पहले भी राम जन्म भूमि के लिए शहीद होते रहे हैं....’ यह आम आदमी का ही दर्शन हो सकता है, जो अपने लक्ष्य के लिए चुकाई जाने वाली कीमत को समझता है...कीमत चुकाने को तैयार है और उसे कोई बहुत बड़ी शहादत कहने को भी तैयार नहीं है। 

मध्यवर्ग वर्ग चाहता सबकुछ है पर कीमत चुकाने को तैयार नहीं है। यह संयोग नहीं है कि देश में मध्यवर्ग का दायरा बढ़ने के साथ  फैसले का इंतजार करने वाले मसलों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, जब इनमें से एक भी मसला ऐसा नहीं है, जो अयोध्या मसले जैसी पेचिदगी रखता हो। हरिशंकर परसाई का एक व्यंग्य याद आता है है ‘गुड़ की चाय’ यह बांग्लादेश युद्ध के बाद के अभाव के दिनों की बात है जब चीनी के अभाव में गुड़ की चाय पीना पड़ती थी। परसाईजी लिखते हैं कि मध्यवर्ग गुड़ की चाय पीना ही बहुत बड़ी शहादत मानता है। उसे लगता है यदि 1920 से 1930 के बीच देश गुड की चाय पीता तो कब का आजाद हो जाता।‘ 

‘गुजरात से आए एक दल के सदस्य भावुक होकर कह रहे थे कि भगवान को इस हाल में देखकर कुछ मांगने की बात सोचकर भी शर्म आई। हम उन्हें एक सम्मानजनक स्थान नहीं दे सकते तो इस हालात में उनसे कुछ मांगने से ज्यादा नीचता कुछ हो नहीं सकती,’ बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मोटी तनख्याहों से धनी हुए  नवधनाढ्य मध्य वर्ग के स्वार्थी दृष्टिकोण पर यह तमाचा है। यह वह दृष्टिकोण है, जहां व्यक्ति धार्मिकता के दायरे को लांघकर आध्यात्मिकता के क्षेत्र में पहुंचता है। यह मूर्ति के पीछे मौजूद ईश्वर के अमूर्त विचार की आराधना है, अमूर्त ईश्वर को देख पाने की क्षमता। वरना मूर्ति को ही ईश्वर मानकर की गई पूजा दंभ, मूढ़ता और अड़ियलपन ही पैदा करता है, जिन्हें हम मूर्तियों व मंदिरों की बढ़ती संख्या के साथ हमारे समाज में बढ़ता देख ही रहे हैं। 

भारत की मौलिक बुद्धिमत्ता व आध्यात्मिकता क्या चमत्कार कर सकती है यह ‘देवभूमि के देवता’  सच्चिदानंद भारती के कर्मयोग से स्पष्ट होता है। उत्तराखंड के इस शिक्षक ने सिर्फ अपने दमपर पौड़ी गढ़वाल, नैनीताल और अलमोड़ा की निर्वस्त्र पहाड़ियों पर 40 लाख पेड़ लगाकर न सिर्फ उन्हें हरभरा किया बल्कि पानी के झरने बहा दिए। यह चमत्कार मात्र 20 हजार रुपए सालाना का उनका संगठन ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ ने कर दिखाया है। संयुक्त राष्ट्र ने उनके काम से खुश होकर संस्था को 100 करोड़ रुपए देने की पेशकश की थी, लेकिन सच्चिदानंदजी ने विनम्रता से इनकार कर दिया, क्योंकि इतना पैसा अपने साथ 100 झंझटें लेकर आता और काम एकतरफ ही रह जाता। यह आध्यात्मिक दृष्टिकोण है। पैसा जहां और जितना जरूरी है, उसके उतने महत्व को समझना। 

‘सच का सामना’ वाकई भारत के सच से सामना ही है। नौजवान पंडोखर सरकार का दरबार अद्‌भुत है। उनसे सवाल पूछने गए लोगों के सवाल पहले से ही रखी पर्चियों पर लिखे होते। विजयजी को तो कोई सवाल नहीं पूछना था, सिर्फ आशीर्वाद चाहिए था. पंडोखोर सरकार ने पर्ची उठाई, लिखा था, ‘कोई  सवाल नहीं..आशीर्वाद।’ अपनी इस अद्‌भुत क्षमता पर पंडोखर सरकार को कोई गर्व नहीं है। वे पाखंडी साधु-संतों का भंडाफोड़ कर आध्यात्मिक शक्ति का असल बोध जगाना चाहते हैं। निजी जीवन में गुरुशरण एक रिसर्चर हैं। उनका मानना है कि मध्यप्रदेश के दतिया जिले की भांडेर तहसील का इलाका द्वापर युग में महाभारत के प्रमुख पात्रों की चहल-पहल से भरा था। बस 75 हजार का कैमरा खरीदकर दिन-रात लगे रहते हैं इलाके के इतिहास-पुराण का वीडिया दस्तावेज तैयार करने में। भारत की दिलचस्पी इतिहास जानने में कभी नहीं रही, क्योंकि जब सबकुछ ईश्वर की लीला है तो फिर इतिहास पुराण बन जाता है। पुराण मिथक का रूप लेकर किंवदंतियों से होते हुए अंधविश्वास व अज्ञान के अंधेरे में लेने जाने वाली पाखंड की पगडंडियों पर कब पहुंच जाते है, पता नहीं चलता। वामपंथ ने दलितों व वंचितों की समस्याओं के प्रति हमें संवेदनशील तो बनाया, लेकिन अपने पूर्वग्रह के कारण उसने भारत के इतिहास को सिर्फ राजाओं, युद्ध क्षेत्र व योध्याओं के नामों व तारीखों के सतही विवरण तक सीमित करके रख दिया। जो सामान्य ज्ञान की परीक्षा में सफलता तो दिला सकते हैं पर न तो इतिहास बोध जगाते हैं और न प्रेरित करते हैं। अपने इतिहास बोध के लिए ख्यात पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाकर समाजवाद व पूंजीवाद दोनों के सर्वश्रेष्ठ को लेने का प्रयास किया। क्या ऐसा ही वे ज्ञान के क्षेत्र में नहीं कर सकते थे? सामंतवाद और धार्मिक कट्‌टरता के पुष्ट होने के भय से उन्होंने भारत की मूल आत्मा को ही दफ्न कर दिया। आज बिना आत्मा का यह देश सिर्फ जर्जर काया लेकर खड़ा है। ‘नालंदा की राख पर’ पढ़कर अपनी विरासत खोने का ऐसा तड़पभरा अहसास होता है कि लगता है यदि नेहरू आजादी के तत्काल बाद, हमारे भुलाए इतिहास, संस्कृति व पौराणिक वैभव को जगाने का अभियान चलाते तो फिल्मों, कला और अब विज्ञान तक में नकल करता हमारा यह देश मौलिकता के लिए पहचाना जाता, आदर प्राप्त करता। 

‘कुड़े के ढेर पर सोने जैसा बंगाल’ उसी इतिहास के प्रति बेपरवाही की कड़ी का अगला नमूना है.. विजयजी दर्ज करते हैं ‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के जिन इलाकों में भी मुस्लिम सुलतानों, बादशाहों या नवाबों की स्वतंत्र सत्ताएं कायम हुईं, वे ग्राउंड जीरों नहीं थे। वहां सदियों से हिंदू या बौद्ध शासकों के शासन रहे थे, जहां हजारों की तादाद में मंदिर, स्तूप, महल, कुएं, बावडि़यां, तालाब, बाजार और राजकाज की तमाम इमारतें थीं। हर राजवंश के हरेक राजा ने पीढ़ियों तक इनमें अपने हिस्से के सबसे शानदार निर्माण भी जोड़े थे। यद सदियों में विकसित हुई एक विस्तृत और मालामाल विरासत थी।’  आज के शासक तो इतिहास बोध में कंगाल ही हैं। लेकिन यह जानकर अच्छा लगा कि राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी इतिहास के विद्वान हैं। ‘इतिहास की समझ के कारण ही उन्होंने अपनी मां राजलक्ष्मी देवी के नाम पर ट्रस्ट स्थापित कर बंगाल के एक महान शासक शशांक के समय बने मंदिर को नई शक्ल देने का काम हाथ में लिया। स्थानीय लोगों की नजर में उनका यह काम सरदार वल्लभभाई पटेल के सोमनाथ मंदिर के नवनिर्माण की टक्कर का है।’ 
बंगाल की चर्चा करते-करते विजयजी म्यांमार, मलेशिया, इंडोनेशिया, कंबोडिया, लाओस और विजयनाम में भारतीय साम्राज्य के विस्तार में ले जाते है।, ‘वियतनाम में सदियों के शासन के बावजूद ऐसा एक भी तथ्य सामने नहीं था कि हजारों हिंदू मंदिरों में से एक भी पुराने, स्थानीय देवस्थलों को तोड़कर बनाया गया हो।’ मुस्लिम व अंग्रेजी उपनिवेशों के बरक्स यह अलग ही विजयगाथा है।

विजयजी ने .यह तो अच्छा किया कि उन्हें  अपनी यात्राओं में भारत की ‘आहत आत्मा की पवित्र गहराइयों में झांकने का जो मौका’ मिला उसे तत्काल दर्ज कर उसे दस्तावेज बना दिया। लेकिन अब उन्हें तसल्ली से बैठकर अपनी गहरे इतिहास बोध के आधार पर एक परिप्रेक्ष्य देकर फिर उन्हीं इलाकों की मानसिक यात्रा कर नई गहराइयों के साथ भारत पेश करना चाहिए।

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